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देश को पहला दलित मुख्यमंत्री देने वाले बिहार में दलितों का प्रतिनिधित्व इतना कम क्यों?

बिहार वह राज्य है जिसने देश को ना सिर्फ पहला राष्ट्रपति दिया, बल्कि देश के पहले दलित उप-प्रधानमंत्री से लेकर पहले मुख्यमंत्री के साथ-साथ पहली दलित महिला लोकसभा स्पीकर भी बिहार से ही रही हैं।

आज बिहार में दलित राजनीतिक चेतना और सामाजिक स्थिति दोनों के हालात राजनीतिक अस्मिता के हिसाब से ठीक नहीं हैं। बिहार में दलित वर्ग की कुल जनसंख्या कमोबेश 16 प्रतिशत है।

आज बिहार में यह वर्ग अपनी जीविका चलाने में सारी ऊर्जा खपा दे रहा है। दलित समाज के विकास के जो मानवीय आकंड़े हो सकते हैं, उनमें बिहार का दलित समाज बहुत संतोषजनक स्थिति में नहीं है। फिर चाहे मामला स्वास्थ्य का हो, शिक्षा का हो या प्रति व्यक्ति आय का।

अनुसूचित जाति के लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

साठ के आखरी दशक में भोला पासवान शास्त्री बिहार के मुख्यमंत्री बनें। सत्तर के मध्य के दशक में जगजीवन राम देश के उप-प्रधानमंत्री बनें, रामविलास पासवान नब्बे के बाद के दशक में केंद में बराबर केंद्रीय मंत्री रहे हैं, मीरा कुमार लंबे समय तक लोकसभा स्पीकर रहीं।

मगर बिहार की अनुसूचित जाति के लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ। जाहिर है बिहार की राजनीति मे दलित चेतना का मौजूदा राजनीतिक विन्यास ही नहीं, बल्कि संविधान से मिला मौलिक अधिकार भी उसकी सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव लाने में सफल ना हो सका।

मौजूदा सुशासन सरकार ने भी दलित समुदाय को अपनी-अपनी सुविधानुसार दलित और महादलित की श्रेणी में बाटंने का काम किया। कभी सबों को महादलित बनाकर एक ही श्रेणी बना दी। इस कवायद से भी बिहार में दलित राजनीतिज्ञों का भला हो गया मगर दलितों को वह सामाजिक न्याय नहीं मिला।

कभी लालू तो कभी नीतीश के समकक्ष घुटने टेकती रह गई बिहार की दलित राजनीति

नीतीश कुमार। फोटो साभार- सोशल मीडिया

यह महसूस होता है कि बिहार में दलित वर्ग की सामाजिक समस्याओं को समझे बिना ही उसके इलाज की कोशिश की जा रही है। यह भी नहीं है कि बिहार के दलित समाज के पास बेहतरीन नायक नहीं हैं। दशरथ मांझी दलित समाज में संघर्ष की मिसाल हैं, जिन्होंने दलितों को भगवान भरोसे नहीं अपने ऊपर विश्वास करने का मंत्र भी दिया।

बिहार में दलित राजनीति को कांशीराम जैसा सुलझा और मंझा हुआ व्यक्त्ति नहीं मिल सका, जो बिहार में दलित राजनीतिक चेतना को उभार देकर ‘चमचा युग’ की राजनीति से मुक्त कर सके।

सामाजिक न्याय की राजनीति में बिहार की दलित राजनीति कभी लालू प्रसाद यादव के समकक्ष तो कभी नीतीश कुमार की राजनीति के समकक्ष घुटने टेकती रह गई।

मज़बूत राजनीतिक चेतना के अभाव में बिहार की दलित राजनीति, परिवार के लोगों की सियासत को सीखने में अपनी सारी ऊर्जा खर्च करता चला गया। जिन नेताओं ने इससे मुक्त होकर दलित राजनीति में अपनी पहचान बनाई, वे भी सामाजिक ताने-बाने को समझते हुए कुछ नए समीकरण को लेकर संघर्ष करने का साहस नहीं कर पाएं।

हां, हर पार्टी के पास दलित समुदाय से एक चेहरा ज़रूर है!

रामविलास पासवान और चिराग पासवान। फोटो साभार- Getty Images

परिणाम यह हुआ कि बिहार का दलित वर्ग सिर्फ राहत पैकेज स्कीम बनकर रह गया। चाहे शिक्षा की स्थिति हो या उसके स्वास्थ्य की, उसकी स्थिति दिनों दिन बिगड़ती चली गई। चुनाव के समय रेडियो, टीवी, फ्रिज, आवास और ठेका आदि पाकर अपनी जनशक्ति को मन मुताबिक नेताओं के पक्ष में करने में लगे रहे।

आज पासवान समुदाय लोक जनशक्ति पार्टी के साथ, मुसहर समुदाय जीतनराम मांझी के साथ, धोबी समुदाय श्याम रजक के साथ अपनी-अपनी जातीय पहचान को जोड़ते हुए अपने नेताओं के पीछे किसी भी गठबंधन में फिट होकर चुनाव में सीट लेकर अपनी राजनीति को बचाए रखने या अगली पीढ़ी तक सौपने में लगा हुआ दिखता है।

बिहार में मौजूदा दलित राजनीति की स्थिति यह है कि हर पार्टी के पास अपना एक दलित चेहरा है, जिससे वे अपनी राजनीति वोट बैंक को साधने में लगे रहते हैं। फिर चाहे वो रामविलास पासवान हों या जीतनराम मांझी, संजय पासवान हों या श्याम रजक, उदय नारायण चौधरी या रमई राम या फिर अशोक चौधरी सभी “चमचा युग” की राजनीति से बाहर निकलकर अपनी शक्ति को संगठित रूप से इस्तेमाल करने और अन्य समुदाय के साथ मसलन मुस्लिम समाज में पसंमादा मुसलमानों के साथ भी राजनीतिक शक्ति को मज़बूत करने में सफल नहीं हो सके हैं।

इसके कारण को पहचानते हुए कहा जा सकता है कि बिहार में दलित राजनीति के संघर्ष, आंदोलन या विचारधारा के प्रति आस्था नही रही है। सूबे में दलित वोट बैक अपनी ताकत तो रखता है पर वह पूरी तरह से बिखरा हुआ है। उसका उनके बीच में कोई सर्वमान्य नेता ही नहीं है न ही कोई विचारधारा की शक्ति है। अपने अपने मसीहा के तलाश में हर धड़ा किसी एक नेता के पीछे कदमताल करने के लिए विवश है।

बिहार की दलित राजनीति को विचारधारा की ज़मीन पर एक मज़बूत दलित आंदोलन खड़ा करने की ज़रूरत है। दलित समुदाय के यहां थाली ले जाकर दिखावे की राजनीति करने की जगह उनके ही थाली में हम निवाला बनने की ज़रूरत है।

ज़मीन से लेकर विधानसभा तक एक लंबा जन-संघर्ष खड़ा करने की ज़रूरत है। यही संघर्ष एक नया ज़मीन तैयार करेगा ताकि दलित समुदाय अपने लिए विकास की राजनीति पर मौजूदा सत्ता से सवाल कर पाए।

आज़ादी के इतने सालों बाद भी उनके जीवन का अंधेरा क्यों नहीं दूर हुआ, पहले रह चुकी सरकार और आज की सरकार सबों को इसका जवाब देना होगा।

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