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वन्दे मातरम् के एक वंदना-गीत से लेकर नारा बनने तक का सफर

स्वतंत्रता दिवस समारोह की शाम भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने एक विवादित वीडियो पोस्ट किया। जिसमें समारोह के दौरान प्रधानमंत्री मोदी लालकिले की प्राचीर से नारे लगवा रहे हैं और अरविंद केजरीवाल चुपचाप बैठे दिख रहे हैं।

भारत और चीन के सैनिकों के बीच गलावन घाटी में हुई हिंसक झड़प के बाद पिछले महीने आचानक प्रधानमंत्री मोदी गलवान घाटी पहुंच गए। वहां जाकर उन्होंने घायल जवानों से मुलाकात की। उसके बाद निमु जाकर भारतीय सेना और आईटीबीपी के जवानों के उत्साहवर्धन के लिए “भारत माता की जय” और “वंदे मातरम्” के नारे भी लगाए।

बहरहाल इन सबके के बीच शायद कम ही लोग ऐसे हैं जो नारा लगाते समय ध्यान देते हैं कि “वंदे मातरम्” मूल रूप से वंदना गीत है। जो स्वाधीनता संग्राम के बीच और स्वाधीनता के बाद के दिनों में भी अक्सर विवादों में रहा है। इसे ठीक तरह से समझने के लिए हम इतिहास के पन्नों को पलटकर इसके एक गीत से नारा बनने और इससे जुड़ी कई और कहानियों को जानने का प्रयास करते हैं।

इतिहास के पन्ने क्या कहते हैं?

हम इतिहास की पड़ताल वर्तमान की दहलीज़ पर खड़े होकर करते हैं। चूंकि, वर्तमान भी गुज़रे हुए वक्त की एक छाया होता है। ऐसे में अतीत के विभिन्न परिपेक्ष्य और स्मृतियों को देखने से तमाम नए दरवाज़े खुलते हैं।

वंदे मातरम् साल 1870 के दशक के शुरुआती सालों में मूलतः वंदना गीत या स्तुति के रूप में रचा गया। यह अगले कुछ वर्षों तक अप्रकाशित रहा। साल 1881 में इसे “आनंदमठ” उपन्यास में शामिल किया गया। उपन्यास के भीतर के कथा-संदर्भ ने इस गीत को हिन्दू-युद्धघोष का स्वर दे दिया। असल मायने में यहीं से “मातृभूमि” की नई प्रतिमा का उदय भी हुआ।

“वंदना-गीत” से नारा कैसे बना?

स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में साहित्यकार अरविंद घोष “वंदे मातरम्” नामक एक पत्र का संपादन करते थे। यह क्रांतिकारी “जुगांतर पार्टी” का मुखपत्र था। उन दिनों यह पत्र इतना लोकप्रिय था कि जो लोग आंदोलन का हिस्सा नहीं थे वह भी इसे बड़े चाव से पढ़ते थे। अरविंद ने इसी पत्र से गीत को लोकप्रिय बनाने में मदद की।

यह गीत पन्नों से बाहर निकलकर लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गया। “वंदे मातरम्” समारोही गीत नहीं था, यह एकता की पुकार और राष्ट्रभक्ति की शपथ था। इसलिए यह नारे में तब्दील हुआ।

प्रतीकात्मक तस्वीर

अपनी लोकप्रियता के चलते साल 1905 के स्वदेशी आंदोलन में “वंदे मातरम्” राष्ट्रवादियों के लिए नारा बन गया था। कई राष्ट्रवादी क्रांतिकारी इसे अपना ‘मंत्र’ बताते है।। अरविंद घोष ने 1907 में लिखा कि यह “देशभक्ति के नये धर्म” का मंत्र है। जिसे ऋषि बंकिमचंद्र ने राष्ट्र को दिया है।

15 अगस्त, 1947 को भारत आज़ाद होने वाला था। आज़ादी के जश्न का समारोह 14 अगस्त की रात 11 बजे से ही शुरू हो गया और इस समारोह की शुरुआत में सबसे पहले वंदे मातरम् गाया गया। बहरहाल इसे अपने अस्तित्व के असल स्थान के लिए अभी इंतज़ार करना था।

“संविधान सभा में प्रस्ताव”

संविधान सभा के अध्यक्ष स्वयं राजेंद्र प्रसाद ने “जन गण मन” को राष्ट्रगान बनाने के लिए प्रस्ताव पेश किया। चूंकि यह प्रस्ताव स्वयं अध्यक्ष की तरफ से था इसलिए इसमें ना कोई बहस हुई और ना ही मतदान हुआ।

संविधान सभा के अंतिम सत्र के दिन अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने अपने पद से फैसला सुनाया कि “जन गण मन” राष्ट्रगान होगा। साथ ही, स्वाधीनता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाले गीत “वंदे मातरम्” को “जन गण मन” जितना ही सम्मान मिलेगा और इसकी हैसियत भी बराबर की ही होगी।

पीढ़ी दर पीढ़ी बदलते हैं कला और साहित्य के अर्थ

किसी रचनाकार की रचनाकर्मी स्वायत्तता के राजनीतिक इस्तेमाल की संभावना बराबर बनी रहती है, क्योंकि कोई कला-तथ्य अलग-अलग पीढ़ियों के लिए भिन्न-भिन्न अर्थ का हो सकता है।

जैसे, वंदे मातरम् का जो अर्थ अरविंद की पीढ़ी ने ग्रहण किया, वह अर्थ जवाहरलाल नेहरू, एम.ए. जिन्ना और वी.डी. सावरकर की पीढ़ी ने नहीं किया।

सरकारी स्कूलों में रोजाना वंदे मातरम् गया जाए

25 अप्रैल 1998 को उत्तर प्रदेश सरकार ने “कल्प योजना” नाम से एक आदेश जारी किया। जिसमें यह निर्देश था कि सरकारी विद्यालयों में रोज़ाना “वंदे मातरम्” गाया जाए। विरोध और तमाम गहमागहमी के बीच मुस्लिम अभिभावकों ने सरकारी स्कूलों से अपने बच्चों के नाम कटवाने शुरू कर दिए।

इस बात की जानकारी तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को हुई। उन्होंने नवम्बर 1998 में उत्तर प्रदेश का दौरा किया और घोषणा की कि मेरी जानकारी में ऐसा कोई आदेश नहीं जारी हुआ है। नतीजन 3-4 दिसम्बर की रात को मुख्यमंत्री ने अपनी अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय बैठक की और इस आदेश को वापस लेने का फैसला किया।

मुस्लिम लीग और मुसलमानों द्वारा वंदे मातरम् के विरोध का कारण देश को भगवान का रूप देकर उसकी पूजा करना था। वंदे मातरम् में भारत को देवी माँ का प्रतीक बनाए जाने के चलते आज भी मुस्लिम इसे लेकर असहज नज़र आते हैं।

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