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“झारखंड में जब नक्सलियों ने मेरे दोस्त की कनपट्टी पर बंदूक सटा दिया था”

है अपना दिल तो आवारा ना जाने किस पे आएगा।

खाली सड़क, खुशनुमा मौसम और चारों तरफ हरियाली के बीच बाइक राइड का मज़ा ही कुछ और है और यह सफर तब और मज़ेदार हो जाता है, जब आप झारखंड में किसी पहाड़ी इलाके से बारिश के मौसम में गुजर रहे होते हैं। इस लॉकडाउन के वक्त मैं और मेरा परिवार कोरोना के डर से शहर से भागकर झारखंड के छोटे से गाँव में अपने संबंधी के यहां आकर रुके हुए हैं।

गाना खत्म होने वाला था कि मैंने आगे मोटरसाइकिल चला रहे मेरे मित्र से कहा, “गाड़ी रोको थोड़ा सा रुककर बैठा जाए।” उसने गाड़ी रोका और मैंने गाना बंद कर दिया। सामने हरे-भरे पहाड़ को देखते हुए मैंने अपने हाथ पैर झाड़े। मैं वहां पर एक चट्टान पर जा बैठे और पहाड़ की ओर देखता रहा।

ऐसे नज़ारे हमें शहर में देखने को कहां मिलते है। मेरे दोस्त नीलेश ने मेरी चुप्पी तोड़ते हुए मुझसे कहा यहां ज़्यादा देर रुकना सही नहीं है। मैंने उसे हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचा और चुपचाप बैठने को कहा और वह बैठ भी गया। मेरी नज़र उस ढलते सूरज की ओर पड़ी जो पहाड़ के पीछे छिपने ही वाला था।

मेरी नजरें माइलस्टोन पर पड़ी जिस पर लिखा था काठीकुंड 5 KM और उसके दूसरी तरफ पाकुड़ 65 KM। नीलेश ने फिर से कहा, “अब चलें।” मैंने उससे पूछा, “ये वही काठीकुंड है ना, जो नक्सल प्रभावित क्षेत्र है।” उसने हां में जवाब दिया।

फिर मैंने उससे पूछा, “क्या तुम कभी नक्सली से टकराए हो?” उसने फिर से हां कहा। मैं उसकी तरफ देखता रह गया। मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई फिर मैंने उसे सारी बात बताने को कहा। वो बोला, “यह जंगल सिर्फ जंगल, पेड़, पौधे,पहाड़ और जानवरों तक सीमित नहीं है। इनके अंदर रहते हैं क्रांतिकारी, दैत्य, नक्सली! अब उन्हें जो भी नाम दे दो। वो जंगल का एक पत्ता सरकार को नहीं तोड़ने देना चाहते हैं।”

मैं और उत्सुकता भरी नज़रों से उसकी ओर देखने लगा और उसके शब्दों को बूंद- बूंद करके समेटता गया। उसने बोला ध्यान से सुनो।

नीलेश ने नक्सलियों ने मुलाकात का किस्सा सुनाया

बात दो साल पहले की है, कठीकुंड से भी 2 KM अंदर एक छोटा सा गाँव है, जहां मुझे 6 छोटे-छोटे पुलिया बनाने का कॉन्ट्रैक्ट मिला था। पंजाब की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी थी, जिसे दुमका ज़िले के सारे छोटे गाँवों को स्टेट हाईवे से जोड़ने का कॉन्ट्रैक्ट मिला था।

कंपनी ने हम जैसे छोटे कॉन्ट्रैक्टर्स के बीच इस काम को बांट दिया था। हम उनमें पहले पैसा इन्वेस्ट करते हैं, पुलिया बनवाते हैं फिर बिल बनाकर कंपनी को देकर मुनाफा पाते हैं। उस वक्त मेरी उम्र 22 साल की थी और यह मेरा खुद के बल पर लिया हुआ पहला काम था।

दिसंबर का महीना था, मैंने 5 पुलिया बनवा दिया था। यह अंतिम पुलिया था और वह भी इसमें काम का अंतिम दिन ही था। मैं बड़ा खुश था कि चलो यह पहला काम कुशल मंगल तरीके से समाप्त हो जाएगा आज। यह पुलिया थोड़ा ज़्यादा अंदर था, गाँव के पहाड़ से बिल्कुल सटा।

मुझे पता था कि यह इलाका नक्सल प्रभावित क्षेत्र है मगर मुझे यह भी बचपन से सुनने को मिला था कि नक्सली बिन मतलब किसी को परेशान या तंग नहीं करते हैं। मैं अपने काम को चुपचाप अंजाम दे रहा था बिना किसी से मतलब रखे। आज काम ज़्यादा नहीं था, इसलिए सिर्फ एक मिस्त्री और दो लेबर को ही मैंने काम पर आने का आदेश दिया था और आज इन सबका पेमेंट करके मैं भी यहां फिर शायद कभी नहीं आता मगर किस्मत को तो कुछ और ही मंज़ूर था।

काम का अंतिम दिन था जिस कारण थोड़ी देर हो गई थी। यहां ठंड के मौसम में शाम के 4 बजे के बाद रहना ठीक नहीं होता है। मैंने मिस्त्री से कहा कि काम फटाफट समेट लीजिए, वक्त निकलता जा रहा है।

क्या हुआ जब पहुंचा नक्सलियों का खबरी?

मिस्त्री ने कहा, “एक घंटा और लगेगा साहब। आज छुट्टी कर ही लेंगे।” मैंने सोचा कल आने से अच्छा है कि आज ही एक घंटा और रुक लिया जाए। यहां पर मोबाइल का नेटवर्क भी नहीं रहता था। तो मैं अपनी मोटरसाइकिल में बैठकर गेम खेलने लगा। थोड़ी देर बाद किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। मैं मुड़ा तो देखा दो लड़के खड़े हैं। दिखने में वे आदिवासी जैसे लग रहे थे। उनकी हिंदी भी वैसी ही थी।

उन्होंने मेरा नाम पूछा। मैंने अपना नाम नीलेश किसान साहू बताया। उन्होंने मुझसे पूछा कि यह काम कब से करवा रहे हो? मैंने बताया, “दो महीने से।” फिर वे पूछने लगे कि यहां काम किसकी इजाज़त से करवा रहे हो?” मैंने भी बता दिया कि पंजाब की एक कंपनी है जिन्होंने हमें ठेके पर काम दिया है।

उन्होंने काम रुकवाने को कहा। बोला, “अब आगे काम नहीं होगा और पहले से जो बने पांच पुलिया हैं, उन्हें भी तोड़ने की धमकी दी।” इतना सुनते ही मुझे गुस्सा आ गया। मैंने उनसे गुस्से में आकर कहा, “हिम्मत है तो हाथ लगाकर देखो।” यह सुनते ही उन्होंने मुझे माँ-बहन की गाली दी और धक्का भी दे दिया।

मेरा भी गर्म खून था। मैंने आव देखा ना ताव खींचकर एक तमाचा मार दिया। फिर उन्होंने भी मारना शुरू कर दिया मगर वे दो होकर भी थोड़े कमज़ोर थे। मैंने उन्हें 3-4 ज़ोर का मुक्का मारा। तब तक इतने में सारे लेबर और मिस्त्री बीच – बचाव करने को आ गए। उन दोनों लड़कों ने देखा कि हम संख्या में ज़्यादा हैं, तो वहां से निकल लेना ही बेहतर समझे मगर जाते-जाते उन्होंने हमें चेतावनी दिया कि तुम्हें देख लेंगे।

लोगों की भीड़ को जब आते देखा!

उनके जाने के बाद मिस्त्री ने कहा, “क्या साहब, आज अंतिम काम है। क्यों इन लफंगों के मुंह लग रहे हैं, होंगे कोई पास के गाँव के लड़के।” इतना कहकर सारे लोग फिर से काम पर लग गए और मैं अपने मोबाइल में व्यस्त हो गया।

5:15 बजे मिस्त्री ने काम खत्म कर दिया और तब तक काफी अंधेरा हो चुका था। हम सबने अपना-अपना ट्रॉर्च निकाल लिया था और 5:30 के लगभग सारे मिस्त्री और लेबर को पेमेंट करके घर जाने को कह दिया था। यह भी वादा किया कि अगला काम इन्हें ही दूंगा।

मिस्त्री और लेबर के जाने के बाद मैं अपने मोबाइल में सारा हिसाब वहीं पर बैठकर करने लगा, जिसमें मुझे 10-15 मिनट का वक्त और लग गया। फिर मैंने जैसे ही मोटरसाइकिल स्टार्ट की ही थी कि सामने से 40-50 लोगों की भीड़ आते हुए देखा जिनके कंधे पर बंदूकें थीं।

मैं पीछे मुड़कर भागने की सोचा मगर मुझे याद आया वो रास्ता तो पहाड़ पर जाकर खत्म होता है। फिर मैं उतरा और खेतों में भागने ही वाला था तभी उनमें से किसी एक ने आवाज दी, “भागकर ज़्यादा दूर नहीं जा पाओगे। जहां खड़े हो वही खड़े रहने में तुम्हारी भलाई है।”

मेरे कंठ सूख चुके थे और दिमाग काम नहीं कर रहा था। डर से मेरा सीना ज़ोर से धड़का जा रहा था। मैं डर से वहीं खड़ा रह गया। तब तक सारे लोग करीब आ गए थे। उनमें से दो लोगों ने मेरे दोनों हाथ कोहनी के पास से पकड़ा लिया।

क्या हुआ जब नक्सलियों के सरगना का बुलावा आया?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

उन सभी के पास बंदूकें थीं, सभी ने चेहरे पर काले रंग के गमछे से मुंह बांध रखा था और पैरों में एक जैसे गोल्ड स्टार वाले जूते थे। जिसने मुझे आवाज़ दी थी, वह सामने आया और कहा, “चलो दा ने बुलाया है।” मैंने कहा, “मैंने कुछ नहीं किया मुझे घर जाने दो।” उसने कहा, “चुपचाप चलोगे या उठाकर ले जाएं?” फिर सारे लोग एक घेरा बनाकर साथ में चलते गए। वे मुझे कुछ 300 मीटर के करीब एक पहाड़ पर ले गए, जहां पर एक चट्टान पर मुझे बैठा दिया और ‘दा’ का इंतज़ार करने लगे।

उनके ‘दा’ 2 मिनट बाद आए। उनकी पोशाक आम लोगों जैसी थी और वो भी मुंह पर काला गमछा लपेटे हुए थे, हांथ में सोने का कड़ा था और कुछ-कुछ बांधा हुआ था। फिर उनमें से एक ने मेरे कनपटी पर बड़ी सी बंदूक सटा दी।

मैं वहां डर से थरथराने लगा और अपने सारे अच्छे कर्मों को याद करने लगा। सारे भगवान आंख के सामने नज़र आ रहे थे और मन में यही विनती कर रहा था कि मैंने अगर अपनी ज़िन्दगी में कभी भी किसी इंसान का कुछ भला किया है, तो मुझे भगवान बचा ले।

वहां सारे लोग अलग-अलग दिशा में पहाड़ के ऊपर 4-5 का समूह बनकर पहरा देने लगे। एक ने दा से कहा, “यही है वो लड़का दद्दा।” दद्दा ने कहा, “उन दोनों लड़कों को भी बुला लो जिसको इसने मारा था।” वो दोनों लड़के भी वहां आए।

दद्दा ने मुझसे पूछा कि तुमने इनको क्यों मारा? मैंने कहा दद्दा गलती हो गई। मुझे पता नहीं था कि ये आपके लोग हैं। दद्दा ने फिर पूछा, “तुमने इन्हें क्यों मारा?” मैंने हिम्मत करके कहा, “इन्होंने पहले गाली दी थी और बदतमीज़ी से बात कर रहे थे। मुझे गुस्सा आया दद्दा गर्म खून था, इसलिए हाथ चल गया।”

दद्दा ने उन दोनों लड़कों को पास बुलाया और संथाली में पूछा, “तुम लोगों ने गाली दी थी क्या?” लड़कों ने कहा, “दद्दा यह कुछ बता नहीं रहा था, इसलिए हमने इसे गाली दी थी।” दद्दा ने कहा, “मैंने तुम्हें सिर्फ जाकर सवाल-जवाब करने कहा था ना कि गाली देने को।”

यह सुनने के बाद मैंने कहा, “दद्दा मैंने इन्हें सारे सवालों का जवाब सीधे तरीके से दिया था मगर ये दोनों काम रोकने और पुलिया तोड़ने की धमकी दे रहे थे।”

नक्सलियों के सरगना (दद्दा) ने मेरे कैरियर और घर-परिवार के बारे में पूछे प्रश्न

दद्दा मेरी ओर देखने लगे और मुझसे पूछा, “तुम्हें संथाली आती है? कहां के हो?” मैंने कहा, “पास के ही गाँव गोपीकंदर का।” हां दद्दा, मुझे संथाली आती है। हटिया में मेरे पिताजी बर्तन की दुकान करते हैं तो रहते-रहते मैंने सीखी।”

मेरे अंदर अभी भी डर था, क्योंकि मेरी कनपट्टी पर अभी भी बंदूक लगी हुई थी और दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। मुझे डर लग रहा था कि कहीं गलती से ये बंदूक चला ना दे मगर थोड़ी बात होने के बाद मन हल्का लग रहा था।

दद्दा ने पूछा, “क्या करते हो?” मैंने बताया, “सिद्दो कान्नू मुर्मू यूनिवर्सिटी, दुमका से अभी बीए पास किया हूं इसी साल। साथ में पिताजी के साथ हटिया में बर्तन की दुकान पर बैठा करता हूं। उसी से हमारा गुज़र-बसर होता है। पिछले साल बड़े ठेकेदारों का मैं मुंशी था मगर इस साल काफी मेहनत कर मैंने यह पहला काम अपने नाम पर उठाया ताकि दो पैसा कमा सकूं।”

दद्दा ने पूछा, “यह कॉन्ट्रैक्ट तुम्हें कहां से मिला?” मैंने कहा, “मैं जब मुंशी था दद्दा तब अपने साहब का बिल बनवाने पंजाब वाले कंस्ट्रक्शन ऑफिस में जाया करता था। तब मैंने वहां के एक साहब को कहा था कि कभी हम छोटे लोगों को भी काम दीजिए। मैं थोड़ा पढ़ा-लिखा भी हूं तो उन्होंने मुझे यह काम दिया। ”

दद्दा ने इशारे से बंदूकधारी को मेरी कनपट्टी से बंदूक हटाने को कहा। उस वक्त मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा किया हुआ सारा पूजा सफल हो गया हो, ऐसा लगा जैसे मेरे लिए की गई सारी दुआएं कबूल कर ली गई है।

दद्दा ने फिर पूछा, “घर पर कौन-कौन हैं?” मैं बोला, “एक दीदी, दो छोटी बहन, माँ-पिताजी और दादी हैं। पिताजी को दिल और चीनी की बीमारी है। माँ ज़्यादा काम नहीं कर सकती हैं। घर का सारा काम फिलहाल दीदी ही देखती हैं।

दद्दा ने पूछा, “तुम पढ़े-लिखे हो फिर यह काम क्यों करते हो?” मैंने कहा, “दद्दा मैं पढ़ा-लिखा बेरोज़गार हूं, मानकर चलिए कि घर पर कमाने वाला मैं ही हूं। हटिया की दुकान से उतनी कमाई होती नहीं है मगर एक सरकारी परीक्षा पास किया तो वहां 500000 रुपये मांग रहे थे।”

मैंने उन्हें आगे बताया, “ऑफिस वाले साहब की पैरवी से पोस्ट ऑफिस में भी एक मुंशी की नौकरी मिल रही थी मगर वहां भी पैसा मांग रहे थे। मेरे पास पैसे नहीं थे देने को और अगर मैं कमाऊंगा नहीं, तो घर चलाना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए यह करना पड़ रहा है। इसमें पैसा ठीक-ठाक आ जाता है।”

दद्दा ने बताया कि उनके आदमी मेरे द्वारा बनाए गए पुलिया उड़ाने वाले हैं

उन्होंने मुझसे पूछा, “कितने पुलिया बनाए हो और कहां-कहां बनाए हो?” मैंने सारे 6 पुलिया और उनका पता बता दिया।वो बोले, “हमलोग यह सारे पुलिया 3 से 4 दिनों के भीतर बारूद से उड़ाने वाले थे। साथ ही साथ और भी 14-15 पुलिया उड़ाने वाले थे।”

दद्दा ने कहा, “पंजाब कंस्ट्रक्शन कंपनी के इस क्षेत्र के साहब को हमने कई बार फिरौती लेकर आने को कहा है मगर अभी तक वो नहीं आए हैं। इसलिए हम यह सारे पुलिया उड़ाने वाले थे मगर चलो अब इन सब पुलिया को मेरे लोग नहीं छुएंगे। बाकी रही बात साहब की, तो उन्हें हम कल परसों में देख लेंगे या फिर 3 दिन के बाद अखबार में तुम देख लेना।

मैंने हिम्मत करके बोला, “मैं बहुत गरीब आदमी हूं और घर की बहुत ज़िम्मेदारी है मेरे ऊपर। अगर ये छ: पुलिया को कुछ हुआ तो मेरा सारा कर्ज़ में लिया हुआ पैसा भी डूब जाएगा।” दद्दा बोले, “जाओ कुछ नहीं होगा तुम्हारे पुलिया को और किससे कर्ज़ लिए हो उसका नाम और पता दो, उसे भी देख लेते हैं कर्ज़ भी नहीं देना होगा तुम्हें वापस।”

मैं दद्दा के मुंह से “जाओ” शब्द सुनकर ऐसा खुश हुआ जैसे किसी इंसान को पुनः जन्म मिल गया हो। मैंने कहा, “नहीं दद्दा इसकी कोई ज़रूरत नहीं है।” उन्होंने कहा, “भविष्य में कभी कंस्ट्रक्शन का काम ना मिले और मेरी जरूरत पड़े तो बताना, यहीं कहीं मिल जाऊंगा। शाम के वक्त आ जाया करना वरना यहां के पास वाले गाँव से पूछ लेना दा कहां मिलेंगे, वे तुम्हें मेरे पास पहुंचा देंगे हाथ पैर बांधकर।

वहां पर सारे लोग यह सुनकर हंसने लगे। मेरे चेहरे पर भी पहली बार इतनी देर के बाद मुस्कान लौट आई। उन्होंने उन दो लड़के को बुलाया और कहा मुझसे हाथ मिलाने को। हमने आपस में हाथ मिलाया और फिर उन्होंने अपने एक आदमी से कहा, “जाओ इसे इसकी मोटरसाइकिल तक छोड़ आओ।”

तेज़ रफ्तार में मोटरसाइकिल स्टार्ट कर दोस्त वहां से रवाना हो गया

मैं मोटरसाइकिल पर बैठा, चाभी पहले से लगी हुई थी। उसे स्टार्ट की और तेज़ रफ्तार में मोटरसाइकिल चलाकर भागा जैसे मौत के मुंह से निकलकर कोई इंसान भागता हो। रास्ते भर मैंने भगवान को याद किया, माँ का किया हुआ मेरे लिए जितिया और छठ: मुझे याद आया। मैंने गाड़ी कहीं नहीं रोकी, सीधे घर के बाहर बरामदे पर लगाया और एक गहरी सांस ली।

पिताजी बाहर बरामदे पर बैठे हुए थे। काफी परेशान थे इतनी देर से लौटने पर जब मैंने घड़ी की ओर देखा तो 9:30 बज चुके थे। मेरा गाँव तब तक लगभग एक नींद पूरा भी कर चुका होगा।

यहीं थी मेरी मुलाकात नक्सलियों से। नीलेश चट्टान से उठते हुए बोला। अब चलो घर काफी अंधेरा हो चुका है। हम वहां से घर की ओर बाइक से आने लगे। मन में काफी सवाल थे और काफी कुछ जानने-समझने को मिला। मैं समझ नहीं पा रहा था कि नक्सली आखिर होते क्यों हैं? ये बनते क्यों हैं नक्सली?

ये अच्छे होते हैं या बुरे? फिर मैंने पहाड़ों की तरफ देखा तो लगा यह पहाड़ दूर से दिखने में जितने शांत नज़र आते हैं, करीब जाने पर उनमें उतना ही शोर है। नीलेश ने मुझे मेरे घर पर उतारा। मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उससे एक और सवाल किया, “क्या फिर तुम कभी दद्दा से मिले?”

नीलेश ने हंसते हुए कहा, “कल काफी बड़ा काम मिलने वाला, पंजाब वाला कंस्ट्रक्शन ऑफिस जा रहा हूं। वहां के साहब ने बुलाया भी है। बाकी बात कभी और होगी।” नीलेश ने गाड़ी स्टार्ट की और चल दिया।

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