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फैक्ट्रियों में संगठित तरीके से कैसे होता है प्रवासी मज़दूरों का शोषण

गाँवों का समुचित रूप से विकास ना होना और बेरोज़गारी की समस्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने की वजह से वहां पर रहने वाले किसान व मज़दूर अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए मजबूरी में शहर आ जाते हैं। बहुत ही कम वेतन पर नौकरी करने के लिए वे बाध्य होते हैं जिससे ‘अलगाव की स्थिति’ पैदा हो जाती है।

धीरे-धीरे वे अकेलापन और अवसाद के शिकार हो जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि झूठी खुशी पाने और समय काटने के लिए इनकी जुआ खेलने व शराब पीने की आदत पड़ जाती है। जिससे कि परिवार की कमी महसूस ना हो। यह हमारी सरकार के लिए बहुत ही शर्मनाक है।

कैसे काम करती है शोषण की मानसिकता?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

यह वास्तव में मेरी कल्पना के परे है कि मात्र दो वक्त का भोजन जुटाने के लिए इन्हें अपनी पत्नी, बच्चों और अपने गाँव को छोड़ना पढ़ता है और ये प्रवासी मज़दूर अपनी गाँव की हरियाली व अपने घर से दूर रहकर मजबूरी में शहर में किराये पर ऐसी जगह कमरा ले लेते हैं, जहां ना साफ पानी की सुविधा होती है, ना बिजली की और ना ही सफाई की समुचित व्यवस्था। ये चीज़ें स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक हैं।

वास्तव में मज़दूरों और किसानों के पलायन की समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ने का कारण इनके गाँव में रोज़गार ना मिलने की वजह से है। शहर में आकर भी इनकी मुसीबतें कम होने की जगह और बढ़ जाती हैं। जिस फैक्टरी में ये काम करते हैं, वहां भी इनमें एकता ना हो और आपस में मिल-जुलकर काम ना करें, इस वजह से इनके काम को चार वर्गों में विभाजित कर दिया गया है।

पहला है दिहाड़ी मज़दूर, दूसरा अस्थाई मज़दूर, तीसरा कंपनी का मज़दूर और चौथा स्थाई मजदूर। इस विभाजन की वजह से इन मज़दूरों में प्रतियोगिता का भाव पनपता है जिसका फायदा कंपनी के मालिक को पहुंचता है। मज़दूरों के एकजुट ना होने की वजह से मालिक अपनी मनमानी करता है।

इससे प्रत्यक्ष रूप से मज़दूरों का ही शोषण होता है और ये मेहनतकश मज़दूर अनजाने में अपने ही लोगों से दूर हो जाते हैं जिससे फैक्ट्री के मालिक की चाल कामयाब हो जाती है और मज़दूरों के बीच अलगाव की स्थिति पैदा हो जाती है। हमारे ये मज़दूर भाई काम पाने की लालसा में अधिक मेहनत करके कम मज़दूरी में भी काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं, जिससे इनके स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है।

ज़मीनों पर हो जाता है सरकारी कब्ज़ा

मनरेगा के तहत काम करते मज़दूर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

इलाज के अभाव में ये चिकित्सा से भी दूर रह जाते हैं। ये अस्वस्थ रहने लगते है मगर इससे किसी को कोई फर्क नहीं पढता है। ना सरकार को और ना ही मिल मालिकों को क्योंकि सरकार तो शहर में ऊंची-ऊंची बिल्डिंग, मॉल और मल्टीप्लेक्स बनाने में व्यस्त है और मिल मालिक बड़ी गाड़ियों में घूमने व ऐशो-आराम की ज़िन्दगी जीने में खुश हैं।

जहां इन मज़दूरों को धूप में कड़ी मेहनत करके दो वक्त का भोजन जुटाने और न्यूनतम सुविधाएं जुटाने के लिए काफी मशक्कत करनी पढ़ती है, वहीं दूसरी तरफ मिल मालिक व उनके बच्चे A.C. घरों में बैठकर पिज़्ज़ा, बर्गर, कोल्ड ड्रिंक और फ्रेंच फ्राइज़ के मज़े लेते हैं। यानि कि मेहनत किसी की और मज़े किसी के जो कि मेरी नज़र में बहुत ही अनुचित है।

ये तो आजकल हद ही हो गई कि हमारी सरकार बहुमंज़िला इमारतें बनवाने के लिए शहर के आसपास भी जो खेती की ज़मीनें हैं, उन पर कब्ज़ा कर रही हैं। इससे हमारे किसान भाई जो खेती करके अपने परिवार का पेट पालते हैं, वे बेरोज़गार हो जाते हैं।

ज़मीन का मालिक मुआवज़े के रूप में मोटी रकम मिलने की वजह से काम-धंधा छोड़कर अय्याशी में पैसा बर्बाद करने लगता है। इसके विपरीत खेतों पर काम करने वाला मज़दूर अन्य रोज़गार के लिए इधर-उधर भटकने लगता है।

मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि महात्मा गाँधी जिनको हम बापू कहकर पुकारते हैं, उनके अनुसार गाँवों में भारत की आत्मा बसती है, तो उनकी बदहाली पर हमारा ध्यान क्यों नहीं जाता? जबकि गाँवों में हमारे देश की 70 प्रतिशत से अधिक जनसख्या रहती है।

मेरे अनुसार हमारी सरकार अगर बड़ी-बड़ी बातें ना बनाकर थोड़ा-सा भी वक्त निकालकर वास्तव में खेती के विकास पर ध्यान दें, तो काफी हद तक गाँवों में रोज़गार की समस्या समाप्त हो जाएगी और वहां बसने वाले हमारे मज़दूर व किसान भाईयों को रोज़ी-रोटी व अन्य सुविधाओं के लिए मजबूरी में शहर आकर बेहद कम वेतन पर नौकरी नहीं करनी पढ़ेगी। एक समान नागरिक होने के नाते वे भी एक खुशहाल ज़िंदगी व्यतीत कर सकेंगे जिस पर उनका जन्मसिद्ध अधिकार है।

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