बिहार के इस चुनावी साल में सबसे बड़ा मुद्दा अगर कुछ है, तो वो है रोज़गार। रोज़गार के बारे में 60 के दशक में भोजपुरी के ‘शेक्सपियर’ कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर ने एक अल्फाज़ दिया था। यह आज के समय में भी में काफी प्रसिद्ध है, “लागल झूलनियां के धक्का बलम गईलें कलकत्ता।”
यह शब्द उस समय के हैं, जब बिहार का श्रमिक समाज अपना पेट पालने के लिए कलकत्ता के चटकल फैक्ट्री और झरियां के कोईलवरी में जाया करता था। इससे पता चलता है कि इस राज्य में कई वर्षों से पलायन होता आ रहा है।
पलायन रोकने में नकाम रही हैं सरकारें
बिहार की लगभग सभी सरकारें चाहे वो पिछली सरकार हो या वर्तमान सरकार सभी ने बिहारियों को पलायन रोकने के नाम पर ठगा ही है। बुद्धिजीवियों के एक समाज का मानना यह भी है कि राज्य में नदियों का जाल है और यहां बड़े पैमाने पर बंजर जमीन भी है। इसलिए यहां उद्योग लगाए जा सकते हैं। इसके अलावा लघु उद्योगों को प्रोत्साहित कर बड़े पैमाने पर रोज़गार भी मुहैया कराया जा सकता है।
अभी कुछ दिनों पहले एक खबर छपी थी कि राज्य के खगड़िया ज़िले के रहने वाले 300 मजदूरों को राइस मील में काम करने के लिए तेलंगाना के लिंगमपल्ली जाना पड़ा। जबकि बिहार में धान की पैदावार (लगभग 5.5 से 7.0 टन प्रति हेक्टेयर) काफी अधिक होती है।
क्यों जाना पड़ता है बिहार के मज़दूरों को राज्य से बाहर
राज्य के कई ज़िले जैसे कि रोहतास, पूर्णिया, कटिहार ज़िले को ‘धान का कटोरा’ कहा जाता है, अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि फिर क्यों बिहार के मज़दूरों को अपना गृह राज्य छोड़कर काम के लिए किसी दूसरे राज्यों में जाना पड़ता है?
राज्य में राइस मिल चलाने वाले लोगों का मानना है कि बिहार सरकार कभी नहीं सोचती कि बिहार के ही पीडीएस में लगने वाला चावल यदि यहीं के राइस मीलों से लिया जाए, तो सिर्फ बिहार के ही राइस मिल अपने राज्य के प्रत्यक्ष रूप से 5 लाख मज़दूर और अप्रत्यक्ष रूप से 10 लाख लोगों को रोज़गार दे सकते है।
इस पर कभी राज्य सरकार का ध्यान नहीं जाता और लोग मज़बूर होकर दूसरे राज्यों में जाकर रोज़गार के तलाश में भटकते रहते हैं। ध्यान देने वाली बात है कि अभी राज्य सरकार पीडीएस में लगने वाले चावल का मात्र 20% ही राज्य के राइस मीलों से लेती है और बाकी का चावल दूसरे राज्यों से मांगती है।
कोरोना काल में वापस आए लोग फिर से होंगे पलायन करने को मज़बूर
एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक कोरोना काल में राज्य में लगभग 30 लाख मज़दूरों ने पलायन कर घर वापसी की है। अभी भी कम संख्या में ही सही पर कामगार मज़दूर राज्य छोड़ बिदेसिया बन दूसरे राज्य में टिके हुए हैं।
सरकार लाख दावा कर ले कि हम कामगार मज़दूरों को रोज़गार मुहैया कराएगें, मगर एक सच्चाई यह भी है कि यहां के सरकारी बाबू एक तो समय पर काम नहीं देते हैं और दूसरा यह कि जो काम देंगे भी उसपर उनका अपना कमीशन होता है।
कोरोना काल खत्म होने के बाद यह तय है कि पलायन फिर से होगा। अब ज़रा सोचिए अगर राज्य में ही लघु उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए, राइस मिल को बढ़ावा दिया जाए, तो शायद बिहार भी सोने की चिड़िया बन सकता है।