Site icon Youth Ki Awaaz

क्या विकास के नाम पर भयावह त्रासदी की ओर बढ़ रहा है उत्तराखण्ड?

प्रदूषण का बढ़ता स्तर महानगरों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि कभी अपने स्वस्थ्य एवं स्वच्छ पर्यावरण के लिए पहचाने जाने वाले हिमालय की सरज़मीं वाले राज्य उत्तराखंड को भी खतरनाक रूप से लील रहा है।

यदि उत्तराखंड पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की मानें, तो पिछली दीपावली के बाद से राज्य के कई क्षेत्रों में प्रदूषण का स्तर बहुत खराब स्थिति तक पहुंच चुका है। पिछले साल हवा में पीएम 10 और पीएम 2.5 की मात्रा में 25 से 30 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज़ की गई है।

हवाओं में खतरनाक गैसों की मात्रा बढ़ चुकी है

मामला केवल पीएम 10 और पीएम 2.5 का ही नहीं है, राज्य की हवाओं में सल्फर-डाइ-ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड की मात्रा भी खतरनाक तरीके से बढ़ी है।

इसके अलावा ध्वनि प्रदूषण ने भी राज्य की आबोहवा को भारी नुकसान पहुंचाया है। पर्यटन और तीर्थाटन के नाम पर मोटर गाड़ियों की लगातार आमद और स्थानीय लोगों द्वारा भी भारी संख्या में वाहन की खरीदारी और उन वाहनों से निकलने वाले धुएं ने राज्य को प्रदूषित कर दिया है।

पर्यटन और तीर्थाटन के अलावा उत्तराखंड में प्रदूषण बढ़ने का एक प्रमुख कारण राज्य के विकास के लिए जारी दौड़ में अंधाधुंध तरीके से शामिल होना भी है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

उसके लिए औद्योगिकीकरण के नाम पर उत्तराखण्ड में तेज़ी से स्थापित होते कल-कारखाने और उनसे निकलने वाला ज़हरीला धुंआ और कल कारखानों से प्रदूषित जल की निकासी ने वातावरण को दूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उद्योगों का यह प्रदूषण एक ऐसा कारक है जो हवा और पानी दोनों को समान रूप से प्रदूषित कर रहा है।

राज्य के ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां उद्योगों से निकलने वाले धुएं और प्रदूषित जल तय मानकों से कहीं अधिक खतरनाक रूप धारण कर चुके हैं। जिससे आस-पास बसी इंसानी आबादी के साथ-साथ पशु-पक्षी भी प्रभावित हो रहे हैं।

कई मूल्यवान वनस्पतियां लुप्त हो रहीं हैं, कई जीवों की प्रजातियां भी अपने अस्तित्व के खतरे झेल रहीं हैं। तथाकथित विकास के उन्माद में डूबी सरकार और स्थानीय प्रशासन दोनों ही इस गंभीर मुद्दे पर खामोश हैं।

लालकुंआ स्थित सेंचुरी पल्प एंड पेपर मील एक निकृष्ट उदाहरण

उत्तराखंड का प्रवेश द्वार कहे जाने वाले लालकुंआ स्थित सेंचुरी पल्प एंड पेपर मील एक निकृष्ट उदाहरण है। स्थानीय लोगों का कहना है कि मील द्वारा भूमिगत जल का बेतहाशा दोहन करने के अलावा ध्वनि, वायु तथा जल प्रदूषण असहनीय स्तर तक फैलाया जा रहा है।

इसके प्रदूषण से आसपास के क्षेत्रों के लोग विभिन्न बीमारियों की चपेट में आ गए हैं, जो असमय मौत के मुंह में समाए जा रहे हैं। वहीं पर्यावरण संतुलन में प्रमुख भूमिका निभाने वाले कई कीट-पतंगों की प्रजातियां भी इसकी भेंट चढ़ चुकी हैं या लगभग समाप्त होने के कगार पर हैं।

विकास के नाम पर उत्तराखण्ड की पर्यावरण तबाही को पूरे प्रदेश में ना केवल नंगी आंखों से देखा और महसूस किया जा सकता है, बल्कि प्रदेश के निवासियों से बातचीत में उसकी पुष्टि भी की जा सकती है।

पहाड़ी राज्य में पर्यावरण को तबाह करने के लिए प्रत्येक संभव हथकण्डे, प्रत्येक जोड़तोड़, हर तरह के झूठ और हर तरह की अपराधिक मक्कारी का उपयोग किया गया है।

ना केवल औद्योगकी विकास और पर्यटन के नाम पर, बल्कि देश की सुरक्षा की आड़ में और सैन्य, सांप्रदायिक और कॉरपोरेट गठजोड़ के नाम पर भी दुनिया के सबसे युवा, संवेदनशील और एक तरह से अपने शैशवकाल से गुज़र हिमालय की बेहद नाज़ुक परिस्थितिकी पर हमला किया गया है और किया जा रहा है।

इस सैन्य, सांप्रदायिक और कॉरपोरेट गठजोड़ की तबाही का सबसे बड़ा उदाहरण मोदी सरकार की अति महत्वकांक्षी योजना चारधाम सड़क परियोजना है। इस परियोजना को पूरा करने के उन्माद में केन्द्र और राज्य सरकार ने तमाम पर्यावरण नियमों को ना केवल ताक पर रखा है, बल्कि उन्हें छुपाने के लिए अपराधिक किस्म की चालाकी और मक्कारी भी की है।

यह बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को आपस में चौड़ी और हर मौसम में खुली रहने वाली सड़क से जोड़ने की परियोजना है। जिसे ‘ऑल वेदर रोड’ भी कहा जाता है। चौड़ा रोड किसी क्षेत्र के विकास के लिए अनिवार्य शर्त हो सकती है लेकिन जंगलों और हिमालयी पहाड़ों की अंधाधुंध बर्बादी को विकास का नाम नहीं दिया जा सकता है।

“हिमालय रूठेगा तो देश टूटेगा”

हिमालय कोई हमारी सरहदों की रक्षा करने वाला प्राकृतिक नायक भर नहीं है, उससे हमारे मौसम, हमारा पर्यावरण, हमारी गर्मी, हमारी बरसात सब कुछ तय होता है। पहाड़ियों में एक कहावत प्रसिद्ध है कि “हिमालय रूठेगा तो देश टूटेगा।”

यह टूट किसी हमलावर के हमले की टूट नहीं हमारे मौसमों, हमारे पर्यावरण, हमारी परिस्थितिकी की टूट है। इस टूट से पूरे देश के जीवन पर कहर टूट सकता है। आप सड़कों के विकल्प ढूंढ सकते हैं अथवा उनके लिए इंतज़ार कर सकते हैं लेकिन सैंकड़ों साल पुराने जंगलों के विकल्प नहीं तलाश कर सकते।

उन जंगलों को नए पेड़ लगाकर दोबारा नहीं पा सकते। यह पुराने पेड़, उनकी वनस्पतियां, वह मिट्टी का स्वरूप, उनसे प्रभावित होकर बनी हवा, नमी और उस नमी और खास मिट्टी की ज़मीन से झांकते नन्हें अनेकों फूल, पहाड़ों की किसी नम फिसलन और पेड़ों के बीच से गिरते परंपरागत जल-स्रोत रूपी झरने, हज़ारों साल में बनी घाटियां, उनकी खास बनावट और उनका अनंत विस्तार, यह सब कुछ दोबारा से नहीं पाया जा सकता है।

क्या यह सब सरकार की अति महत्वकांक्षा की भेंट चढ़ने वाला है?

नरेन्द्र मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना की लंबाई लगभग 900 किलोमीटर है जिसमें से लगभग 400 किलोमीटर तक सड़कें चौड़ी की जा चुकी हैं। अभी तक 400 किलोमीटर की परियोजना पर ही काम हुआ है लेकिन यह काम 25 हज़ार से ज़्यादा पेड़ों की कुबार्नी ले चुका है।

दुनिया भर के पर्यावरणविद इस पर चिंतित हैं और विलाप कर रहे हैं, जो हिमालय के पर्यावरण की बर्बादी और पर्यावरण को बचाने के लिए बने नियमों की एक साथ टूटते जाने की दुहाई दे रहे हैं लेकिन सरकार का विकास उन्माद है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा है।

महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए किस प्रकार नियमों को बेहद अपराधिक तरीके से बदला जाता है या कहें कि उनका कितने मक्कारीपूर्ण तरीके से दुरूपयोग होता है। उसका सटीक उदाहरण यह परियोजना है। पर्यावरण नियमों के अनुसार किसी भी 100 किलोमीटर से अधिक लंबी सड़क परियोजना का निर्माण बगैर पर्यावरण अनापत्ति के नहीं किया जा सकता है।

ऐसी किसी भी परियोजना के पर्यावरण प्रभाव का आंकलन कराना होता है लेकिन यहां सरकार ने इन रूकावटों से बचने का तरीका निकाला है कि एक सड़क परियोजना को 53 हिस्सों यानी 53 परियोजनाओं में बांट दिया गया। ताकि प्रत्येक परियोजना 100 किलोमीटर से कम रहे और उसे किसी अनापत्ति अथवा पर्यावरण प्रभाव आंकलन करवाने की ज़रूरत ही ना पड़े।

इन्वॉयरन्मेंटल क्लियरेंस की दरकार नहीं: सरकार

यह परियोजना उत्तरकाशी की भागीरथी घाटी के पर्यावरणीय लिहाज़ से संवेदनशील उस क्षेत्र से भी गुज़रेगा जिसे इको सेंसेटिव ज़ोन घोषित किया जा चुका है। सड़क निर्माण का मलबा बड़े पैमाने पर नदी घाटियों में ही डंप किया जा रहा है।

चार धाम प्रोजेक्ट के तहत 15 बड़े पुल, 101 छोटे पुल, 3596 पुलिया और 12 बाइपास सड़कें, बनाई जाएंगी। सरकार ने संसद में एक सवाल के जवाब में स्वयं भी माना है कि इस प्रोजेक्ट को इन्वॉयरन्मेंटल क्लियरेंस की दरकार नहीं है, क्योंकि इसके 53 खंडों में से कोई भी 100 किलोमीटर से अधिक नहीं है।

इस परियोजना को जहां चारधाम पुनरूद्धार परियोजना के रूप में पेश किया जा रहा है, तो वहीं इससे चीनी सीमा तक आसान पहुंच बनाने के तर्क भी दिया जा रहा है। मोदी सरकार के लिए यह परियोजना कितनी महत्वकांक्षी है उसे इससे समझा जा सकता है कि मई के आखिरी सप्ताह में पीएम मोदी ने शक्तिशाली ड्रोन कैमरों से परियोजना पर जारी कार्य को देखा और उसकी पूरी जानकारी ली।

करीब 12 हज़ार करोड़ रुपए की और लगभग 900 किलोमीटर की सड़क चौड़ीकरण वाली इस परियोजना को अगले साल मार्च तक पूरा करने का लक्ष्य था।

पिछले साल लोकसभा में सरकार ने बताया था कि मार्च, 2020 तक सामरिक, कारोबारी और पर्यटनीय महत्त्व का यह नेटवर्क तैयार हो जाएगा। सड़क निर्माण में महारथ रखने वाले सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी इसे उत्तराखण्ड का विकास सूचक बता चुके हैं।

सरकार का दावा क्या है?

यह सड़क नेटवर्क, पहाड़ी राज्य के विकास को नई गति देगा और देखते ही देखते उत्तराखंड एक स्मार्ट, जीवंत, हाईफाई राज्य हो जाएगा। हालांकि कुछ सरकारी दावे कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक आज़माए गए। तमाम तथाकथित विकास दावों के बार-बार दोहराए जाने वाले जुमले ही हैं, मसलन “ऑल वेदर रोड” से राज्य की उन्नति होगी, पर्यटन बढ़ेगा, गरीबी दूर होगी, निवेश आएगा आदि।

हालांकि सरकार ने इस सड़क परियोजना को पूरा करने के लिए एक सांप्रदायिक, कॉरपोरेट और सैन्य राष्ट्रवाद का नैरेटिव गढ़ा और लोगों तक पहुंचाया है कि सड़क निर्माण, चारधाम तक आसान पहुंच, कॉरपोरेट पूंजी, बड़ा निवेश और सीमाई सुरक्षा के लिए ज़रूरी है।

बहरहाल सवाल यह है कि राज्य के निर्माण से लेकर अभी तक अथवा पहले भी जो विकास उत्तराखण्ड में हुआ है, उससे इस पहाड़ी राज्य के निवासियों को कितना हिस्सा मिला है? पर्यटन के काम आने वाली कितनी इमारतें होटल आदि हैं जिनका मालिकाना स्वामित्व उत्तराखण्ड निवासियों के पास है? क्या इस पहाड़ी राज्य से नौजवानों का पलायन थमा है।

उत्तराखण्ड के पहाड़ों में एक पुरानी कहावत और है कि पहाड़ का पानी और पहाड की जवानी कभी पहाड़ के काम नहीं आती। यह केवल कहावत नहीं उत्तराखण्ड की वास्तविकता है। भगीरथी नदी के पानी को पीने का सपना एक दिल्लीवासी तो पाल सकता है लेकिन भगीरथी के आसपास के गाँवों में स्थानीय लोगों को अक्सर पेयजल के इंतज़ाम के लिए कोसो दूर जाना पड़ता है।

अंधे विकास ने परम्परागत जल स्रोतों को सुखा दिया लेकिन नदियों के राज्य में आसपास के गाँवों की प्यास बुझाने के लिए सरकार ने कोई माकूल वाटर लिफ्टिंग प्रणाली विकसित नहीं की। यानी पेयजल की कोई व्यवस्था अधिकतर गाँवों के लिए नहीं की है।

फिर सवाल वही है किसका विकास, किसके लिए चौड़ी सडकें? लेकिन यहां विकास के लिए हो रहे निर्माणों से उठती धूल की मोटी चादर और क्रेनों, जेसीबी के शोर वास्तविक सवालों की आवाज़ों को दबा दिया है।

इस चार धाम सड़क परियोजना के अलावा सरकार श्रीनगर तक रेल परियोजना को भी मंज़ूरी दे चुकी है। उत्तराखण्ड के विकास का लाभ किसे मिलेगा? पुराने अनुभवों के आधार पर इसे समझने में कोई अधिक मुश्किल नहीं है लेकिन यह तय है कि अब आने वाला समय इस पहाड़ी राज्य के लोगों और बेहद नाज़ुक परिस्थितिकी वाले हिमालय के लिए संकटों से भरा है।

Exit mobile version