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“सड़क-2 का विरोध करना यानि कि फिल्म से जुड़े हर व्यक्ति के रोज़गार पर प्रहार करना”

नेपोटिज़्म या फिर वंशवाद कहकर सड़क-2 को ना देखने का प्रण करके आप कर क्या रहे हैं? अपने अज्ञानता का परिचय ठीक वैसे ही देने का काम कर रहे हैं, जैसे लॉकडाउन और नोटबंदी का समर्थन करके आपने दिया।

शुरुआत में समर्थन की जगह सवाल पूछते कि अर्थ तंत्र के वैकल्पिक उपाय क्या किए गए हैं? तब अधिक बेहतर होता।

ज़रूरी नहीं कि जहां भीड़तंत्र चलने लगे वही सही है

दृष्टि का विस्तार करिए, अपने अहम से बाहर निकलिए और सरकार के जिस निजीकरण का समर्थन करते हैं, कभी उसकी तह में जाने की कोशिश करिए?

अर्थव्यवस्था की ट्रिकल डाउन थ्योरी से समझाता हूं- एक फिल्म किसी एक उत्पाद की तरह है। इसके निर्माण में जो पैसे लगते हैं, वे किराये पर गाड़ी चलाने वाले से लेकर स्टंट मैन यहां तक कि चाय वाले तक को मिलते हैं और ना जाने एक प्रोजेक्ट से कितने सारे परिवारों का गुज़ारा होता है।

इस तरह आपका निजी उद्यमी बेहतरीन उत्पादन और सेवा आपको देता है। आप फिल्म देखिए, कहानी समझिए, लेखन चरित्र, अभिनय और सिनेमेटोग्राफी सबका आंकलन कीजिए तब जाकर निर्धारित करिए कि फिल्म कैसी थी।

मीडिया द्वारा बनाए जा रहे विमर्श में आप और हम कहीं नहीं हैं। यह मध्यकालीन पुरोहिताई का दौर चल रहा है, जहां मीडिया अपने और सत्ता के अनुकूल वातावरण को बनाकर मूल मुद्दों से आपका और हमारा ध्यान हटाने में सफल हो रही है।

लॉकडाउन का विश्लेषण किया गया? नहीं! पैकेज का विश्लेषण हुआ? नहीं! रोज़गार पर चर्चा हो रही है? नहीं!

परन्तु टीआरपी के लिए सुशांत के अंतिम समय तक का नाट्य रुपांतरण कर मीडिया ने हमारी भावनाओं का दोहन किया है। वह भी केवल और केवल टीआरपी के लिए।

हवा में ये नए ज़माने के पुरोहितों के चक्कर में मत आइए, क्योंकि इनका घर तो चलना ही है। आप और हम जैसे लोग बड़ी मेहनत से ऐसी फिल्मों में काम पाते हैं और सपने संजोते हैं।

वंशवाद की इतनी ही चिंता है तो वंश आधारित विवाह संबंध, वंश आधारित सामाजिक रुतबा, वंश आधारित वर्ण जाति व्यवस्था, वंश आधारित धार्मिक रूचि और वंश आधारित सरनेम का कोई ठोस उपचार करिये।

कबिरा खड़ा बाज़ार में लिए लकूटी हाथ

जो घर जारे आपना चले हमारे साथ।

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