Site icon Youth Ki Awaaz

झारखंड: रामगढ़ की खूबसूरत वादियां, पहाड़, नदियां और भी बहुत कुछ!

धोनी के रिटायरमेंट की घोषणा के कारण झारखंड फिर एक बार चर्चा में है मगर यहां की पहली याद उस वक्त की है, जब मैं छोटा बच्चा था। साल रहा होगा सन् 2000 जब मेरी बड़ी दीदी का एडमिशन  इंदिरा गाँधी बालिका विद्यालय में हुआ। वह एक पूरी तरह आवासीय स्कूल था।

हज़ारीबाग सेंट्रल जेल को बाद में एक गर्ल्स स्कूल में तब्दील कर दिया गया था। तो यूं पहली बार झारखंड जाना हुआ। मुझे याद है कि उन्हीं दिनों में झारखंड को बिहार से अलग किए जाने की मांग ज़ोरों पर थी। बीजेपी की केंद्र में सरकार थी और अटल जी प्नधानमंत्री। बहरहाल, अगले साल सितंबर के महीने में झारखंड बतौर राज्य अस्तित्व में आ चुका था।

झारखंड बिहार से ज़्यादा खूबसूरत है

झारखंड यूं तो बिहार का हिस्सा रहा है मगर यह राज्य बिहार से कहीं ज़्यादा खूबसूरत है। यहां की आदिवासी संस्कृति इसकी विशेषता है। यहां का पहला शहर जिससे मैं रूबरू हुआ वह था वो है हज़ारीबाग। मुझे इस जगह का नाम बहुत पसंद था।

बाद में किसी ने बताया कि एक समय यहां काफी बाग-बगीचे हुआ करते थे। इसलिए इसका नाम हज़ारीबाग पड़ा। नवादा और रजौली के बाद से पहाड़ों के दिखने के साथ शुरू हो जाता है झारखंड। फिर आ जाता है झुमरी तिलैया और तब उसके बाद हज़ारीबाग।

दीदी के स्कूल के आगे एक इमली का विशाल वृक्ष था, जब हमलोग उससे मिलने जाते तो वहीं पर चादर बिछाकर सुस्ताते। इमली के पेड़ों से आगे एक बड़ा सा मैदान था, जिसमें लड़कियों के खेल-कूद की व्यवस्था थी। उसके आगे थी एक झील जिसमें पैडल बोट चलते थे। दीदी कहती थीं कि ठंढ में यह झील जमकर बर्फ हो जाती थी।

दूसरा स्थान जिससे परिचय हुआ वह था झुमरी तिलैया। उस समय एक गाना मशहूर था, “तालों में नैनी ताल बाकी सब तलैया। आजा मुहब्बत में नाचे ता ता थैया।” यह कोडरमा ज़िले में था जो अपनी अबरक की खान के लिए मशहूर था। यहां पर लड़कों के लिए एक आवासीय स्कूल ‘सैनिक स्कूल तिलैया’ मौजूद था, जहां से मेरी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा हुई। स्कूल चारों ओर से जंगलों से घिरा हुआ था।

पास में ही था तिलैया डैम जहां हमें तैराकी के लिए ले जाया जाता। उरवां मोड़ के पास था बाबा लाइन होटल जहां की चिकेन चिल्ली, पनीर चिल्ली और इचना मछली बहुत फेमस थी। वहां पनीर चिल्ली खाने के लिए हमलोग स्कूल से जीप पकड़कर चले जाते। स्कूल में मिलिटरी वाला अनुशासन था।

रांची मेरा पसंदीदा शहर

तीसरा शहर झारखंड का जो मेरे लिए सबसे खास रहा है, वो है रांची। मेरा यह प्रिय शहर रामगढ़ की खूबसूरत वादियों से आगे पड़ता था। पटना हटिया ट्रेन में सुबह-सुबह जब आंख खुलती है तो ट्रेन उस वक्त बोकारो क्रॉस कर रही होती है। ट्रेन की स्लीपर बॉगी के गेट पर जा खड़े होने पर जो ठंडी हवा जिस्म से टकराती है, उसका कहना ही क्या! जो हरा भरा नज़ारा दिखता है, उसके लिए शब्द कम पड़ जाते हैं। 

जंगल ही जंगल और बीच-बीच में कुछ पगडंडियां और छोटे-छोटे मिट्टी के बने घर। बांस, बबूल, आम, महुआ, कटहल, साल, सखुआ, पीपल पलाश के वृक्ष से लेकर झाड़-झंखाड़ की मौजूदगी के बीच पठारी हिस्सों में चरती हुई गायें दृश्य को और भी मनोरम बना देती थीं।

गोमो से आगे टाटी सिल्वे और मुरी तक महुआ के फूल बड़े मादक होते हैं, जो यहां के वनों में सहज ही मिल जाते हैं। इससे नशा भी चढ़ता है। इसकी हंडिया बनाकर इसका सुरापान करते कई लोगों को देखा है। किसी दोस्त ने बताया था कि तमाड़, बुंडू खूंटी से लेकर सारंडा तक के बीहड़ों में फैले हैं नक्सली भाई लोग! जो समय-समय पर कोई ना कोई हिंसा को अंजाम देते रहते हैं।

जंगल ही नहीं, नदियों का भी प्रदेश है झारखंड

दामोदर, भैरव, कोयल, खरकाई नदियों से घिरी है रांची। रजरप्पा के पास दो नदियों का संगम है। पत्थरों के बीच-बीच से निकलता नदियों  का पानी रामगढ़ से लेकर रजरप्पा तक का रास्ता मन को मोह लेने वाला है। एकदम रमणीक और सुरम्य, रजरप्पा को झारखंड का आध्यात्मिक केंद्र भी कह सकते हैं, जहां शक्ति स्वरूपा माँ जगदम्बा छिन्नमस्तिका के स्वरुप में विद्यमान हैं।

दर्शन के उपरांत साल के पत्तों से बने दोनों में पूरी और आलू की सब्ज़ी यहां के होटलों में मिलती रहती है। रांची के आस-पास घूमने लायक कई जगहें हैं। जैसे- हिरणी और पंचघाघ जलप्रपात, बिरसा मुंडा जैविक उद्यान और पहाड़ों की रानी नेतरहाट आदि।

झारखंड अति प्राचीन आदिवासी सभ्यता की भूमि

संथाल परगना और छोटानागपुर के पहाड़ी इलाकों में कई जनजातियों के लोग निवास करते हैं। इनमें मुंडा, उरांव, संथाल, खड़िया आदि हैं। आदिवासी समुदाय का अपना कल्चर है, जो अपने आप में काफी अनूठा है। कई तरह के त्यौहार, उत्सव और मेले यहां की संस्कृति को खूब बयान करती हैं।

जब सखुआ में नए-नए फूल आते हैं तो सरहुल मनाया जाता है। जैसे असम में कोपू फूल खिलते हैं, धान की फसल कटती है तब बीहू मनाया जाता है।

सरहुल में देवता सिंगा बोंगा को मुर्गे की बलि दी जाती है। यहां गाँवों में उत्सवों के दौरान बजते ढोल-मांदर और लाल बॉर्डर वाली सफेद साड़ी पहने, केश में फूलों को बांधे झूमर नृत्य करती युवतियों को देखा है। असम के चाय बगानों में काम करने के लिए आदिवासी समुदाय को अंग्रेज़ों द्वारा ले जाया गया था। वहां पर आज भी आदिवासी महिलाएं इन  परंपराओं  का पालन करती दिखती हैं।

पहाड़ी लाल मिट्टी के मैदानों में बरसात में खस्सी टूर्नामेंट होता है। 18-20 साल के लड़के फुटबॉल का मैच खेलते हैं, जो भीगते हुए भी तेज़ी से दौड़ते हैं गेंद के पीछे। वहीं, मांडर के पास एक फेमस “मुड़मा” मेला लगता है। यह आदिवासी जतरा है, जिसमें खूब हो हुल्लड़ होता है। झूले लगते हैं, भीड़ जमती है।

मेले में ईख की बिक्री खूब होती है। यहीं पर झूला झूलते समय गाना “आम के गाछी में रे गोरिया आम के गाछी में। गिर गेल कान के बाली आम के गाछी में” या फुर “चल गे गंगिया डुबकी लगइबे गंगा के पानी में” सुना जाता है। वैसे यहां किसी ऑटो में सहज ही नागपुरी की कोई मधुर धुन सुनाई दे देगी। जैसे- “स्कूल के टेम पे, आना गोरी डैम पे” या फिर “तेरे लिए दिल है दीवाना गोरिया तू चली आना।”

झारखंड के इतिहास में बिरसा मुंडा

झारखंड के इतिहास में बिरसा मुंडा का बहुत ऊंचा स्थान है। उन्होंने अंग्रेज़ों और बाहरी यानि दिकू लोगों से जमकर लोहा लिया। अपने तीर कमान से उलगुलान लिख दिया। शोषण और अन्याय के खिलाफ जब आदिवासियों को उनके मूल अधिकार से बेदखल किया जा रहा था, उनकी जंगल, ज़मीन और संसाधनों पर कब्ज़ा किया जा रहा था तब भगवान बिरसा मुंडा ने यलगार की।

अफसोस की बात यह है कि यह प्रक्रिया आज तक रुकी नहीं और आज़ादी के बाद के वर्षों में भी जारी है। आज भी झारखंड को लूटा जाता रहा है, महाश्वेता देवी के उपन्यासों में इसका चित्रण बखूबी हुआ है।

आज भी सुबह-सुबह रांची-रामगढ़-हज़ारीबाग रोड पर साइकिल से कोयला लादकर ले जाते लोग, साल के वनों में पीठ पर बच्चा बांधे पत्ते चुनती महिलाएं, पिस्का मोड़ के पास काम की तलाश में खड़े पुरुष और महिलाओं की तस्वीरें आज भी शोषण की तस्वीर बयां करती हैं।

झारखंड का अर्थ सिर्फ जंगल ही नहीं है। रांची  शहर के मध्य में स्थित है टैगोर हिल जहां पर शाम के वक्त जा बैठना और अंधेरा घना होने तक बहती ठंढी हवा के स्पर्श को फील करना अन्दर से ताज़ा कर देता है। कहते हैं इसी स्थान पर बैठकर महा कवि टैगोर ने अपनी कुछ कविताएं लिखी थीं। लोक संस्कृति की महक को महसूस करना हो तो एक बार झारखंड ज़रूर आइए जहां सभ्यता और संस्कृति की आदिम भूमि आपको भाव विभोर कर देगी।

Exit mobile version