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“सांप्रदायिकता को छोड़कर अब आ गया है आगे बढ़ने का वक्त”

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राजनीतिक उठा-पटक, न्यायिक दाव पेंच के बाद आखिरकार राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के सात महीने बाद मंदिर की नींव पड़ गई। इक्के-दुक्के लोगों को छोड़ दें, तो लगभग सम्पूर्ण देशवासियों ने इसे सहजता और आत्मीयता के साथ स्वीकार किया।

बहरहाल अगले तीन वर्षो में इसका निर्माण पूर्ण होगा। मंदिर की नींव पड़ने के साथ-साथ अमूमन दशकों से चला आ रहा मंदिर-मस्जिद का विवाद और उसपर राजनीति अब धूमिल हो चुकी है।

प्रतीकात्मक फोटो

वैसे यही समझदारी देश और भारतीय समाज के लिए बेहतर मानी जा सकती है। 250 वर्ष पूर्व देखें तो हम पाएंगे कि सांप्रदायिकता का जो ज़हर अंग्रेज़ों ने हमारे बीच घोला था उससे परोक्ष-अपरोक्ष रूप से हमने खुद को काफी नुकसान पहुंचाया है। वक्त की मांग है कि अब इन नकारात्मक पदचिन्हों को त्याग कर, एक साथ देश और समाज के विकास में भागीदार बनें।

“धर्म की भावना, धामिर्कता को उत्पन्न करती है और धार्मिकता साम्प्रदायिकता और जब संप्रदायिकता में राजनीति का समावेशन होता है, तब यह दंगो में बदल जाता है। वृहद स्तर पर 1948 के या हालिया दिल्ली के दंगे, अगर देखा जाए तो साम्प्रदायिकता के दो कारक होते हैं पहला “शक्ति संघर्ष” और दूसरा “आपेक्षिक वंचना।”

पहला कारक मध्यकालिक कारकों में से एक

यह कारक मध्यकाल में ना केवल भारत में, बल्कि यूरोप जैसे देशो में भी अधिक प्रभावी था। ऑटोमन, तुर्क और ईसाइयों के मध्य 200 वर्षों का रक्त रंजित इतिहास किसे नहीं ज्ञात होगा। जब “हमारा धर्म-तुम्हारा धर्म” और “धर्म की श्रेष्ठता” की अवधारणा ने दंगे को युद्ध में परिवर्तित कर दिया। भारतीय महाद्वीप में भी इसका खासा प्रभाव था, एक समुदाय विशेष के शासक दूसरे समुदायों का शोषण किया करते थे।

कई प्रकार के धार्मिक करों का आरोपण हुआ करता था। सुखद बात यह है कि मौजूदा वक्त में इसका प्रभाव क्षीण हो गया है। खासकर भारत जैसे देश में जिसने विकट परिस्थितियों में भी खुद को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में ना केवल स्वीकार किया बल्कि उस पर अब तक खरा भी उतरा है।

इक्के-दुक्के संघटन निजी स्वार्थ की खातिर इस पर चोट करने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन भारतीयों ने सदा से उसका बहिष्कार या विरोध ही किया है।

दूसरा कारक “आपेक्षिक वंचना” प्रभावी कारक है

“आपेक्षिक वंचना” जिसे अंग्रेज़ों ने अपने फायदे के लिए जन्म दिया। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलनों के वक्त हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ने और कमज़ोर करने के लिए हिन्दू-मुस्लिमों के सामजिक और आर्थिक अंतरों को साम्प्रदायिकता के प्याले में परोसा और इसका चरम 1885 में कांग्रेस की स्थापना के साथ पहुंचा।

जब सर सैयद अहमद जो कभी हिन्दू-मुस्लिम को देश की दो आंख बताया करते थे, वह भी मुखर होकर हिन्दू-मुस्लिम की साझा राह को अस्वीकार कर बैठे।

अंग्रेज़ों ने जो हिन्दुओं की सामाजिक और शैक्षणिक बढ़त का डर दिखाया था, अब वह मुस्लिमों को घर करने लगी। सभी बड़े पदों पर हिंदुओ का कब्जा और मुस्लिमों के शोषण वाले ज़हर ने साम्प्रदायिकता का विकास किया और आपसी भाईचारे को धक्का लगा। हालांकि यह डर मुसलमानों के लिए वाजिब भी था लेकिन अपने अंदर सुधार के बदले अलगाव ने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

देखा जाए तो मुसलमानों के पिछड़े होने के पीछे हिन्दुओं का कोई हाथ नहीं था, बल्कि स्वयं मुसलमानों ने खुद को पाश्चात्य शिक्षा से दूर रखा था लेकिन अंग्रेज़ों ने इस विभेद को निजी स्वार्थ के लिए साम्प्रदयिक रंग दे दिया।

आज भी मुस्लिम समुदाय अन्य समुदायों की अपेक्षा पिछड़े हुए ही हैं। बहुसंख्यकों का डर दिखाकर, असुरक्षा का भाव दिखाकर हमारे राजनीतिक दलों ने भी अंग्रेज़ों की भांति ही उन्हें भुलावे में रखा और उनके विकास को बाधित किया है।

नकारात्मकता के पद-चिन्हों को पीछे छोड़ें

समय आ गया है कि नकारात्मकता के जिन पदचिन्हों का हम पीछा करते आ रहे हैं उससे हर समुदाय खुद को अलग कर लें। अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यको से डरने की नहीं सीखने और सामंजस्य स्थापित करने की ज़रूरत है।

बहुसंख्यको को अल्पसंख्यकों के तौर-तरीकों को सम्मान देने की और मौका परस्त राजनेताओं के प्रभाव में ना आने की आवश्यकता है। मंदिर निर्माण को जिस उत्साह से हमने स्वीकार किया उसी तरह मस्जिद निर्माण को भी उत्साह के साथ स्वीकार करें और भगीदार बनें।

यह भारतीय समाज के लिए एक अद्वित्य मौका है जब सबको आत्मसात कर एक नए भारत की ओर कदम बढ़ाया जा सकता है और नकारात्मक पद-चिन्हों को पीछे छोड़ा जा सकता है।

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