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क्या बिहार के लोगों ने बाढ़ के साथ जीना सीख लिया है?

बिहार के अधिकांश ग्रामीण इलाकों के लिए बाढ़ और शहरी इलाकों के लिए बरसात के पानी के निकासी के लिए उचित व्यवस्था नहीं होने के कारण जलजमाव नई बात नहीं है। हर साल ऐसा ही होता है इसलिए उन्होंने इसके साथ जीवन जीने की आदत डाल ली है।

बिहार के लोगों ने बाढ़ के साथ जीवन जीने की आदत इस कदर डाल रखी है कि वहां बाढ़ आने पर राहत शिविर भी नहीं लगाए जाते हैं।

अखबारों में बस तस्वीरें छपती हैं कि शहर के फलां घर में पानी, इतने मंज़िल तक घर डूबा, गाँव में इतने की फसल बर्बाद, लोग दाने-दाने को मोहताज, सरकार ने बनाई आपदा प्रबंधन कमेटी, मुख्यमंत्री ने लिए बाढ़ प्रभावित ज़िलों का दौरा, केंद्र सरकार से राहत सहायता मागने की अपील वगैरह। कह सकते हैं कि बिहार में बहार है इसका तो पता नहीं मगर बिहार में बाढ़ तो है ही!

औसत से भी कम बरसात में कैसे डूब जाता है बिहार?

पंद्रह अगस्त में गाँधी मैदान पर आज़ादी के उत्सव का झंडा फरहाते ही लोग बाढ़ की तकलीफों को भूल पर्व-त्यौहार और जीवन-यापन के संघर्षों में लग जाते हैं और सरकारें फिर अगले साल का इंतज़ार करती हैं, क्योंकि बाढ़ आने पर विशेष अनुदान का बंटर-बाट जो होता है।

अगर यह बिडंवना नहीं है तो क्या है? औसत से भी कम बरसात होने के बाद भी बिहार में बाढ़ हर साल आ जाती है। जिसमें बिहार के अधिकांश ग्रामीण इलाके डूब जाते हैं। बागमती, बूढ़ी गंडक या कोसी नदी के किनारे रहने वाले बाढ़ के दर्द से परेशान हैं। बिहार के शहर जल निकासी का उचित व्यवस्था नहीं होने के कारण गंगनचुंबी इमारतों और मॉल के खड़े किए विकास को देखने पर मन में ख्याल आता है कि विकास इसको कहते हैं या किसी और चीज को?

नेता भी नहीं बच पाते हैं रेस्क्यू से!

बरसात के मौसम में जहां ग्रामीण जनता बाढ़ से परेशान है, वहीं शहरी जनता जलजमाव की समस्या से त्रसत है। आलम यह है कि मंत्री-संतरी के लिए बने शहर बिहार की राजधानी का भी हाल बुरा हो जाता है। बीते साल उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी को पटना शहर में जलजमाव के कारण रेस्क्यू किए जाने का फोटो सोशल मीडिया में बहुत वायरल हुआ था। वो भी पटना शहर के जलजमाव से परेशान थे। जिस राज्य की राजधानी का यह हाल हो तो शेष राज्य की कल्पना की जा सकती है वह क्या होगी?

हर साल बिहार का कम-से-कम सौ करोड़ रुपये का नुकसान होता है जिसमें मकान, सड़क, मवेशी, खेत, पूल, स्कूल, बिजली, संचार आदि शामिल हैं। हर साल बाढ़ में इनका नुकसान होने के साथ-साथ इन्हें फिर से खड़ा करने में भी खर्च होता है।

प्रवासी बनें बिहारियों के लिए बाढ़ के क्या मायने हैं?

बिहार के संसाधन, मानव संसाधन और बेहरतीन भौगोलिक परिस्थितियों के बावजूद बाढ़ यहां का समुचित विकास नहीं होने देती है। वैसे यह जानना भी ज़रूरी है कि बिहार के ग्रामीण इलाकों में बाढ़ का कारण प्राकॄतिक होने के साथ-साथ राजनीतिक भी है। शहरी इलाकों में जल-जमाव प्रशासन की नाकामयाबी के साथ-साथ जनता का भी लापरवाह और गैर-ज़िम्मेदार होना है।

बिहार के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपने गौरवशाली इतिहास पर इठलाता तो है लेकिन अपने वर्तमान और भविष्य के लिए उदासीन है। यह उदासीनता सरकार और जनता दोनों ही तरफ से है।

बिहार के अधिकांश लोग अपने राज्य की समस्या का समाधान बिहार में रहकर नहीं, बल्कि बिहार के बाहर मौजूद सुविधा का दोहन करके पूरा करना चाहते हैं। फिर चाहे मामला शिक्षा का हो, रोज़गार का हो, स्वास्थ्य का हो, उनकी वरियता की सूची में बिहार आता ही नहीं है। वे अपना भविष्य संवारना चाहते हैं मगर बिहार का नहीं!

लंबे समय तक परीजीवी की भूमिका में जीते-जीते उनके अंदर का आत्मसम्मान मट्टी पलीद हो चुका है। वे भले ही हर चुनाव में किसी-ना-किसी दल या गठबंधन को बिहार के नेतृत्व के लिए चुन लेते हैं मगर उससे अधिक उम्मीद नहीं पालते हैं।

उन्हें पता है कि बिहार की राजनीति नहीं, बल्कि उनकी परिजीविता ही उनकी कई समस्याओं का समाधान कर सकती हैं। यही मूल्यबोध उसे बतौर नागरिक अपने अधिकारों का क्लेम भी करने नहीं देती। ना ही उसके अंदर सचेत नागरिक बनने का एहसास कराती है। वह अपने और अपने राज्य की हर समस्या को अपनी नियति मानकर ही जीवन जीता है या बेहतर जीवन की तलाश में प्रवासी बिहारी बन जाता है।

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