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ऑनलाइन एजुकेशन कैसे बढ़ा रहा है स्टूडेंट्स के बीच असमानता की खाई

कोरोना के आने के बाद हम सबकी आम ज़िन्दगी में काफी बदलाव आए हैं, अभी और बदलाव होने को हैं। जब से कोरोना आया है हम सब जानते हैं कि इसका प्रभाव शिक्षा पर सबसे अधिक देखने को मिला है। कोरोना की वजह से किए गए तालाबंदी में सबसे पहले विद्यालयों को ही बंद किया गया ताकि इस संक्रमण को बच्चों में फैलने से रोका जा सके। 

खासकर निजी विद्यालयों ने ऑनलाइन कक्षाओं द्वारा शिक्षा देने का काम शुरू किया। जिसमें अनेक माध्यम से बच्चों को पढ़ाने का कार्य शुरू किया गया। व्हाट्सएप ग्रुप बनाकर वीडियोज़ शेयर करके, कुछ विद्यालयों में एप्लीकेशन द्वारा, कहीं वीडयो एप से तो कहीं यूट्यूब द्वारा शिक्षा देने की कोशिश की गई।

स्टूडेंट्स से लेकर अभिभावकों तक ऑनलाइन एजुकेशन का दबाव

आरम्भ में सब कुछ नॉर्मल था लेकिन ऑनलाइन शिक्षा के तहत बढ़ती क्लासेज़ के लिए विद्यालयों द्वारा बच्चों और उनके अभिभावकों पर जिस तरह का प्रेशर बनाया जाने लगा, वह काफी चौंकाने वाला है।

कुल मिलाकर अभी तक इन ऑनलाइन क्लासेज़ की वजह से केरला से 2 बच्चों ने 1 जून और 18 जून को, 7 जून को पंजाब से 16 साल की 1 लड़की ने, 19 जून को पश्चिम बंगाल में एक 16 साल की लड़की ने तो वहीं 24 जून को एक 16 साल के लड़के ने असम में आत्महत्या की। 

इसके अलावा 2 जुलाई को त्रिपुरा में एक पिता ने और 28 मई को दिल्ली में एक महिला ने अपने बच्चों को स्मार्टफोन ना दिला पाने की वजह से आत्महत्या कर ली। यह तो सिर्फ वे केसेज़ हैं, जो रिपोर्टेड हैं। बाकी हम समझ सकते हैं कि ऐसे कितने केसेज़ आए होंगे। 

आर्थिक स्थिति से कमज़ोर अभिभावकों पर पड़ा असर

इन ऑनलाइन कक्षाओं का सबसे बड़ा प्रभाव मध्यम वर्गीय और उन गरीब परिवारों पर सबसे ज़्यादा हुआ है, जिनके बच्चे निजी विद्यालयों में पढ़ते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण इन वर्ग के बच्चों और परिवारों के पास ऑनलाइन कक्षाओ के लिए आवश्यक संसाधनों का ना होना है।

क्योंकि ऑनलाइन पढ़ाई के लिए वैसे तो आपके पास एंड्रायड फोन/कम्प्यूटर/टैबलेट, ब्रॉडबैंड कनेक्शन, प्रिंटर जैसे उपकरणों की उपलब्धता अनिवार्य है। अगर इतना भी नहीं है तो कम-से-कम 1 बच्चे के लिए एक एंड्रायड फोन/टेबलेट और उसके साथ इन्टरनेट कनेक्शन अत्यंत ज़रूरी है। 

हमारे देश में  ज़्यादातर ग्रामीण बच्चों के परिवार की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं है कि वे इन ऑनलाइन क्लासेज़ के लिए आवश्यक उपकरण खरीद पाएं। वहीं, कोरोना जैसी महामारी में लॉकडाउन की वजह से किसी के पास कमाई का कोई ज़रिया नहीं बचा है, तो किसी की नोकरी चली गई है।

मज़दूरी करने वाले लोग तो वैसे ही इस कोरोना की वजह से अपने खाने तक का इंतज़ाम कर पाने में असमर्थ हैं। तो ऐसे परिवारों के लिए अपने बच्चों को ऑनलाइन कक्षाओं के लिए ज़रूरी उपकरण दिलवा पाना बिल्कुल भी आसान नहीं है। 

स्टूडेंट्स के बीच असमानता की खाई

इसके साथ ही लॉकडाउन की वजह से मोबाइल कंपनियों ने ऑफलाइन मोबाइल की रेट में 1500 से 2000 तक की वृद्धि कर रखी है। जिसका सीधा प्रभाव आम आदमी पर पड़ रहा है। इसी के चलते इन परिवारों के बच्चे ऑनलाइन क्लासेज़ नहीं कर पा रहे हैं।

इनके साथ पढ़ने वाले बच्चे ऑनलाइन क्लासेज़ के माध्यम से पढ़ाई कर रहे हैं, जिसमें वे बच्चे ज़्यादा हैं जो अपने माता-पिता की 1-2 संतान हैं या फिर वे संपन्न परिवार से आते हैं जिनके पास ये उपकरण उपलब्ध हैं। इसी के चलते इन बच्चों के बीच एक गहरी खाई बनती जा रही है।

RTE के अनुच्छेद 12 (10) (सी) के तहत सभी निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें (EWS कोटा) पिछड़े और वंचित वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित रखने के निर्देश हैं। तो इससे यह भी साफ होता है कि RTE के तहत आने वाले ये सभी बच्चे आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग से संबंधित हैं। इनके लिए यह ऑनलाइन क्लासेज़ एक बड़ी चुनौती से कम नहीं है। 

ऑनलाइन कक्षाओ के लिए ज़रूरी उपकरणों की उपलब्धता  

ग्लोबल अध्ययन (PEW) के अनुसार, केवल 24% भारतीयों के पास स्मार्टफोन है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण रिपोर्ट 17-18 के अनुसार, भारत के सिर्फ 11% परिवारों के पास डेस्कटॉप कंप्यूटर/लैपटॉप/नोटबुक/ टैबलेट हैं। इस सर्वे के अनुसार, केवल 24% भारतीय घरों में इंटरनेट की सुविधा है, जिसमें शहरी घरों में इसका प्रतिशत 42 है। जबकि ग्रामीण घरों में केवल 15% ही इंटरनेट सेवाओं की पहुंच है। 

लोकल सर्कल में गैर सरकारी संस्था के द्वारा एक सर्वे किया गया, जिसमें 203 ज़िलों के 23 हज़ार लोगों ने हिस्सा लिया। इनमें से 43% लोगों ने कहा कि बच्चों की ऑनलाइन क्लासेज़ के लिए उनके पास कम्प्यूटर, टैबलेट, प्रिंटर और राउटर आदि जैसे उपकरण उपलब्ध नहीं हैं। 

ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों की समस्याएं

इसके साथ ही हमारे देश में इन्टरनेट की उपलब्धता भी ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में असमान है। जिसके कारण उपयोगिता की दर भी शहरों के अनुपात में गाँवों में कम है। जिससे ग्रामीण क्षेत्रो में रहने वाले बच्चों को नेटवर्क की समस्या और इन्टरनेट की गति की वजह से भी अनेक समस्याओ का सामना करना पड़ता है।

इसके अलावा मध्यम वर्गीय और गरीब तबके के अधिकतर अभिभावकों के पास आज भी स्मार्टफोन नहीं है। जिससे उनके बच्चे ऑनलाइन क्लासेज़ ले पाने में असमर्थ हैं। कई अभिभावकों ने अपने बच्चों के लिए फोन और लैपटॉप खरीदे ताकि उनके बच्चे ऑनलाइन क्लासेज़ ले सकें लेकिन यह सबसे बड़ी मुसीबत उन परिवारों के लिए है जिनमें 2 या 2 से ज़्यादा बच्चे हैं।

ऐसा इसलिए क्योंकि हर बच्चे की अलग-अलग कक्षा होने के कारण उनका पाठ्यक्रम भी अलग है। फिर ऐसे हर बच्चे के लिए अलग से यह उपकरण खरीदना अनिवार्य है। 

निजी विद्यालय इस कोरोना अवधि को भी अवसर के रूप में देख रहे हैं। आने वाले दिनों में कहीं विद्यालयों में ही स्मार्टफोन/टेबलेट जैसे उपकरणों की बिक्री ना शुरू हो जाए! यह सोचने वाली बात है क्योंकि निजी विद्यालय बच्चों की ड्रेस, जूते, टाई, बेल्ट सब बेचते हैं। तो यह भी मुमकिन हो सकता है और यह आने वाले वक्त में आम लोगों के लिए काफी नुकसान दायक हो सकता है। 

इन ऑनलाइन क्लासेज़ की वजह से बच्चों को ज़्यादा समय तक मोबाइल फोन के सामने बैठना पड़ता है। जिसके चलते उनको कई तरह की समस्याएं होने लगी हैं। जैसे- आंखें कमज़ोर होना, देर तक एक ही स्थिति में बेठने की वजह से पीठ और गर्दन में दर्द आदि।

पाठ्यक्रम की गुणवत्ता

सबसे बड़ी और ज़रूरी चीज़ यह है कि ऑनलाइन कक्षाओं में जिन पठन सामग्री द्वारा बच्चों को पढ़ाया जा रहा है, क्या वह उनको और उनके स्तर को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। यह एक सोचने वाला विषय है। ऐसे में ऑनलाइन शिक्षा से वंचित स्टूडेंट्स के अभिवावकों का चिंतित होना स्वाभाविक है।

इसका सबसे बड़ा कारण जो समझ आता है वह सिर्फ यह है कि विद्यालय प्रबंधन चाहता है लॉकडाउन के दौरान बच्चे पढ़ाई से दूर ना हों और वे अगली क्लास के हिसाब से अपना पाठयक्रम पढ़ें। 

अब ऑनलाइन पढ़ाई में कई व्यवाहारिक दिक्कतें होने के बाद भी इन क्लासेज़ में कोई कमी नहीं आई है, क्योंकि इस लॉकडाउन में विद्यालय खोलना खतरे से खाली नहीं है। ऐसे में ऑनलाइन क्लास ही बड़ा सहारा है। सबसे बड़ी बात यह है कि निजी विद्यालय इस दौर में भी अभिभावकों पर दबाव बनाकर इन ऑनलाइन कक्षाओं का शुल्क वसूल रहे हैं। इससे यह साबित होता है कि उनको बच्चों की पढ़ाई से ज़्यादा फीस से मतलब है। 

आखिर में मैं सिर्फ यही समझना चाहता हूं कि क्या बच्चे अगर 1 साल नहीं पढ़ पाएंगे तो उनके सीखने की गति रुक जाएगी? इन ऑनलाइन कक्षाओं से हम बच्चों को सिर्फ और सिर्फ रट्टू बनाने में लगे हैं।

इससे उनकी रचनात्मकता कहीं खोती जा रही है। छोटी कक्षाओं के बच्चों को तो वैसे भी ऐसी कक्षाओं से दूर रखना ज़रूरी है, क्योंकि इन कक्षाओं से उनको कोई लाभ नहीं मिल पाएगा, बल्कि उनके मानसिक विकास में यह रूकावट हो सकता है।


संदर्भ- मुंबई मिरर, एनडीटीवी, Huff Post, हिन्दुस्तान टाइम्स, रिपब्लिक भारत, Times Now, NDTV-2

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