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पेयजल संकट से जूझता नदियों का राज्य उत्तराखण्ड

महेश राठी
जल ही जीवन है यह उक्ति सर्वविदित सत्य है, परन्तु विडम्बना यह कि देश का वाटर बैड कहलाने वाला नदियों का राज्य उत्तराखंड ही पीने के पानी की समस्या से जूझ रहा है। बरसात के बाद वाले नवम्बर दिसम्बर महीनों में ही लोगों की पानी की जरूरत पूरी करने के लिए पौडी-गढ़वाल सहित उत्तराखण्ड के कई जिलों के अनेकों गांवों में सरकार को टैंकरों से पानी की आपूर्ति करनी पडती है।
दरअसल 21वीं सदी की शुरूआत में ही बना विषम भोगौलिक परिस्थितियों वाला उत्तराखंड राज्य तथाकथित विकास जनित विषमताओं का सटीक उदाहरण है। लगातार बेरोजगारी और पलायन से जूझ रहे इस राज्य को अब अपने उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से भी दूर किया जा रहा है। यही कारण है कि दुनिया की सबसे बडी आबादी का जीवनयापन करने वाली गंगा के उद्गम की इस जमीन की अधिकतर आबादी आज पेयजल के संकट का सामना कर रही है। वास्तव में इस पर्वतीय राज्य में पेयजल संकट के मोटेतौर पर दो कारण है। एक ग्लोबल वार्मिंग से लगातार बदलता जलवायु चक्र और दूसरा सरकारी अदूरदर्शिता और बदइंतजामी। असल में औद्योगिक विकास जनित पर्यावरणीय विषमताओं का प्रभाव पूरी धरती और हिमालय की तरह इस पहाडी राज्य की जलवायु पर भी साफ नजर आने लगा है। सरकार लाख ग्लेश्यिरों के पिघलने को नकारती रहे मगर जलवायु परिवर्तन को यहां के जन जीवन पर साफ महसूस किया जा सकता है। हरेक उत्तराखंडवासी मौसमों में बदलाव और उसके होने वाले प्रभावों को बयां कर सकता है। अनियमित होते वर्षाचक्र घटती बर्फबारी कुछ ऐसी प्रवृतियां है जो एक सामान्य व्यक्ति से भी बातचीत में उजागर होती हैं। इस जलवायु परिवर्तन ने पहाडी जन जीवन को बहुआयामी रूप से दुश्प्रभावित किया है। कम बर्फबारी ने जहां एक तरफ यहां की कृषि को प्रभावित किया है वहीं दूसरी तरफ यहां के निवासियों के पेयजल के पारंपरिक स्रोतों जलधाराओं, नौलों और झरनों को भी सूखा दिया है। इन जलधाराओं के सूखने के बावजूद पीने के पानी की कोई उचित, स्थायी एवं वैकल्पिक सर्वसुलभ व्यवस्था कायम करने में सरकार पूरी तरह असफल रही हैं।
अगर बारिश कम हो तो गर्मियों में उत्तराखंड में असाधारण जल संकट पैदा हो जाता है। पिछले साल हिमपात न होने से इस बार गर्मियों में नदियों में जल प्रवाह कम रहा था। गर्मियों में प्रमुख ग्लेशियरों पर आधारित भागीरथी और अलकनन्दा जैसी नदियों में जल प्रवाह में 50 प्रतिशत की कमी आ गई थी। अतिरिक्त जल विद्युत पैदा करने की क्षमता के विपरीत राज्य बनने के पहले दशक के अंत में ही उत्तराखंड को अन्य राज्यों से बिजली खरीदनी पड़ी। जाड़ो में कम वर्षा व कम हिमपात होने से जल स्रोत व धारे जल्दी ही सूख गए जिससे पूरे राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों के रहने वालों के लिए बेहद कठिनाई पैदा हो गई।
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के गाँवों में ग्रामीण इलाकों की जलापूर्ति योजनाएं हमेशा ही सवालों के घेरे में रही हैं। उनमें कई पेयजल योजनाएं किसी सीजन में खास तौर पर गर्मियों में जबकि पानी की बहुत जरूरत होती है, ठप हो जाती हैं। बाकी कुछ योजनाएं स्थाई रूप से बेकार हो जाती हैं, क्योंकि पानी का स्रोत ही सूख जाता है।
जल स्रोत से प्रवाह की वार्षिक समीक्षा रिपोर्ट में उत्तराखंड जल संस्थान ने 2005-06 में स्वीकार किया कि जिन 5257 जल स्रोतों का अध्ययन किया गया उनमें से लगभग 40 प्रतिशत में जल प्रवाह में पहले की अपेक्षा 50 प्रतिशत की कमी आ गई। यह संख्या 2003 में इससे काफी कम 17 प्रतिशत थी। लगभग सूखे का सामना कर रहे पौड़ी जिले में 75 प्रतिशत से अधिक जल स्रोतों में प्रवाह में 50 प्रतिशत से अधिक की कमी आई है। चम्पावत, अल्मोड़ा और टिहरी भी जल संकट से बुरी तरह प्रभावित जिले हैं।
कई शहर भी शिखरों पर बसे हैं और पानी की बेहद कमी का सामना करने को मजबूर हैं। अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ इसका उदाहरण है। अल्मोड़ा कोसी पर निर्भर है और पिथौरागढ़ सरयू पर। ये वर्षा पर निर्भर नदियाँ हैं, परन्तु उनका जलागम क्षेत्र बर्बाद हो गया है। गर्मियों में जब जल का प्रवाह न्यूनतम स्तर पर होता है तो शहरों में समस्या खड़ी हो जाती है। पानी की आपूर्ति प्रणाली के रखरखाव में कमी और पाइपों में रिसाव के कारण समस्या और भी बढ़ जाती है। पहले अन्य जगहों की तरह अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ में भी परंपरागत जल संग्रह के स्रोत थे। परन्तु बेतरतीब शहरीकरण से उनके जलागम क्षेत्रों को नुकसान पहुंचा और वे सूख गए। इसके बावजूद संकट के दिनों में उन नौलों में लम्बी-लम्बी कतारें देखी जा सकती हैं, जिनमें पेयजल उपलब्ध होता है। सीवर की कमियों के चलते ऊपरी क्षेत्रों में बनाये गए टैंकों के कारण निचले इलाकों में पेयजल का लगातार प्रदूषित होते जाना भी पेयजल संकट को बढा रहा है। पहाड़ के शहरों में तेजी से विस्तार हो रहा है, सरकारी भवनों व होटलों आदि का निर्माण तेज गति से और निबार्ध रूप से जारी हैं परंतु वर्षा जल संग्रहण अथवा सीवर और मल संशोधन की व्यवस्था आदि की अभी तक कोई कारगर योजना किसी सरकार ने तैयार नहीं की है। उसके क्रियान्वयन का सवाल तो उसके बाद की बात है।
अभी तक के सभी जाने माने अध्ययनों का निष्कर्ष यही है कि जलस्रोतों से पानी की कमी का कारण जंगलों का कटान है। नैनिताल जिले और गौला नदी के एक अध्ययन के निष्कर्षों को माने तो 1952-53 और 1984-85 के बीच जलागम क्षेत्र के जंगलों में 69.6 प्रतिशत से 56.8 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि 1956 और 1986 के बीच जलागम क्षेत्र भीमताल में वर्षा में 33 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। परन्तु स्रोतों के पानी में 25 से 75 प्रतिशत की कमी देखी गई जिससे अध्ययन क्षेत्र के 40 प्रतिशत गाँव प्रभावित हुए। कुछ स्रोत तो पूरी तरह से सूख गए थे। कुमाऊँ के 60 अन्य स्रोतों के अध्ययन से पता चला कि 10 में (17 प्रतिशत) में जल प्रवाह ठप्प हो गया था, जबकि 18 में (30 प्रतिशत) में जल प्रवाह मौसमी हो गया। बाकी 32 में (53 प्रतिशत) जल के प्रवाह में कमी देखी गई। इसका कारण यह था कि जल स्रोत वाले इलाकों में बाँज के जंगल बड़े पैमाने पर नष्ट हो गए थे।
कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर में डॉ. जे. एस. रावत द्वारा किये गए एक अन्य अध्ययन से पता चला कि अल्मोड़ा की कोसी नदी में पानी का बहाव 1992 में 800 लीटर प्रति सेकिंड से घट कर 2004 में 196 लीटर प्रति सेकिंड रह गया। इन अध्ययनों से यह भी संकेत मिला कि ऊपरी ढलानों के जंगलों में वर्षा से भूजल में 31 प्रतिशत जल की वृद्धि होती है। बाँज के जंगलों से भूजल संग्रहण में 23 प्रतिशत, चीड़ से 16, खेतों से 13 प्रतिशत, बंजर भूमि से 5 प्रतिशत और शहरी भूमि से केवल दो प्रतिशत की वृद्धि होती है। डॉ. रावत की सिफारिश है कि पर्वत के शिखर से ढलान की तरफ 1000 से 1500 मीटर तक सघन रूप से मिश्रित वन होने चाहिए।
क्या किया जाए
इन संसाधनों के लिए समन्वित एवं व्यापक प्रबंधन की जरूरत है। आजकल जल संसाधनों के प्रबंधन की जिम्मेदारी मुख्य रूप से अभियंताओं की होती है, जिन्हें जीवन पद्धतियों की कोई समझ नहीं होती। उन्हें केवल तथाकथित विकास और निर्माण और उसके लिए आवश्यक जल के दोहन की शिक्षा और प्रशिक्षण दिया जाता है। परंतु उत्तराखण्ड जैसे राज्यों में तथाकथित विकास ने जो तबाही मचायी है और पर्यावरण, परिस्थितिकी और जैव विविधता का जो नुकसान किया है और उसने जन जीवन पर जो व्यापक दुष्प्रभाव छोडना शुरू किया है, उसने इस विकास और इसके वर्तमान रूवरूप पर कईं सवाल खडे कर दिये हैं। जिसके हल के लिए जरूरी है कि उत्तराखण्ड जैसे पहाडी राज्यों के विकास के डिजायन को नये सिरे से गढा जाये, उसे नये सिरे से परिभाषित किया जाए और उसे नया आकार दिया जाए। अतः यह बेहद जरूरी है कि ऐसे राज्यों की विकास की योजनाआंें को बनाने का दायित्व केवल वास्तुकारों, अभियांताओं के हाथों में ही नहीं हो बल्कि उसमें पर्यावरणविदों, वन संरक्षकों और स्थानीय समुदायों की प्रभावी भागीदारी होनी चाहिए।
इस विकास के केन्द्र में केवल इमारतों, सडकों का निर्माण नहीं बल्कि साथ ही साथ पूरे राज्य में जलागम क्षेत्रों को पुनः बहाल करने के तंत्र विकसित करने, ऊपरी ढलानों पर चैड़ी पत्ती वाले वृक्षों को लगाने के साथ बड़े पैमाने पर वनीकरण किये जाने, जंगल में वर्षा जल के संचयन के लिए नालियों के खोदे जाने और रिसाव रोकने के उपाय किये जाने चाहिए। परम्परागत जल संचयन के ढाँचों और उनके जलागम क्षेत्र को बहाल किया जाना चाहिए। वर्षा जल संचयन के लिए समाज को स्वेच्छा से उत्साहपूर्वक आगे लाये जाने के उपाय करने चाहिए। समाज को सक्रिय करने में भूमिका निभा चुके स्वयंसेवी संगठनों को ऐसे कामों में नेतृत्व प्रदान करना चाहिए, जैसा कि उत्तराखण्ड का पूर्व में इतिहास रहा है। कई व्यक्तियों, समुदायों और संगठनों ने पहले भी उत्तराखंड में टिकाऊ वर्षा जल संचयन प्रणाली तैयार करने में मार्गदर्शक का काम किया है। गांवों के महिला मंगल दलों ने व्यक्तिगत कठिनाइयों के बावजूद कोसी के ऊपरी जलागम क्षेत्र के जंगलों के संरक्षण का व्रत लिया है। विगत वर्षों में पौड़ी और चमोली जिलों में कई लोगों ने जंगलों की आग बुझाने के प्रयास में अपने प्राणों की आहुति दे दी। कुछ लोंागें ने व्यक्तिगत स्तर पर कई ग्रामीण समुदायों को अपने जल संचयन ढांचों को और जलागम क्षेत्रों को बनाये रखने के लिए प्रेरित करने का काम किया है। वनों के संरक्षण लिए समुदायों की भागीदारी सुनि?िचत करने के प्रयास किये जाना आवश्यक है। वन संरक्षण को इस दृष्टि से देखा जाना चाहिए कि स्थानीय समुदाय बाकी राष्ट्र को पर्यावरण व परिस्थितिकी सेवा दे रहे हैं। उन्हें इन सेवाओं के बदले में भुगतान मिलना चाहिए। वनों को कार्बन कचराघर के रूप में जाना जाता है। कार्बन ट्रेडिंग को स्थानीय लोगों को अपने वनों के संरक्षण की एवज में पुरस्कृत करने के लिए एक वित्तीय प्रोत्साहन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। आजकल प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन ऐसे अनेक सरकारी विभागों का विशेषाधिकार है जिनके बीच आपस में कोई समन्वय नहीं होता। संसाधन प्रबंधन के समूचे संस्थागत, वैधानिक एवं नीतिगत ढांचे की समीक्षा करने और उसे व्यापक, सुदृढ़ एवं व्यापक भागेदारी वाला बनाने की आवश्यकता है। प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन को व्यापक और अधिक तार्किक बनाये जाने की आवश्यकता है।
परंतु उपरोक्त सभी सिफारिशों और पहलों की संभावनाओं से इतर पेयजल और पहाडी क्षेत्रों में पानी की भारी कमी झेलने वाले उत्तराखंड की त्रासदी यह है कि यह देश का सबसे पानी समृद्ध राज्य है। छोटे से इस पर्वतीय राज्य में कुल मिलाकर सत्रह छोटी बडी नदियां है, परन्तु इन नदियों का पानी शहरी रईसों की वाटर राफ्टिंग, स्कीईंग या नदियों के किनारे शिविर लगाकर उनकी पिकनिक के लिए तो इस्तेमाल हो सकता है लेकिन उत्तराखंड वासियों के पीने के लिए नही। जलवायु परिवर्तन जहां एक तरफ यहां के परंपरागत पेयजल संसाधनों को सूखा रहा है वहीं विकास के नाम पर संसाधनों की लूट भी यहां के निवासियों के जल, जंगल, जमीन और पहाड के लिए खतरा बन रही है। राज्य की सत्रह नदियों अनेक छोटे बडे बांध बन चुके हैं, निमार्णाधीन हैं या प्रस्तावित हैं। जिनके पूरा हो जाने के बाद कई जगह पीने का पानी तो दूर यहां के लोगो के लिए नदी देखना भी मुश्किल होगा।
राजनेताओं, काॅरपोरेट जगत और जमीन माफिया गठबन्धन के अंधाधंुध विकास और जलवायु परिवर्तन की विलक्षण कदमताल पहाड के पानी और पहाड की जवानी पर कहर बनकर टूट पडी है। पहाड का पानी शहरों की रोशनी और प्यास बुझाने के लिए लूटा जा रहा है तो पहाड की जवानी महानगरों की चाकरी के लिए लगातार यहां से पलायन कर रही है। देश की राजधानी दिल्ली जैसे महानगर की प्यास एक तरफ गंगा और भगीरथी को लील रही है तो दूसरी तरफ तरफ उत्तराखंड के पहाडों से हर साल दो लाख जवान शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं और पौडी क्षेत्र में पलायन के मुख्य कारणों में पानी की कमी एक मुख्य कारक है। बीस साल में इस पहाडी राज्य में कईं मुख्यमंत्री और कईं सरकारे बदल चुकी हैं, लेकिन किसी ने लूट का औजार बनने से अधिक की कोई भूमिका अभी तक नही निभाई है। इसीलिए पेयजल के संकट से जूझता हुआ नदियों का यह राज्य अभी तक भी प्यासा है जिसके ना खेत और ना ही इंसान को पानी उपलब्ध है।

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