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“पर्यावरण रक्षा के लिए आवाज़ उठाने पर सत्ता को घबराहट क्यों होती है?”

क्लाइमेट स्ट्राइक

क्लाइमेट स्ट्राइक

दुनिया में आज के समय की सबसे बड़ी समस्या पर्यावरण प्रदूषण की हो गई है। यह प्रदूषण दुनिया के सभी लोगों को किसी ना किसी तरह से प्रभावित कर रहा हैह। कहीं य वायु प्रदूषण के रूप में, तो कहीं यह जल प्रदूषण के रूप में है लेकिन दुनिया इसको नज़रअंदाज़ करके अपने व्यापार तथा मृगतृष्णा वाली विकास के पीछे भाग रही है।

ग्रेटा थनबर्ग की पहल सराहनीय

ग्रेटा थनबर्ग। फोटो साभार- Getty Images

इस बीच स्वीडन की एक 16 वर्षीय लड़की ने इस विषय पर पूरी दुनिया को सोचने पर विवश कर दिया। लड़की का नाम है, ग्रेटा थुनबर्ग। ग्रेटा लगभग एक वर्षो से पर्यावरण प्रदूषण के खिलाफ संघर्षरत है। साल 2018 में केवल 15 वर्ष की उम्र में ग्रेटा स्कूल से छुट्टी लेकर स्वीडन की संसद के सामने धरना देने लगी।

ग्रेटा ने अपने इस पहल से पुरे विश्व के पर्यावरण प्रेमियों के लिए “फ्राइडे फॉर फ्यूचर” नाम से एक आंदोलन का आगाज़ किया। इस आंदोलन ने पूरे विश्व के नेताओं तथा व्यापारियों को पर्यावरण प्रदूषण तथा क्लाइमेट चेंज पर सोचने को विवश कर दिया।

ग्रेटा की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह जो कहती है, उसे अपने जीवन में भी उतारती भी है। प्रदूषण के खिलाफ जंग की शुरुआत ग्रेटा ने अपने घर से ही की थी। ग्रेटा ने अपने माता-पिता को विमान यात्रा ना करने के लिए तैयार किया। ग्रेटा खुद भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट तथा बिना इंधन वाले वाहन का प्रयोग करती है।

स्वीडन की इस 16 वर्ष की लड़की में हम महात्मा गाँधी के चरितार्थ को देख सकते हैं। गाँधी भी जो कहते थे, वह करते थे। ठीक वैसे ही ग्रेटा की भी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है लेकिन गाँधी के देश में ही उनकी नीतियों का प्रभाव कम हो रहा है। एक और अजीब बात यह है कि पर्यावरण रक्षा के लिए जब भी आवाज़ उठती है, तब सत्ता को घबराहट होने लगती है।

गाँधी ने जो अपने सपने के भारत की परिकल्पना की थी, वह अब प्रदूषण का भारत बनकर रह गया है। गाँधी की कल्पना में प्रदूषण का स्थान कहीं नहीं था मगर आज हालत यह है कि प्रदूषण कम होने की बजाय दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। सरकार भी इतनी निरंकुश होती जा रही है कि जो लोग पर्यावरण के लिए आवाज़ उठा रहे हैं, उनकी आवाज़ को दबाने की हर संभव कोशिश की जा रही है।

पर्यावरणविदों की उपेक्षा

स्वामी सनंद। फोटो साभार- ANI Twitter

इसी क्रम में वर्ष 2018 में एक शर्मनाक घटना घटी। एक पर्यावरणविद संत गंगा सफाई के लिए लड़ते हुए निरंकुश और व्यावसायियों पर आश्रित सरकार के हाथों अपनी जान गवा बैठे और उससे भी शर्म की बात यह है कि इस घटना के बावजूद भी यहां की जनता पर्यावरण के प्रति अपनी जागरूकता नहीं दिखला पाई और अपने आधुनिक भगीरथ, प्रोफेसर जी. डी. अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञान स्वरूप सानन्द को भूल गई।

यह कहना मुश्किल है कि भारतीय जनता इन सब बातों को अपनी आदत के अनुसार भूल रही है या इन्हें सरकार तथा कॉरपोरेट द्वारा भूलने के लिए मजबूर किया जा रहा है। अगर ऐसा हो भी रहा है तो जनता को इसे समझना चाहिए और स्वच्छ पर्यावरण को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी चाहिए।

ग्रेटा थनबर्ग ने विश्व स्तर पर जो पहल की है, वह काबिल-ए-तारीफ है लेकिन क्या उसकी चकाचोंध में हम अपने समाज के पर्यावरण प्रेमियों को भूल जाएं, जिनकी पर्यावरण के प्रति लगाव भवनात्मक और आध्यात्मिक दोनों होते हैं?

सुंदरलाल बहुगुणा ने उतराखंड के वनों को बचाने के लिए 70 के दशक में जिस चिपको आंदोलन की शुरुआत की थी, वह पूरी तरह वहां के लोगों की भावनाओं और संस्कृति से जुड़ा था। अनुपम मिश्र ने अपने किताब आज भी खरे हैं तालाब” में जलाशयों और अन्य जल स्त्रोतों से भारतीय समाज के जुड़ाव का जो वर्णन किया है, वह काफी कुछ कहती है। इस पर सभी को गौर करके, जल स्त्रोतों के साथ स्थानीय नागरिकों के जुड़ाव को समझना चाहिए।

कौन लोग हैं पर्यावरण को क्षति पहुंचाने के लिए ज़िम्मेदार?

अगर हम भारतीय पर्यावरण को पश्चिमी सभ्यता के नज़रिये से सुधारने की कोशिश करेंगे, तो यह उस जनमानस के साथ अन्याय होगा, जिसकी संस्कृति में ही पर्यावरण के घटक बसते हैं। वे लोग नदी को अपनी माँ समझते है और जंगल को देवता मानते है। इसी तरह वे अपने आस-पास के अन्य पर्यावरण के घटकों को अपनी भावना से जोड़ लेते हैं, तो क्या वे लोग अपने इस पर्यावरण को क्षति पहुंचा सकते हैं?

अगर नहीं, तो इस प्रदूषित हो रहे पर्यावरण के लिए ज़िम्मेदार कौन हैं? तो इसका जवाब होगा कि इस परिस्थिति के लिए सबसे बड़े ज़िम्मेदार वे लोग हैं, जो तुच्छ और आर्थिक फायदे के लिए पर्यावरण के महत्व को नज़रअंदाज़ करके इसका दोहन कर रहे हैं और साथ ही साथ वे भी ज़िम्मेदार हैं, जो पर्यावरण स्वच्छता की ज़िम्मेदारी तो ले लिए हैं लेकिन भारतीय जनता की भावना और संस्कृति को समझ नहीं पाए हैं।

हमने अपने जंगल, पहाड़, और नदियों को बचाने के लिए आधुनिक तरीके अपनाने के चक्कर में पारम्परिक तरीकों को भुला दिया है। अगर सचमुच हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को स्वच्छ और संतुलित वातावरण देना चाहते हैं, तब हमें अपने से पहले की पीढ़ियों के पर्यावरण के नज़रिए तथा स्वच्छता के तरीकों को अपनाना होगा।

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