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महिलाओं को अपनी दासी क्यों समझता है यह पितृसत्तात्मक समाज?

Patriarchy

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चिड़ियों का चहकना, तितलियों का उड़ना, खुला नीला आसमान, कुछ बरसात की बूंदों में भीगी हुई पगडंडियां, मिट्टी पर बरसात की बौछारें और उसकी सोंधी-सोंधी महक किसको नहीं भाती?

प्रकृति के यह नायाब तोहफे सभी को पसंद आते होंगे। हां, मगर कोई है जिसको यह सब देखने की आज़ादी ईश्वर ने तो दी है, मगर मनुष्य ने छीनी हुई है। ज़्यादातर पुरुष चाहते हैं उनकी बेटी, बीवी, बहन नीले आकाश को देखने के बजाय घर की चहारदीवारी तक ही सीमित रहे।अगर वह बरसात को देखना चाहती हो या भीगना चाहें तो उनको कुछ पुरुषवादी मानसिकता वाले लोग कीड़े की काटने को दौड़ पड़ते हैं।

अगर गाहे-बगाहे वह अपना आंचल हवा में लहरा दे, तो उसकी और उसके चरित्र की शामत आ जाती है। वह या तो वैश्या के नाम से पुकारी जाने लगती है या उसको चरित्रहीन बना दिया जाता है।

महिला शोषण का दौर कब खत्म होगा?

औरत तो औरत है, हर हाल में शोषित की जाती रही है। चाहे ब्रिटिश समाज हो या भारतीय समाज। इतिहास हर उस बात का गवाह है जिसने असमानता के मैदान में सिर्फ और सिर्फ औरतों को शोषित होते हुए देखा और पुरुषवाद को सार्थक बनाने के लिए उन्होंने जी भर के महिलाओं के एहसासों को अपने अहम के तले रौंद दिया।

मैं यह बात तो बिल्कुल भी नहीं मानता कि लड़कियां पराया धन होती हैं और क्या लड़के अपना धन होते हैं? बड़ा ही आश्चर्यचकित कर देने वाला समाज है। अपने ही खून से सींच कर और अपने पेट में नौ माह तक रखने वाली मां, किस तरह लिंग पर आधारित समाज की घिनौनी कृतियों को आगे बढ़ा सकती है।

बेटियों को क्यों समझा जाता है पराया धन?

बेटी तुझे तो दूसरे घर जाना है, तू तो पराया धन है। यह एक कोरी और मैली विचारधारा है जिससे शायद ही कोई अछूता हो। हमने कई बार देखा है कि जिस पराये धन की बात आप करते हैं। शादी होने के बाद वह आपके घर आकर आपकी सेवा में ही निढ़ाल हुई चली जाती है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

वहीं, दूसरी तरफ वह जिसे आप आपका धन मानते हैं अर्थात आपका बेटा, अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम तक ले जाने वाला साधन बन जाता है। फिर मरने तक उनसे पूछने तक नहीं जाते कि वो किस हाल में हैं? ज़्यादातर पुरुष फिर अपने लिए पत्नी के रूप में एक दासी का उपयोग करते हैं। उपयोग का मतलब उससे फायदा लेना सिर्फ और सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए।

महिलाओं को अक्सर समाज पीछे की ओर क्यों ढकेल रहा है? किसी भी सूरत में पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं की सफलता नहीं देख पाता और ना ही आगे बढ़ने का मौका देता। कुछ महिलाओं को बचपन से ही ऐसे वातावरण में पाला जाता है, जिससे वो खुद कुछ करने लायक नहीं रहती। ना आत्मविश्वास और ना ताकत, साथ ही में उनको ऐसे साथी मिल जाते हैं, जो उनको और पीछे धकेल देते हैं।

पुरुष महिलाओं को अपनी दासी क्यों समझते हैं?

ज़्यादातर औरतों की वैवाहिक स्थिति को देखने पर अंदाज़ा होगा कि उन्हें दुर्भाग्यवश ऐसे पति मिलते हैं, जो उनको दासी या आया (घरेलू कामगार महिला) समझते हैं। दोनों शब्दों के मायने बिल्कुल अलग हैं, मगर पुरुष उनकी दोनों छवि को एक साथ चाहते हैं।

ऑफिस से आते ही पानी का ग्लास, बैग और जूते आदि पकड़ने के साथ-साथ पुरुषों को कई रुप में औरतों की आवश्यकता होती है। यह सब तो एक दासी किया करती है, मेरी नज़र में इन्हें पत्नी कहना अन्याय ही होगा।

प्रतीकात्मक तस्वीर

वहीं, दूसरी तरफ पुरुषों को आया भी चाहिए। खाना पकाने से लेकर, बर्तन-कपड़े धोने, घर की साफ-सफाई करने, बच्चों का ध्यान रखने से लेकर और भी ना जाने क्या-क्या इन्हें करना पड़ता है! क्या वाकई में पत्नियों का स्थान ऐसा ही है?

जवाब तो खैर आप लोगों के दिलों पर आ ही गया होगा, मगर क्या करें! हम सब तो मूक दर्शक हैं। समाज में फैली असमानता की आग के आप सभी ज़िम्मेदार हैं। उसमें घी डालने का काम हमारी संस्कृति की रूढ़िवादी सोच कर देती है। फिर क्या बचता है? अन्याय, अनर्थ और आंशू।

यह पितृसत्तात्मक समाज दोहरा चरित्र क्यों दिखाता है?

“तू किसी काम की नहीं”, “तुझे तलाक दे दूंगा”, “तेरे हाथ में इज़्ज़त नहीं” आदि। पुरुषों से अक्सर ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं। यदि महिलाएं इतनी खराब है, तो उनको उनके हाल पर छोड़ क्यों नहीं देते?

अरे! इतनी सारी कमियों के साथ आप उसको अपने साथ रख रहे हैं? ऐसा क्यों? जब उसको खाना बनाना नहीं आता, किसी भी काम की नहीं है और तो और बात तलाक की भी आ जाती है। इतनी सारी परेशानियों के साथ आप इतना समझौता करने के लिए क्यों तैयार हैं?

उसको बेवजह घर में रखने पर आपका खर्चा तो होता ही होगा? फिर भी आप उसको अपने साथ रखने की कोशिश करते हैं। अगर वह अपने घर जाना भी चाहे, तो आप उसके आगे गिर जाने को भी तैयार हो जाते हैं। क्यों साहब आप इतना बोझ क्यों उठा रहे हैं? भगा दीजिए ना घर से इस बोझ को, निकाल दीजिए।

प्रतीकात्मक तस्वीर, तस्वीर साभार: गेटी इमेजेज

मगर आप नहीं निकालेंगे। पता है क्यों? चलिए बता ही देता हूं। दरअसल आपको उनकी ज़रूरत है। आपको आदत पड़ चुकी होती है, आराम परस्त ज़िन्दगी जीने की, आपको आदत पड़ चुकी होती है उस शिकार की जो आपके गुस्से को झेले। आपको आदत पड़ चुकी होती है महिलाओं को नीचा दिखाने की, हैं ना?

आपको फ्री में इतनी सारी सेवाएं मिल रहीं हैं तो आप भला किसी को क्यों जाने देंगे? जबकि आप भूल रहे हैं, आपकी पत्नी आपके लिए वह भाव रखती है और वह स्थान रखती है, जो कोई नहीं रखता होगा। आपकी दो रोटी के बदले वह अपनी पूरी ज़िंदगी लगा देती है।

वैसे तो पत्नियों को पति की अर्धांगिनी बोला जाता है, इसका मतलब पति का आधा अंग। इन बातों से लगता है पत्नी का यह पर्याय अधूरा या त्रुटिपूर्ण लगता है। यहां तो बात बिल्कुल उलट ही साबित होती है। कोई ऐसा दिन तो होगा जिस दिन यह असमानता दूर हो जाएगी?

महिला और पुरुष के बीच की खाई आखिर कब दूर होगी?

आधुनिक युग में महिलाएं चाहे कितनी भी ऊंचाईयों पर हों अगर शादीशुदा हैं, तो ज़्यादातर इनके भाग्य की सूई इन्हीं छवियों के इर्द-गिर्द ही घूमती नज़र आती हैं।

समाज को बदलने के लिए और उसकी सोच को बदलने के लिए आप सभी को आवाज़ उठानी होगी। एक ही आवाज़ काफी होगी और उसी एक आवाज़ से हज़ारों आवाज़ें बनेंगी। पत्नी को पत्नी की तरह ही रिश्ते में जोड़ा जाना चाहिए ना कि किसी नौकरानी की तरह।

उमंगे सभी में होती हैं और आत्मविश्वास भी, बस ज़रूरत पड़ती है एक आवाज़ की और एक सहारे की जो आपको सकारात्मक एहसास दे सके। वैसे तो खुद को इतना बुलंद कर लो कि आपको किसी भी सहारे की ज़रूरत ही ना पड़े।

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