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“सेक्स पर बात करना यानि कि समाज के लिए बेशर्म और चरित्रहीन बन जाना”

सेक्स अजीब शब्द है ना? अकेले कमरे में रहने पर यह विषय काफी पसंद आएगा। गूगल पर खोजा भी जाएगा। वीडियो भी शायद देख लिए जाते हों। सो कॉल्ड ब्लू फिल्म या कामसूत्र जैसी फिल्म के!

लेकिन जब लोगों के बीच होते हैं तो इसकी चर्चा चलने अथवा फिल्म देखते समय रोमांटिक सीन आने पर हमारा इधर-उधर कनखियों से देखना, मोबाइल चलाने लगना, साथ ही किसी अन्य विषय पर बात करने लगना आम बात है।

हम सेक्स पर बात करने और चर्चा करने से डरते हैं!

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

इस विषय को नेगलेक्ट करने की कोशिश करना आज हर घर-हर परिवार में आम बात है। जैसे सेक्स पर बात हो ही नहीं रही थी। ऐसा क्यों करते हैं हम?

शायद हमने अपने ज़हन में सेक्स के संकुचित रूप को ही समेटकर या छिपाकर रखा है, जिसका संबंध केवल जिस्मानी अथवा शारीरिक या लैंगिक संबंध बनाने से होता है।

अगर रूप देखा जाए तो सेक्स एक जैविकीय शब्द है, जो स्त्री-पुरुष को विभेद करता है। लैंगिक लक्षणों, हॉर्मोंस, गुणसूत्रों व प्रजनन अंगों आदि के आधार पर।

हम सेक्स पर बात करने और चर्चा करने से डरते हैं। शायद यह सोचकर कि चार लोग क्या कहेंगे? लोग क्या सोचेंगे? कैसी लड़की या लड़का है ये, बेशर्म, चरित्रहीन और ना जाने कितने ही शब्द मस्तिष्क में आकर विचारों को शब्द का रूप लेने से पहले ही रोक देते होंगे।

क्या कहते हैं शोध?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

यही अनसुलझी और छिपी हुई जिज्ञासाएं कई बार व्यक्ति को गलत राह पर चलने और गलत माध्यम से जानकारी एकत्रित करने को विवश करती है। व्यक्ति अपराधों की ओर भी कदम बढ़ाता है। खासकर यौनिक हिंसा जैसे घृणित अपराध की ओर!

एच. शिन, जे. ली, जी. वाई. मीन द्वारा प्राइमरी एलिमेंट्री स्कूल पेरेन्ट्स में सेक्शुअल नॉलेज, सेक्शुअल एटीट्यूड और सेक्शुअल पर्सेप्शन आदि से संबंधित अपने शोध से स्पष्ट किया है कि शोध में सम्मिलित सम्पूर्ण उत्तरदाता (337) में से अधिकतर (59.9%) पेरेन्ट्स ने अपने बच्चों को सेक्शुअल बिहेवियर के बारे में कोई जानकारी नहीं दी है।

शेष पेरेन्ट्स में से अधिकांश ने केवल गर्भावस्था और शिशु जन्म के विषय में जानकारी दी है। तथा केवल 2% पेरेन्ट्स ने अपने शिशु को कॉन्ट्रासेप्शन जैसे कॉन्डम्स, पिल्स आदि की जानकारी प्रदान की है। वहीं 1.7% पेरेंट्स ने अपने बच्चों को शारीरिक संबंध के बारे में जानकारी दी है। है ना सोचने वाली बात?

आधुनिकता का लबादा हम ओढ़ने की बात करते हैं लेकिन जब गंभीर मुद्दों पर जानकारी साझा करने की बात आती है, तो हम उम्र का तकाज़ा करते हैं और सही समय पर बातचीत करने की सलाह देते हैं। हमें अपने विचारों को बदलने की ज़रूरत है, क्योंकि यह एक शारीरिक प्रक्रिया के साथ-साथ शारीरिक ज़रूरत भी भी।

ऐसे में शारीरिक और मानसिक परिवर्तन से जूझ रहे किशोर-किशोरियों अथवा बच्चों में चोरी-छिपे एडल्ट कंटेंट देखना, सेक्शुअल अपील करना, इव टीज़िंग करना करने के साथ-साथ भद्दे-अश्लील कमेंट्स करने की प्रवृत्ति तो आएगी ही, साथ ही साथ उनमें अपनी जिज्ञासा पूर्ति हेतु रेप कल्चर भी बढ़ेगा और सेक्स शब्द का दायरा विस्तृत ना होकर संकुचित ही रह जाएगा।

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