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भुंजिया आदिवासी समाज में क्या है बूढ़ा देव का महत्व?

हर समाज में लोगों की मृत्यु के बाद अलग-अलग तरीके से उन्हें विदा किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। उड़ीसा के नुवापाड़ा के भुंजिया आदिवासियों की भी एक अलग प्रथा है, जो पुरातन काल से ही फरवरी माह में भुंजिया समाज के सोसंज्ञा गोत्र में घर जात्रा मनाया जाता है, जिसमें बूढ़ा देव एवं धारनी दाई का पूजा पाठ किया जाता है।

जात्रा की तैयारी करता युवक

घर के सग-सियान या बुज़ुर्ग जब सांसारिक दुनिया को छोड़कर मिट्टी में मिल जाते हैं अर्थात् जब उनका स्वर्गवास हो जाता है, तो उन्हें देव डुमा के रूप में माना जाता है। भुंजिया समाज के आदिवासी उनकी आत्मा को बूढ़ा देव के रूप में मानते हैं। बूढ़ा देव को ही प्रसन्न करने के लिए घर जात्रा या बोढ़ त्यौहार मनाते हैं।  

बूढ़ा देव और बड़ा देव के संबंध में मान्यताएं 

केंद्रीय गोंड महासभा धमधागढ़ के लोग बूढ़ा देव को ईष्ट देव और सर्वशक्तिमान मानते आ रहे हैं। बड़ा देव प्रकृति के 5 तत्वों को कहते हैं, जो सर्व शक्तिमान है। गोंड़वाना के गोंड महासभा के लोग भी इसी प्रकार का तर्क देते हैं।

नागपुर के गोंडी धर्म जागृति संस्थान के अनुसार, सात पीढ़ी पूर्व के गुज़रे हुए सियान या पूर्वज को स्थापित कर, पुरखापेन के रूप में मानते हैं, जिसे बूढ़ा देव कहते हैं। इसके अलावा पंच भूतादि या पांच तत्व जिससे शरीर जीवित रहता है, मृत्यु के बाद अपने मूल तत्व में विलीन हो जाता है, उसी पंच भूतादि पंच तत्व को बड़ा देव कहते हैं।

वह सल्ला गांगरा के बारे में बताते हैं कि यह सम्पूर्ण प्रकृति धरती और आकाश है, मातृ शक्ति-पितृ शक्ति और यह ही सर्व शक्तिमान सल्ला गांगरा है। यह बुढ़ादेव और बड़ा देव से अलग है।        

मान्यता पर खड़े होते हैं कई सवाल

इस मान्यता के बारे में कई सवाल खड़े होते हैं। मनुष्य जब जीवित इंसान में पंच भूतादि अर्थात पंच तत्व विद्यमान रहता है, तब मनुष्य बड़ादेव क्यों नही कहलाता? मृत्यु के बाद मृतक का कुंडा मिलान कर, स्थापित करने के बाद ही क्यों बूढ़ा देव कहलाता है?

मनुष्य की मृत्यु के बाद पंच तत्व अपने मूल तत्व में चला जाता है, तो मनुष्य के शरीर मे आखिर बचता क्या है? किसका कुंडा मिलाकर बूढ़ा देव के रूप में स्थापित किया जाता है?

हमारे आदिवासी लोग अपने घर-परिवार के सात पीढ़ियों के 22 पुरखों की मृत आत्माओं को मानते आ रहे हैं और इन आत्माओं को खुश करने के लिए घर जात्रा मनाया जाता है। सात पीढ़ियों की आत्मा को डुमा कहते हैं और 22 पुरखों को बुढ़ा देव कहते हैं।  

ऐसे करते हैं बड़ा देव की पूजा 

पूजा करने से पहले देवी-देवता के हथियार को पानी से धोकर, फिर उन्हें दूध से धोया जाता है। उसके बाद हथियार को लाल बंगले के सामने रखकर दीप जलाते हैं। चावल की पूंजी या कुढ़ी मढ़ाते हैं और बेलपत्ते में दूध और चावल चढ़ाया जाता है।

फिर सरयी धूप की जग देते हैं और समाज के बुजुर्गजनों को नारियल देकर देव डुमा को गोहारते हैं। सब मिलकर जग देते हैं और उस दिए गए नारियल को अपने देव डुमा के नाम से अलग से स्थान में जग देकर एवं अपने देवी-देवताओं की प्रार्थना करके नारियल को फोडाते हैं।

इस तरह करते है बडा देव की पूजा

देवी-देवता के कार्य के लिए सिरहा

देवी-देवता के कार्य में एक सिरहा की ज़रूरत पड़ती है। देव डूमा की बात सुनने या जानने के लिए सिरहा होता है, ऐसा लोग मानते हैं। सिरहा एक ऐसा व्यक्ति होता है, जिसे देवी-देवता ही चयन करते हैं। ऐसे किसी भी व्यक्ति के सिर में देवी-देवता नहीं आते और कोई भी व्यक्ति अपनी मर्ज़ी से सिरहा नहीं बन सकता है।

किसी व्यक्ति के सिर में जब देवी प्रवेश करती है, तो वह शर्ट बनियान निकाल देता है। उसके बाद ही जहां पर देवी का स्थान बना रहता है वहां जाकर जग लेता है। फिर वह पूछता है सिर में कौन से देवी आई हैं। उस देवी को प्रणाम करने के बाद, जो भी देवी से पूछना है, उसे पूछते हैं और देवी के पास अपनी समस्या बताते हैं और उसका हल मांगते हैं।

आदिवासियों की मान्यता है कि इस पूजा से धूर-बांध और जादू-टोने से छुटकारा मिलता है। कई बार ऐसे होता है कि लोग डॉक्टर के पास इलाज कराते-कराते थक जाते हैं, तो देवी देवता मरीज़ को ठीक करते है, ऐसा लोगों का मानना है।

आदिवासियों की देवी-देवताओं के ऊपर बहुत आस्था-विश्वास होती हैं और यह भुंजिया आदिवासियों की संस्कृति का एक अपरिहार्य भाग है। 

यह जानकारी श्री निरंजन भुंजिया, जिला नुवापाड़ा, उड़ीसा से प्राप्त हुई है। 


(लेखक के बारे में- खगेश्वर मरकाम छत्तीसगढ़ के मूल निवासी हैं। यह समाज सेवा के साथ खेती-किसानी भी करते हैं। खगेश का लक्ष्य है शासन-प्रशासन का लाभ आदिवासियों तक पहुंचाना। यह शिक्षा के क्षेत्र को आगे बढ़ाना चाहते हैं।)

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