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कथित राष्ट्रवादियों को बहुत निराश करती है फिल्म “गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल”

नेपोटिज़्म के बहस के बीच में स्टार किड जान्हवी कपूर की अभिनित फिल्म “गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल” रिलीज हुई। पंकज त्रिपाठी, अंगद बेदी, विनीत कुमार सिंह और मानव विज जैसे कलाकारों से सज़ी फिल्म को दर्शकों से सराहा भी और आलोचकों ने अपनी आलोचना मर्यादा का धर्म पूरा किया।

जान्हवी के अभिनय की हुई काफी आलोचना

आलोचक अपने सवाल पर सही भी है कि जान्हवी कपूर अपने अभिनय क्षमता से उस हद तक प्रभावित नहीं कर सकी जितना प्रभावित करने की क्षमता गुजंन सक्सेना के किरदार में था।

प्रतीकात्मक तस्वीर

अन्य कलाकारों में पंकज त्रिपाठी और विनीत कुमार सिंह प्रभावित करते हैं और अन्य कलाकारों ने भी अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है। न्याय नहीं किया गया तो जान्हवी कपूर के किरदार को रचने में, जिस व्यक्तिगत क्षमताओं और साहसिक कार्यों के लिए गुजंन सक्सेना को पूरी दुनिया जानना चाहती थी, उसका हिस्सा बहुत कम ही दर्शकों को देखने को मिला।

दर्शक इसे निर्माता-निर्देशक की असफलता मानते है कि सेना पर आधारित फिल्म राष्ट्रवाद की वह घुट्टी नहीं पिलाती है जिसको पीकर राष्ट्रवादी नशा उफान पर चढ़कर बोलने लगे।

सेना स्त्री के बराबरी के अधिकार की बात करती है फिल्म

“गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल” की कहानी बस इतनी ही नहीं है। फिल्म में सेना की छवि को स्त्री विरोधी दिखाने के कारण सेना परेशान ही नहीं, बल्कि इस कदर चिंतित हुई है कि सेंसर बोर्ड को पत्र तक लिख दिया गया है।

गौरतलतब है कि सेना में महिलाओं की नियुक्ति हमेशा से एक विवादास्पद विषय रहा है। सरकार इससे बचती रही है लेकिन संवैधानिक मान्यताओं के आगे घुटने टेकने को मज़बूर होने के बाद महिलाओं की नियुक्ति प्रारंभ तो हुई लेकिन सेना के सभी अंगों में स्थाई कमीशन सर्वोच्च अदालत के फैसले आने के बाद ही पटरी पर आता दिख रहा है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

सेना के अंदर मर्यादित पुरुष का मर्दाना भाव कभी नहीं चाहता था कि महिलाएं भी सेना का हिस्सा बने। इसलिए सेना के पूरी संस्थागत संरचना में ही नहीं, बल्कि व्यवहारगत संरचना में भी महिलाओं के लिए किसी भी तरह के सुविधा ही नहीं समान्य चीजे़ भी महिला व्यवहार के अनुसार नहीं है।

सेना के मात्र एक अंग का यह रूप इस फिल्म में खुलकर सामने आ गया है कि सेना के अंदर का मर्दाना व्यवहार महिलाओं के साथ समानता का व्यवहार तो दूर भेदभाव करता है।

सेना की आलोचना को लेकर छिड़ गई है बहस

राष्ट्रवाद की गर्म चाय पीकर राष्ट्रवादी समाज सेना के इस तरह से सार्वजनिक आलोचना को बर्दाशत नहीं कर पा रहा है। इसलिए इस फिल्म की भर्त्सना की उसकी अपनी राष्ट्रवादी चेतनाएं है।

मज़ेदार बात यह है कि वह इसके विरोध के नेपोटिज़्म के आदर्श का सहारा नहीं ले रहा है, बल्कि सेना की आलोचना को देश के साथ गद्दारी के तराजू पर तोल रहा है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

बहरहाल भारतीय सेना भी देश की सामाजिक संस्था है और देश के अन्य सामाजिक संस्थाओं के तरह सेना की व्यवहार शैली भी पितृसत्तात्मक है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।

यह सही है कि सेना के ऊपर देश की सुरक्षा की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है और उसे नैतिकता के आदर्शवादी पैमानों की कसौटियों पर नहीं कसना चाहिए लेकिन मेरा कहना कि अगर हम सेना को उच्च नैतिकता के आदर्शवादी कसौटियों पर कसकर महान सेना बनाने की कोशिश करते भी है तो इसमें बुराई क्या है?

क्या इससे सेना की महानता कम हो जाएगी? या इससे सेना कमज़ोर हो जाएगी? ज़ाहिर है बिल्कुल नहीं, लेकिन हम राष्ट्रवाद के नशे में इतने अंधे हो गए हैं कि अपनी सेना को मानवीय धरातल पर देखना ही नहीं चाहते हैं। हम चाहते है कि वह सामंती लड़ाकों के तरह ही व्यवहार करे और उसके व्यवहार में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसी भावनाएं आए ही ना।

वैसे “गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल” भारतीय महिलाओं और लड़कियों को तो ज़रूर देखनी चाहिए, क्योंकि यह उनके हौसला आफजाई और मार्गदर्शन देने का काम तो करेगी ही।

साथ में वह महिला यह भी समझ जाएगी कि समाज अपने समाजीकरण में किस तरह उनके साथ पितृसत्तात्मक व्यवहार करता है और उसे पता ही नहीं चलता। मसलन, गुजंन के भाई को हवाई जहाज और गुंजन के लिए गुड़िया बच्चों के साथ परिवार का पितृसत्तामक व्यवहार नहीं तो और क्या है

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