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“स्टूडेंट्स को परीक्षा के नाम पर संक्रमण की आग में झोंक देने वाला यह कैसा निर्णय?”

हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल यूनिवर्सिटी ने अपनी परीक्षाओं की तारीख निर्धारित कर दी हैं, जो 1 सितम्बर से होनी हैं। टाइम टेबल आ चुका है, नया पैटर्न भी आ चुका है। जिसमें ग्रेजुएशन के लास्ट सेमेस्टर के स्टूडेंट्स की 3 घंटे की परीक्षा के बजाए 1 घंटे की मल्टीपल चॉइस प्रश्नों वाला एग्ज़ाम होगा।

सब सेट है, वह भी तब जब राज्य में कोरोना मरीज़ों की संख्या 7000 से ऊपर है और मरने वाले 90. जबकि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू) ने 16 अगस्त से 31 अगस्त तक प्रवेश परीक्षाएं और उसके बाद आखरी सेमेस्टर की परीक्षाएं लेने का निर्णय किया है।

यह निर्णय तब आया है जब देश में कोरोना मरीज़ों की संख्या 18 लाख से अधिक हो चुकी है। खुद वाराणसी में प्रतिदिन सौ से अधिक नए मामले आ रहे हैं। ऐसे में देशभर से स्टूडेंट्स को परीक्षा के लिए बुलाकर संक्रमण की आग में झोंक देने वाला यह निर्णय क्यों?

स्टूडेंट्स और पेरेन्ट्स के लिए यह स्थिति डर का कारण बनी हुई है

यू.जी.सी. और एम.एच.आर.डी. द्वारा निर्धारित की नई गाइडलाइन्स के बाद सिर्फ ये दो नहीं, बल्कि देश के अनेक विश्वविद्यालयों ने परीक्षाओं की तैयारियां शुरू कर दी हैं। इससे स्टूडें के साथ-साथ अभिभावक भी तनाव में हैं। बढ़ती बीमारी के बीच बच्चों को परीक्षाओं के लिए भेजें, तो भेजें कैसे? जिस वक्त शिक्षण संस्थानों को अपने स्टूडेंट्स की जीवन रक्षा के लिए दीवार बनना था, वे मात्र मच्छरदानी बनकर स्टूडेंट्स को कोरोना के हवाले करने को तैयार हैं।

जब देश में सैकड़ों मामले थे तब स्टूडेंट्स को हॉस्टल खाली कर घर भगा दिया गया। अब जब बीस लाख होने को हैं, तो परीक्षा के लिए बुलाया जा रहा है। ऑनलाइन पढ़ाई के तरीकों का सही से प्रयोग कर पाना ना तो हर शिक्षक के लिए संभव है और ना ही स्टूडेंट्स के लिए। कहीं अच्छा इन्टरनेट नहीं है, कहीं बाढ़ है, कहीं लॉकडाउन और दिव्यांग स्टूडेंट्स के पास तो ऐसे समय में मदद का कोई सहारा ही नहीं है!

परीक्षा ना दें तो भविष्य चौपट होने का डर, अगर दें तो जान का खतरा

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Getty Images

स्टूडेंट्स के प्रति सरकार कितनी संवेदनशील रही है, इस बात से तो सब अवगत हैं मगर इस बार सरकारी निर्णय की चपेट में केवल कुछ विश्वविद्यालय ही नहीं, बल्कि देश के हर युवा स्टूडेंट्स हैं। परीक्षा ना दें, तो भविष्य चौपट होने का डर है और अगर दें तो जान का खतरा। जान और भविष्य के बीच में क्या चुनें? यू.जी.सी. का कहना है परीक्षाएं स्टूडेंट्स के शैक्षणिक भविष्य के लिए आवश्यक हैं।

अब जान के खतरे और महामारी से फैले मानसिक तनाव के बीच आधी-अधूरी तैयारी के साथ दी गई परीक्षा से यू.जी.सी स्टूडेंट्स का शैक्षणिक भविष्य कैसे बचाना चाहता है? इससे तो साफ दिखता है कि देश का शिक्षा तंत्र एक स्टूडेंट की जान की क्या कीमत समझता है। सुप्रीम कोर्ट ने परीक्षाएं रद्द करने के मामले को 10 अगस्त तक बढ़ा दिया है।

परीक्षाएं होंगीं या नहीं होंगी के बीच पिस रहे अंतिम वर्ष के स्टूडेंट्स के पास अभी ना परीक्षा होने का फाइनल निर्णय है और ना ही तैयारी करने के लिए पर्याप्त किताबें, क्योंकि अधिकतर स्टूडेंट्स तो होली की छुट्टियों के बाद से घर पर ही हैं।अब उनके पास इस भयानक महामारी में परीक्षा देने का मनोबल भी नहीं है। उनके पास है तो बस खौफ, तनाव और असमंजस कि “आखिर पढ़ाई करें या जान बचाएं?”

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