हम वोट देकर एक प्रतिनिधि को यह सोचकर चुनते हैं कि आने वाले वक्त में समाज में या व्यक्तिगत तौर पर कुछ परेशानी आने पर हमारे चुने गए प्रतिनिधि द्वारा कुछ सहायता मिलेगी लेकिन हकीकत किसी से भी छिपी नहीं है।
जब भी जनता को अपने प्रतिनिधि से किसी भी प्रकार की ज़रूरत होती है, तो वे उनके लिए नहीं खड़े होते हैं। वहीं, जब वोट लेने की बारी आती है, तो वे आपके घर आकर आपके पैर छूने में भी पीछे नहीं हटते।
मैनें भी कुछ साल पहले एक बच्ची (कैंसर सर्वाइवर) के लिए आवाज़ उठाते हुए सीएम तक चिट्ठी लिखी थी। हालांकि वहां से मुझे जवाब भी आया और आगे की मदद के लिए मेरे ही शहर की कचहरी में कार्यवाही के लिए कहा गया लेकिन जब यहां के कार्यालय में बैठे महानुभाव से सम्पर्क साधा तो उन्होंने कई दिनों तक तो केस को लटकाया और अंत में किसी आए-गए सरकारी काम की तरह अनसुना कर दिया। यकीन मानिए यही आज के वक्त की सच्चाई है।
हम प्रतिनिधि का चुनाव इसलिए करते हैं ताकि आने वाले वक्त में कोई परेशानी होने पर हमें समय पर मदद मिल सके लेकिन यहां माजरा ही कुछ और है। यहां आपको 10 दिनों तक तो प्रतिनिधि के कार्यालय के चक्कर लगाने पड़ेंगे। उसके बाद जब नंबर आता है तो गेट पर इंतज़ार करने को बोला जाता है और कुछ देर बाद यह कह दिया जाता है कि साहब की मीटिंग चल रही है इसलिए किसी और दिन आइए।
प्रतिनिधि सेवा से पहले सौगंध लेते हैं कि मैं देश के निर्माण में अपना पूरा योगदान और सहायता प्रदान करूंगा लेकिन सेवा की बारी आने पर ये सारी कसमें ताक पर रख दी जाती हैं। ऐसी परिस्थितियों में आम इंसान करे तो क्या करे?
वो भी आखिर में थक हारकर घर बैठ जाता है, क्योंकि उसको भी पता है कि जब तक उसकी बात की सुनवाई की जाएगी, तब तक उनकी चप्पलें घिस चुकी होंगी। सचमुच इतनी लचर है हमारी व्यवस्था।