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कोरोना काल में कैसे स्टूडेंट्स को परीक्षा रूपी डंडे से हांक रहा है मानव संसाधन विभाग

शरीर के किसी अंग में यदि चोट लग जाए तो हम एक गोली लेकर उसे ठीक कर सकते हैं लेकिन अगर स्टूडेंट्स का दिमाग प्रतिदिन कोरोना के खौफ और एग्ज़ाम के प्रेशर से लड़े तो उसका इलाज कैसे होगा?

हमने पढ़ा है कि मवेशियों को पशु चालक या उनके मालिक अपनी एक छड़ी के बलबूते हाक देते हैं और अपनी मर्ज़ी के अनुसार उनके ऊपर नियंत्रण रखते हैं ताकि वे इधर-उधर ना चले जाएं। 

इसी प्रकार अभी के समय में पूरा विद्यार्थी वर्ग अलग-अलग विभागों में पशु के समान पढ़ाई कर रहा है। कोई इंजीनियरिंग फाइनल ईयर में है, तो कोई बीए फाइनल ईयर में है, तो कोई बीएससी फाइनल ईयर में। मानव संसाधन विभाग ठीक वही पशु चालक (उनके मालिक) के समान विद्यार्थी रूपी पशुओं को परीक्षा रूपी डंडे से हाक रहा है।

कुछ दिन पहले मानव संसाधन विभाग द्वारा यह निर्णय लिया गया कि विद्यार्थियों की परीक्षा जो जुलाई महीने के अंत तक लेना था, वह अब 30 सितंबर के अंदर ले लेना है। परीक्षा कैसे लिया जाए इसका निर्णय विश्वविद्यालय स्वयं अपनी सुविधा के अनुसार ले सकता है मगर यहां कुछ सवाल उठते हैं।

कुछ बेहद ज़रूरी सवाल

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

कोरोना विश्वव्यापी महामारी के दौर में जहां एक तरफ लोग अपनी ज़िन्दगी बचाने में लगे हैं, वहीं दूसरी तरफ विद्यार्थियों के सामने उनकी आगामी परीक्षा एक विकराल दैत्य का रूप धरकर प्रकट हो गया है।

इस दैत्य से मानसिक तौर पर कैसे लड़ा जाए, यह ना तो प्राइवेट स्कूलों में कभी पढ़ाया गया और सरकारी स्कूल की तो बात ही छोड़िए।

यह तो सभी को पता ही है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था बहुत ही नाज़ुक स्थिति पर है और अगर हम स्वास्थ्य सुविधा की बात करें तो वह खुद वेंटिलेटर पर सांस ले रहा है। इसका ज़िम्मेदार कौन है? पिछली सरकार, मौजूदा सरकार, आम जनता या फिर विद्यार्थी वर्ग जो पढ़ना चाहता है आगे बढ़ना चाहता है।

खैर, यह समय किसी को दोष देने का नहीं है। यह समय है मिलकर साथ चलने का मिलकर साथ लड़ने का लेकिन जब कुछ बुद्धिजीवी अपनी एसी नुमा कमरे में बैठकर लाखों बच्चों के भविष्य को दांव पर लगा रहे हों तो इसकी जवाबदेही किसकी है?

वैसे भी इसकी क्या गारंटी कि जो लोग इस वर्ष ग्रेजुएट होंगे उनको सरकार नौकरी ज़रूर देगी या यूं कहें कि वे कम-से-कम अपनी जेब खर्च तक भी निकाल पाने में सफल होंगे!

आखिर केरल की घटना से हमने क्या सीखा? यदि नहीं तो क्यों?

केरल में कुछ दिन पहले कुछ स्टूडेंट्स का एग्ज़ाम लिया गया और वे सभी पॉज़िटिव पाए गए। तो प्रश्न यह उठता है कि परीक्षा कैसे होगी? कुछ विश्वविद्यालय अपने बच्चों से ओपन बुक एग्ज़ामिनेशन के माध्यम से परीक्षा ले रहे हैं, तो कुछ मल्टीपल चॉइस क्वेश्चन देकर बच्चों की बुद्धिमता को माप रहे हैं।

लेकिन जो बच्चा कंटेनमेंट जोन में है या जिसके एक किलोमीटर दूरी तक कोरोना की भयवहता हो, उस बच्चे की मानसिक स्थिति के बारे में कौन बात करेगा? क्या सच में वह बच्चा अपने एग्ज़ाम के लिए पढ़ सकेगा?

लेकिन जब सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग मानसिक स्थिति को महज़ किताबी ज्ञान समझकर अपना निर्णय बच्चों पर थोप रहे हैं और मीडिया के सामने आकर यह कहें कि हम विद्यार्थियों की परेशानियों के बारे में सोच रहे हैं, फिर तो इससे बड़ी चिंता की बात और कुछ नहीं होगी।

कोरोना का खौफ किस तरीके से विद्यार्थियों को मानसिक रूप से बीमार बना रहा है, इस बारे में सबको पता है। तभी तो विद्यार्थी का एक खेमा सुप्रीम कोर्ट में अपनी अर्ज़ी लेकर पहुंचा है।

तो सोचिए की ऐसी स्थिति में जहां बाहर केवल मरघट दिखता हो और साथ ही परीक्षा रूपी दैत्य विद्यार्थियों के सर पर तांडव कर रहा हो, तो उनकी मानसिक स्थिति का आकलन कौन-सा मशीन करेगा।

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