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आज भी आखिर क्यों नहीं कम हो रहे दलितों पर अत्याचार के मामले?

Dalit Lives Matter

Dalit Lives Matter

हम स्वतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश के नागरिक हैं। यहां देश की शासन व्यवस्था को उचित रुप से संचालित करने के लिए कार्यपालिका और न्यायपालिका दो अलग-अलग तंत्र हैं लेकिन अगर जनता की सेवा के उद्देश्य से बने यही तंत्र जनता के भक्षक बन जाए तो स्थिति भयावह हो जाती है।

हाल ही में मध्य प्रदेश के गुना से पुलिस की बर्बरता की खबर सामने आई है। जिसमें पुलिस द्वारा अतिक्रमण के आरोप में एक किसान दंपति को बुरी तरह पीटा गया। जिससे एक बार फिर जातिगत आधार पर होने वाले भेदभाव का कलंकित चेहरा सामने आ गया है।

मध्य प्रदेश के गुना से पुलिस की बर्बरता की तस्वीर, तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

क्या है पूरा मामला?

दलित किसान दंपति पर पुलिस ने उस वक्त बर्बरता दिखाई जब उन्होंने अपनी फसल को खराब किए जाने का विरोध किया। दरअसल राजकुमार अहिरवार नाम के दलित किसान ने जिस जमीन पर बटाई पर खेती की थी पुलिस उसे अतिक्रमण के तहत खाली कराने आई थी।

इस कार्रवाई के दौरान पुलिस ने राजकुमार की खड़ी फसल पर जेसीबी चलवा दी। राजकुमार और उसकी पत्नी ने इसका विरोध किया, तो पुलिस ने अमानवीय और गैरकानूनी तरीके से दोनों को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया। जिसके बाद दोनों ने कीटनाशक पी लिया। इसके बाद भी पुलिस प्रशासन ने उनकी कोई खबर नहीं ली थी, बल्कि उनके बच्चे ही उन्हें उठाने की कोशिश कर रहे थे।

मौके पर पहुंचे राजकुमार के भाई के साथ भी पुलिस ने मारपीट की। पुलिस ने राजकुमार और उसकी पत्नी सावित्री के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज कर लिया है। पुलिस का आरोप है कि पहले राजकुमार के परिवार के लोगों ने ही महिला पुलिस के साथ बदतमीज़ी की और उसके बाद उनके साथ थोड़ी सख्ती की गई।

अधिकारियों के अनुसार, यह ज़मीन पहले ही आदर्श महाविद्यालय के लिए आवंटित की जा चुकी है। वहीं स्थानीय लोगों के अनुसार इस ज़मीन पर एक पूर्व पार्षद का कब्ज़ा रहा है और उन्होंने यह ज़मीन राजकुमार अहिरवार को पैसे लेकर खेती करने के लिए दी थी।

तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

क्या कहते हैं दलितों पर अत्याचार के आंकड़े?

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो यानी वह संगठन जो देश भर के अपराधों के आंकड़ें जारी करती है। इसके आंकड़े बताते हैं कि दलितों पर अत्‍याचार के मामले आज़ादी के 74 साल बाद भी रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। यह अब भी हो रहे हैं और भारी संख्या में हो रहे हैं। आज भी कई ऐसी खबरें आती हैं कि दलितों की शादी में दूल्‍हे के घोड़ी चढ़ने पर बवाल हो गया।

इसी साल के फरवरी महीने में ही गुजरात के बनासकांठा से ऐसी खबर आई थी। जिसमें बनासकांठा के सांदीपाडा गांव में एक दलित युवक को शादी के दौरान घोड़ी पर चढ़ने से ऊंची जाति के लोगों ने पहले तो रोका था और उसके बाद न मानने पर उनलोगों ने पथराव भी किया था।

ऐसी घटनाएं इस बात का स्पष्ट उदाहरण हैं कि दलितों को लेकर समाज का एक बड़ा तबका आज भी पुरानी सोच या यूं कहें दकियानूसी विचारधारा से बंधा हुआ है।

एनसीआरबी की रिपोर्ट क्या बताती है?

एनसीआरबी की रिपोर्ट भी इस बात की गवाही देती है। रिपोर्ट में राज्‍यों के हिसाब से दलित अत्‍याचार की घटनाएं भी बताई गई हैं। दलितों के खिलाफ अपराध के मामले में अब भी कमी आती नहीं दिख रही है, एनसीआरबी के आंकड़े इस बात की तस्दीक भी करते हैं।

यह आंकड़े बताते हैं कि अनुसूचित जाति के खिलाफ अपराध पांच सालों में करीब पांच फीसदी तक बढ़ा है। साल 2014 में अनुसूचित जाति (एससी) के खिलाफ अपराध के 40,401 मामले सामने आए थे। वहीं 2018 में बढ़कर यह आंकड़ा 42,793 पर पहुंच गया। साल 2017 में तो एससी के खिलाफ अपराधों की संख्या 43,203 तक पहुंच गई थी।

मध्य प्रदेश के गुना में पुलिस की बर्बरता के बाद की तस्वीर, तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

सामाजिक स्तर पर स्थितियों में सुधार की ज़रूरत

दलितों पर अत्याचारों को कम करने के लिए संस्कार और सोच में बदलाव लाने की ज़रूरत है। यह सिर्फ दलित और आदिवासी समाज की बात नहीं है। महिला उत्पीड़न पर सड़क पर उतरने वाले नागरिक समाज के सदस्यों को दलित महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार के खिलाफ भी सड़क पर उतरना पड़ेगा। पढ़े-लिखे युवा वर्ग को इसमें बढ़ी भूमिका निभाने की ज़रूरत है।

इस तरह की घटनाओं का एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। इस तरह की वारदात को अंज़ाम देने का उद्देश्य समाज को आतंकित करना होता है ताकि समाज डर जाए।

साथ ही राज्य सरकारों को इच्छाशक्ति दिखानी होगी और अपराध को अपराध समझना होगा। इसके साथ ही कानूनों को भी सख्ती से लागू करना होगा। उपर्युक्त घटनाक्रम में अगर राजकुमार ने वास्तव में अतिक्रमण किया भी था तो इस पर कानूनी कार्रवाई करने की ज़रूरत थी, ना कि घृणित अमानवीय आचरण करने की।

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