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“क्या बोर्ड परीक्षाओं में टॉप करने भर से हम रोज़गार के लायक बन जाएंगे?”

कुछ दिन पहले कमोबेश हर बोर्ड के दसवीं और बारहवीं के परीक्षा परिणाम आ चुके हैं। कोरोना महामारी के दौरान दसवीं और बारहवीं परीक्षा के उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन एक चुनौतिपूर्ण काम रहा होगा। परिणाम आने के बाद पसंद के विषय पढ़ने के लिए स्कूल या कॉलेज के चयन का दौर शुरू हो चुका है। स्टूडेंट्स के साथ-साथ अभिभावक भी अपने पेशानी का पसीना पोछ रहे हैं।

समाचार माध्यमों में स्टूडेंट्स के अंक सुनकर हैरानी होती है। इन नतीजों से हर कोई उत्साहित हो सकता है, क्योंकि आने वाली पीढ़ी पढ़ाई-लिखाई के मामले में आसमान छू लेना चाहती है, जो प्रसन्नता की बात है। इसका श्रेय उनके माता-पिता और शिक्षकों को दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे काफी मेहनत करते हैं।

अंकों में बढ़ोतरी की बड़ी वजह क्या है?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

कमोबेश हर बोर्ड में पिछले कुछ सालों में स्कूली शिक्षा की परिक्षाओं में अंको की वर्षा बढ़ती जा रही है। पहले तो 85 प्रतिशत पा लेना ही असंभव सा प्रतीत होता था। अंकों में बढ़ोत्तरी के तमाम कारणों में से एक बड़ा कारण है, भारतीय मध्यवर्ग में शिक्षा के माध्यम में संपन्नता और खुशहाली हासिल करने के प्रति बढ़ता हुआ आत्मविश्वास। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि 90 के बाद की हमारी अर्थव्यवस्था ने बड़े पैमाने पर मध्यवर्ग को पैदा किया है।

आज़ादी मिलने के बाद आईआईएम, आईआईटी और एनसीआईटी से निकलने वाले लाखों प्रतिभाशाली युवा देश से पलायन करके बाहर के देशों में जाकर बसे हैं, जिससे भारत में आर्थिक समृद्धि का दौर आया है। ये सभी प्रतिभाशाली युवा या तो केंद्रीय बोर्ड से पास हुए होंगे या सीबीएसई बोर्ड से।

यही दोनों बोर्ड्स भारत के स्कूली शिक्षा के चमकते सितारे हैं, जिन्होंने भारतीय मध्यवर्ग के जीवन में सुनहरे सपने को साकार बनाने का एक सबल और सुगम प्रयास किया है।

दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं में अंकों की बरसात का एक और कारण स्कूली शिक्षकों, ट्यूटरों, अभिभावकों और खुद बच्चों का कठिन अभ्यास से यस फॉर्मूले को विकसित करना भी है, जिससे अच्छे अंक हासिल किए जा सकते हैं।

अच्छे अंक हासिल करने के नुस्खे

प्रतीकात्क तस्वीर। फोटो साभार- pexels

दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं का एक खास पैर्टन होता है, जिसे पहचानने के लिए शिक्षकों, ट्यूटरों और स्कूलों की खोजबीन चलती रहती है। 11वीं में बच्चों को इस तरह से पढ़ाया जाता है कि वे ऊंचे स्कोर ला पाएं। राज्य स्तरीय बोर्ड में तो कुछ दस सालों के प्रश्नों का अभ्यास कराया जाता है, क्योंकि वहां नए तरीके के प्रश्न पूछे ही नहीं जाते हैं। अधिकांश प्रश्न किसी ना किसी साल पूछे जा चुके होते हैं।

उन्हें खासतौर से परीक्षा-प्रश्नों के उत्तर देने का एक खास तरीका भी सिखाया जाता है, जिसमें बच्चों को हर विषय में महत्वपूर्ण बातों को समझाया जाता है। बच्चों को हर विषय में महत्वपूर्ण बातों को समझाना और फिर उसका निरंतर अभ्यास करके उसे अपनी याद्दाश्त का हिस्सा बनाना होता है।

अच्छे अंक हासिल करने के इन नुस्खों को अब बच्चों के माँ-बाप भी सीखने लगे हैं, क्योंकि घर पर उनको यह देखना होता है कि उनका बेटा या बेटी उन नुस्खों पर लगातार अभ्यास कर रहे हैं या नहीं!

कमोबेश हर बोर्ड में यह प्रवृत्ति हर साल स्टूडेंट्स को अच्छे अंक लाने में मदद कर रहा है। सीबीएसई और आईसीएसई में यह प्रवृत्ति काफी प्रबल है। इन दोनों ही बोर्ड्स के अलावा अन्य राज्य बोर्ड्स में असफल स्टूडेंट्स की संख्या अधिक होती है, क्योंकि वहां शिक्षक और अभिभावक स्टूडेंट्स के साथ लगातार मेहनत नहीं करते हैं।

रोज़गार के स्तर पर चुनौतियां

परीक्षाओं के परिणाम घोषित होने के बाद राज्य बोर्ड्स के स्टूडेंट्स में आत्महत्या की प्रवृत्ति अधिक देखने को मिलती है। केन्द्रीय और राज्य बोर्ड के नतीजों में भारी अंतर का कारण परीक्षा देने वालों की आर्थिक-सामाजिक और शैक्षणिक पृष्ठभूमि में भारी अंतर भी है।

दसवीं और बारहवीं परीक्षाओं में अधिक अंक लाने वाले बच्चों के चेहरे अखबारों और टेलीविज़न स्कीन पर ज़रूर दिखाई देते हैं मगर यह मानना मुश्किल है कि परीक्षा के सभी विषयों में उनकी सिद्धहस्तता का स्तर “परफेक्शन” के बराबर है।

यह माना जाता रहा है कि स्कूल स्तर पर पढ़ाई-लिखाई को आनंदपूर्ण, रचनात्मक, विश्लेषणात्मक और सहभागी बनाने की ज़रूरत है, जिससे बच्चों में सोचने की क्षमता विकसित की जा सके। यहां यह सवाल उठना ही चाहिए कि बोर्ड परीक्षाओं में क्या बच्चों के भविष्य के लिए ज़रूरी क्षमताओं का सही-सही मूल्यांकन हो पाता है या नहीं?

यह चुनौती और अधिक बड़ी तब हो जाती है, जब रोज़गार के स्तर पर हर जगह हर तीन से पांच साल में “कौशल सूची” में बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है। क्या इतनी उदारता से अंक बांट रही हमारी स्कूली शिक्षा इस बड़े बदलाव का मुकाबला करने की स्कूली शिक्षा या हूनर हमारे बच्चों को दे पा रही है? फिर इतने अंकों का मायने ही क्या रह जाता है जिसे पाने के लिए तमाम अभिभावक, शिक्षक और स्टूटेंट्स रेस में लगे रहते हैं।

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