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स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुएं कातिल में है?

वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां! हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है?

  ये  पंक्तियां पंडित रामप्रसाद बिस्मिल ने भारतभूमि की आजादी के संघर्ष के दिनों में लिखी थी, जो उन क्रांतिकरियों के हृदय में अपनी मातृभूमि के लिए सुलगते अंगारों को दिखाती है, जो राष्ट्रवाद की भावना से ओतप्रोत थे। वैसे क्या है राष्ट्रवाद? विभिन्न विद्वानों की परिभाषा के अनुसार, किसी समाज में किसी पहचान (यह पहचान भाषा, जाति, धर्म, नृजातीयता के आधार पर हो सकती है) के आधार पर समुदाय में एकता का भाव ही राष्ट्रवाद कहा जाता है। यदि यह राष्ट्रवाद की भावना किसी राज्य या निश्चित भौगोलिक क्षेत्र के साथ जुड़ जाए, तो वह राष्ट्र- राज्य(Nation-state) बन जाता है।स्थानीय तौर पर राष्ट्र-राज्य ही राष्ट्रवाद का पर्याय बन जाता है। इस संसार में हर भावना का, हर भौतिक वस्तु का चरम होता है, जिसके बाद वह पुनः गर्त की ओर गति करने लगता है।यही हाल भारतीय राष्ट्रवाद का हुआ।अंग्रेजों के द्वारा होने वाले शोषण से पहले इस राष्ट्रवाद की कोई पहचान नहीं थी, परंतु धन्यवाद है उन फिरंगियों को, जो उन्होंने इस भौगोलिक क्षेत्र को एक राजनीतिक पहचान दी और भारतीय राष्ट्रवाद 1940 के दशक तक आते आते चरम पर जा पहुँचा तथा आज वैश्वीकरण के दौर में व उपभोक्तावादी संस्कृति के युग में फिर से यह राष्ट्रवाद रसातल में जा पहुँचा है। यह सिर्फ़ वर्ष में तीन बार अस्तित्व में आता है, 15 अगस्त, 26 जनवरी और भारत – पाकिस्तान के क्रिकेट मैच के दिन। शायद भारत की आधी आबादी को आज भी पता न हो कि 15 अगस्त और 26 जनवरी को इस राष्ट्र में क्या घटित हुआ था?

      क्या इस देश की ग़ुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए जिन स्वतन्त्रता सेनानियों ने अपनी जान न्योछावर कर दी व जिन्होंने आज़ादी के बाद इस देश के संविधान की इबारत में अमूल्य योगदान दिया, उनके साथ यह हश्र होना जायज़ है? 1757 में नवाब सिराजुदौला द्वारा लड़ा गया प्लासी का युद्ध या 1857 की क्रांति में बहादुर शाह जफ़र से लेकर नाना साहेब व लक्ष्मीबाई ने फिरंगियों से लोहा लिया तथा अंतिम साँस तक संघर्ष करते रहे। उनके बाद उनकी विरासत को बाल गंगाधर तिलक, सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह से लेकर जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गांधी, वल्लभभाई पटेल ने संभाला, जिनके रास्ते भले ही अलग-अलग हो, लेकिन मंजिल एक ही थी- माँ वसुंधरा को फिरंगियों से आज़ाद कराना। उन देशभक्तों के लिए माता-पिता से प्रेम, जीवनसाथी से प्रेम, इन अब कुछ से बढ़कर मातृभूमि से प्रेम था, जिसके लिए उन्होंने सर्वस्व त्याग के मातृभूमि की रक्षा हेतु स्वयं को अर्पण कर दिया। उनमें प्रेम की वो जोत जल चुकी थी, जिसके आगे भय, माया सभी फीके थे तथा उनके शत्रु भी उनके प्रति हृदय से नतमस्तक हो जाते थे।

      उन क्रांतिकारियों के यत्न के बाद, जो माँ वसुंधरा मिली, उसको संवारने का कार्य किया डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर व जवाहरलाल नेहरू जैसी महान आत्माओं ने व उसके बिखरे अंगों को जोड़कर उसे मूर्त रूप दिया, लौहपुरुष वल्लभभाई पटेल ने। क्या उन सभी महान आत्माओं के प्रयासों का फल उस रूप में मिलना चाहिये, जिस प्रकार आज की युवा पीढ़ी उन्हे दे रही है?         आज फिर से हमें राष्ट्रवाद को राष्ट्रराज्य का रूप देने की जरुरत है। आज हिन्दू-मुस्लिम, हिन्दीभाषी-तेलगुभाषी, उत्तरभारतीय-मराठीमानुष, उच्चजाति-निम्नजाति में विभक्त होने की बजाय ‘भारतीय’ बनने की आवश्यकता है, ताकि हम एक होकर आंतरिक व बाह्य दोनों शत्रुओं से एक साथ लड़ सके।

      आज भारत आज़ादी की 74वीं वर्षगाँठ पर अनेक चुनौतियों से संघर्ष कर रहा है, जिनमें से एक ग़रीबी व आय विषमता है{2014-15 के आँकड़ों के अनुसार, शहरी क्षेत्र में सबसे अमीर 10% लोगों का प्रति परिवार औसत संपति मूल्य (Average value of assets) लगभग ₹146 लाख है, वहीं सबसे गरीब 10% लोगों का प्रति परिवार औसत संपति मूल्य ₹256 है}। जहाँ एक ओर गरीब के लिए एक समय की भोजन की व्यवस्था भी दूभर है, वहीं उसी शहर में लोग उस गरीब की मासिक आय के समान भोजन जूठा छोड़ देते है।      ऐसी ही एक चुनौती है, बेरोज़गारी। अगर देश में कार्यशील जनसंख्या, आश्रित जनसंख्या की तुलना में ज़्यादा हो, तो यह जनांकिकीय लाभांश (Demographic Dividend) कहलाता है। यह राष्ट्र की युवा शक्ति ही होती है, परंतु इस युवा शक्ति को अगर सही पथ पर न चलाया जाए, तो वह Demographic Nightmare बन जाता है। आज यही स्थिति भारत की है, जहां हर साल 1.5 मिलियन इंजीनियरों को कौशल विकास की जरुरत पड़ रही है। आज भारत में 9% की बेरोज़गारी दर है तथा 77% परिवारों के पास नियमित वेतन के साधन नहीं है।

       आज भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है, परंतु 49% लोगों को रोज़गार देने वाली कृषि जीडीपी में 17% योगदान दे रही है, जिससे इसकी माली हालत का पता चलता है। आज कोई भी पेशे का व्यक्ति अपने बच्चों को अपने पेशे में ला सकता है, परंतु कोई भी किसान नहीं चाहता कि उसका पुत्र किसान बने। प्रतिदिन सुबह उठते ही अख़बार के किसी न किसी पृष्ठ पर आपको किसी किसान की आत्महत्या की खबर मिल ही जायेगी। परंतु नीतिनिर्माता ये नहीं सोचते कि जिस सेवा क्षेत्र के भरोसे इस राष्ट्र की वृद्धि दर आज 8% है, उसको भी खाने के लिए तो अनाज ही चाहिए।           आज इसके अलावा एक गंभीर समस्या बनी हुई है, ‘ब्रेन ड्रेन’। आज सरकार देश की जनता की मेहनत की कमाई पर देश के बेहतर शिक्षण संस्थानों में इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक तैयार करती है तथा वे इस ज्ञान को पाकर विदेशों में सेवाएँ देते है, डॉलर इकट्ठा करते है तथा एशोआराम करते है। क्या उनका इस देश के प्रति कोई कर्तव्य नहीं बनता , जिसकी मिट्टी में वे बड़े होकर इतने महान व्यक्तित्व बने व आज जरुरत पड़ने पर इस मातृभूमि के प्रति किंकृतव्यविमूढ़ हो गए।

           आज यह राष्ट्र दोराहे पर खड़ा है, जहाँ एक ओर ‘भारत’ है, दूसरी ओर ‘इंडिया’ है। यह संक्रमण का दौर है। जब कोई राष्ट्र उन्नति के मार्ग पर होता है, तो उसके अंगों के मध्य द्वन्द व अंतर्विरोध होता है। यह द्वन्द परंपरा और संस्कृति का नवागुंतक विचारधारा के साथ होता है। आज भारत एक साथ डायरिया व डायबिटीज़ की बीमारी से ग्रस्त है, यह संक्रमण काल का ही परिचायक है। आज एक ओर भारत की बेटी सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष के रिकोर्ड तोड़ रही है, वहीं हरियाणा के झज्झर ज़िले में एक बेटी या तो जन्म लेते ही दूध के मर्तबान में दम तोड़ रही है या बड़ी हो गयी है, तो खाप के कारण फाँसी के फंदे पर दम तोड़ रही है। आज एक तरफ सरहद पर देश के सैनिक का शत्रु सैनिक सर काट रहा है, वहीं घर में एसी में बैठा एक नवयुवक अपनी महबूबा से झगड़े के कारण हाथ की नस काट रहा है। इसी संक्रमण काल को दिखाती एक घटना 31 दिसम्बर 2016 की रात को बैंगलोर में घटित हुई। भारत की टेक्नोलोजी सिटी के नाम से प्रसिद्ध बैंगलोर शहर, जो देश का सबसे आधुनिक शहर भी कहा जाता है, वहाँ कुछ महिलाओं के साथ पश्चिमी परिधान पहनने की वजह से Mass-Molestation किया गया। 

           परंतु जब राष्ट्र आगे बढ़ता है, तो यह संघर्ष भी समाप्ति की ओर बढ़ता है। आज वह समय आ चुका है, जब देश के युवा को आगे आना होगा , क्योंकि किसी भी राष्ट्र की रीढ़ की हड्डी युवा शक्ति ही होती है। भगतसिंह मात्र 23 वर्ष की आयु में फाँसी पर चढ़ गए, नेपोलियन बोनपार्ट भी युवावस्था में ही यूरोप पर विजय की पताका लहरा रहा था, विश्व की सभी क्रांतियाँ युवाशक्ति के सहारे ही लड़ी गयी, चाहे वह फ़िदेल कास्त्रो हो या ची ग्वेरा, उन्होंने अपनी जवानी को मातृभूमि की खातिर दांव पर लगा दिया। आज राष्ट्र के लिए शहीद होने की आवश्यकता नहीं, आज आवश्यकता है कि ज़िंदा रहकर जीवन का हर पल इस राष्ट्र के नाम कर दे, जिसने हमें जीवन के हर पहलू में आधार दिया है। यह दायित्व बनता है हर इस मिट्टी पर जन्म लेने वाले शख़्स का, कि वह इस माँ का शोषण करने की बजाय इसकी  कमज़ोरियों को ताक़त में बदले। इस मातृभूमि पर मानवता का प्रसार करें।

          कोई भी देश परफ़ेक्ट होता नहीं है, उसे परफ़ेक्ट बनाना पड़ता है। आज युवा भारत का कृतव्य है कि वह राजनीति करे, शिक्षक बने, प्रशासक बने, इंजीनियर बने, डॉक्टर बने, उधमी बने, पर धन-दौलत एशोआराम के लिए नहीं, अपने राष्ट्र के लिए, अपने उन भाई-बहिनों के लिए , जो आज उन चीजों से वंचित है, जो तुम्हारे पास है, इस ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अवधारणा के लिए।   

 बहादुरशाह जफ़र लिखते है,

उमरे दराज माँग कर लाये थे चार दिन, दो आरज़ू में कट गए दो इंतज़ार में।

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