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“कोरोना ने एक बात ज़रूर सिखा दी कि धार्मिक स्थल अस्पतालों की तरह ज़िंदगी नहीं दे सकते हैं”

राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद से ही यह मुद्दा बहुत सुर्खियां बटोर रहा था। कोई कहता है ये हिन्दुत्व की शुरुआत है, तो कोई कहता है कि यह इस्लाम दमन कर भगवा परचम फहराने की शुरुआत है और धीरे-धीरे यह भगवा तिरंगे को भी अपनी चपेट में ले लेगा।

क्या वाकई में ऐसा हो सकता है? यह सवाल इसलिए क्योंकि कोई भी पार्टी, उसका प्रतिनिधि या उसका प्रतीक भारतीय संविधान और उसके प्रतीक चिन्हों से बड़ा नहीं है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

इससे बिल्कुल भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि जो लोग भी धर्म के नाम पर धार्मिक द्वेष फैलाने वाली बातें कर रहे हैं, उनका आम जन-जीवन से लेना-देना ना होकर उसमें महज उनकी राजनीतिक आकांक्षाएं छिपी हुई हैं, क्योंकि वर्षों से चला आ रहा एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा राजनीतिज्ञों के हाथ से निकल गया। इसी के नाम पर तो हिन्दू-मुस्लिम किया जाता था।

हालांकि कोरोना ने हमें एक बात ज़रूर सिखा दी है कि कोई भी धार्मिक स्थल अस्पतालों की तरह ज़िंदगी नहीं दे सकते हैं। अस्पतालों के डॉक्टर ही इस समय ईश्वर का रूप हैं।

जनता भी परिपक्व है उसने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अपनाया। साथ ही इस्लाम धर्म के अनुयायी भी स्वागत योग्य हैं, जिन्होंने इस आदेश को खुले दिल से स्वीकर किया लेकिन जब से भूमि पूजन की तारीख तय हुई और कुछ राजनीतिक स्लीपर सेल सक्रिय हो गए।

दो बड़े समुदायों के लोगों को दिग्भ्रमित करने के लिए, भड़काऊ बयानबाज़ी होने लगी। सोशल मीडिया पर अपशब्दों, अश्लील शब्दों का दौर चल पड़ा। साथ ही साथ हेट स्पीच भी चरम पर आ गई, इसी बीच बंगलुरू जैसे काण्ड से भी दो-चार होना पड़ा, जो अत्यंत विचारणीय है।

सोचने वाली बात यह भी है कि 74 प्रतिशत औसत साक्षरता दर होने के बाद भी लोग किस तरह से अपना आपा खो देते हैं और राजनीति से प्रेरित पोस्ट और भाषणों से प्रभावित होकर अव्यवस्था फैलाते हैं। सरकारी सम्पत्ति जलाते हैं। मकान जला देते हैं। दुकानों में आग लगा देते हैं, यहां तक कि वे जान लेने से भी गुरेज़ नहीं करते।

मीडिया ज़रूरी मुद्दों पर क्यों नहीं कर रहा है बात?

इन सबके बीच जो पिस रहे हैं वो आम लोग हैं और गज़ब तो तब हो जाता है, जब हमारी मीडिया इस आग मे घी डालने का काम करती है। कुछ न्यूज़ चैनल आपको रोज़मर्रा की बातों से जोड़कर ब्रेनवाश के माध्यम से धीरे-धीरे भड़काते हैं या फिर कुछ चैनल उग्र रूप से सीधे आग में घी डालते हैं। कोरोना महामारी का काल चल रहा है लेकिन मीडिया के साथ ही पक्ष हो या विपक्ष सभी का ध्यान बस मंदिर-मस्जिद पर है।

प्रवासी मज़दूर अपने घरों को पैदल निकले और घर पहुंचने से पहले ही अनगिनत लोग काल के गाल में समा गए, ऐसा हुआ ही क्यों? असम, बिहार जैसे राज्य बाढ़ से ग्रसित हैं।

लोगों को सामान्य बीमारी होने पर भी सरकारी अस्पतालों में प्रवेश नहीं दिया जा रहा है, क्योंकि वहां के डॉक्टर कोविड ग्रसित लोगों की सेवा में हैं, उन अस्पतालों में उसके रोगी देखे जा रहे हैं और निजी अस्पताल बस इसी बात का फायदा उठा रहे हैं।

क्या निजी अस्पतालों के लिए गाइडलाइन्स नहीं बन सकती हैं? बेमौसम बारिश, ओला पड़ना, कोरोना इन सबने किसानों के मुंह से निवाले छीन लिए उनके लिए क्या किया जाए? टीवी चैनलों पर बहस इन मुद्दों पर होनी चाहिए, जो कि कभी शायद ही हो।

क्या धर्मनिरपेक्षता सिर्फ कहने भर को है?

धर्मनिरपेक्षता की बातें तो की जाती हैं लेकिन दुर्भाग्य यही है कि वह केवल बातों तक ही सीमित है। इस सब के बीच जो भुक्त भोगी है, वह आम जनता है। जिसको इनके बारे में सोचने का समय भी नहीं है। वे अपने हिस्से की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऑफिस से घर और घर से ऑफिस में व्यस्त हैं।

उनके पास खुद के लिए भी समय नहीं है, उन्हें जो चाहिए वह रोज़गार है, अच्छी गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाएं हैं, उन तक उनकी पहुंच होनी चाहिए लेकिन इन बेकार के मुद्दों से उनकी फजीहत होती है।

जो सरकारी बसें अथवा वाहन उपलब्ध थे, वह तथाकथित दंगों और उनके नाम पर हुए आंदोलन की भेंट चढ़ जाते हैं। मेहनत से खड़ी की गई गृहस्थी, दुकान, घर सब जला दिया जाता है।

रिक्शे वाले, ठेले वाले जिनकी रोजी-रोटी का माध्यम ही वही था उसे छीन लिया जाता है, तो अब बताइए मुद्दा क्या है राम मंदिर, बाबरी मस्जिद या मानवता, रोज़गार, स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाएं?

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