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“क्या हम तक वही खबरें पहुंचती हैं जो मीडिया हमें दिखाना चाहता है?”

न्यूज़ चैनल देखते लोग

न्यूज़ चैनल देखते लोग

इसको समझना थोड़ा मुश्किल है। कुछ लोग कह सकते हैं कि जो मीडिया दिखाता है वही देखना पड़ता है। इसके अलावा और हम कर भी क्या सकते हैं, बहुत होगा तो टीवी देखना ही बंद करेंगे। सौ-पचास लोगों के टीवी बंद कर देने से क्या गारंटी है कि भाषा के ज़हरीलेपन में कमी आ जाएगी? 

कुछ लोग यह कह सकते हैं कि मीडिया वही तो दिखाता है जिसको देखना हम पसंद करते हैं। जब हम खुद इस बात का संकल्प ले चुके हैं कि हमको दो हज़ार के नोट में नैनो जीपीएस चिप ही देखना है तो इसका मतलब है कि वाकई हमारे डीएनए में घुन लग चुका है। 

यह बात अब किसी से ढकी छुपी नहीं है कि जिन मीडिया घरानों के सर पर स्टेट का हाथ होता है, उनको ना सिर्फ खूब विज्ञापन मिलते हैं, बल्कि उन्हें कुछ भी चलाने का फ्री पास मिल जाता है। 

दोनों बातें अपनी-अपनी जगह सही हैं लेकिन एक तीसरा रास्ता भी है जिसे फॉलो किया जा सकता है और किया भी जा रहा है। 

आदमी एक तरह की चीज़ से कुछ दिन के बाद उबने लगता है। चाहे वो खाना हो, गाना हो, कपड़ा हो या फिर कुछ और! पचीस दिन लगातार बिरियानी खाकर देखिए, छब्बीसवें रोज़ भात-दाल भुजिया खाने को दिल करेगा। यही मामला मीडिया कंटेट के साथ भी है।

अब कोई बेतिया के गाँव में रवीश और फै़ज़ान मुस्तफ़ा को संविधान की बारीकी समझाते देखना चाहेगा या दंगल मंगल होता देखना पसंद करेगा? ज़ाहिर सी बात है काम से लौटने के बाद मन हल्का करने के लिए एक थके हुए आदमी को मनोरंजन चाहिए होता है और वो मनोरंजन उसे संविधान की गाढ़ी डिबेट के बजाए ताल ठोक और दंगा-दंगल से हासिल होता है। 

इसका यह मतलब नहीं है कि संजीदा डिबेट और संवाद के बजाए लोग हो-हल्ला और गाली गलौज ही पसंद करते हैं। अभी भी अच्छे खासे दर्शक ज्ञानवर्धक चीज़ें देखना चाहते हैं लेकिन ऐसे दर्शकों की तादाद कम है। वैसे दर्शक ज़्यादा हैं जिन्हें कम समय में मनोरंजन और न्यूज़ दोनों चाहिए। न्यूज़ चैनल्स इसी का लाभ उठाते हैं।

अब बात करते हैं उस तीसरे तरीके पर जिसे कई नए और कुछ पुराने मीडिया घराने फॉलो कर रहे हैं। यह तीसरा रास्ता रिवायती तरीकों से हटकर है। इसे आप क्रिएटिव जर्नलिज़्म या रचनात्मक पत्रकारिता कह सकते हैं।

Newslaundry पर मनीषा पांडेय का Newsance हो या Scoopwhoop पर समधीश का Scoopwhoop Unscripted हो या फिर The Lallantop के कार्यक्रम हों, ये सब अब नए अंदाज़ में पत्रकारिता कर रहे हैं जिससे दर्शक ना सिर्फ बंधे रहें, बल्कि उन्हें नहीं से सही कुछ जानकारी भी मिल जाए।

ये चीज़ रवीश के कार्यक्रम में भी अब देखने को मिल रही है। शायद वो दर्शक के टेस्ट को समझ चुके हैं। माइम कलाकारों के साथ ब्लैक स्क्रीन में गोदी मीडिया के राफेल पर झंडीमार शो की नकल में किए गए उनके प्राइम टाइम शायद इसी बदलते हुए टेस्ट को भांपने करने का एक प्रयास हो। 

यही वजह है कि इस तरह के कार्यक्रम ज़्यादा पसंद किए जा रहे हैं। प्रिंट मीडिया में The Telegraph ने क्रिएटिव हेडिंग के ज़रिये अपनी एक अलग पहचान बनाई है। 

आने वाले दिनों में इस तरह की पत्रकारिता कैसे विकसित होती है, यह देखना दिलचस्प होगा। इसके अलावा दूसरे मेनस्ट्रीम मीडिया इसे कब और कितनी जगह देते हैं, यह भी आने वाले समय में ही पता चलेगा। 

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