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“नीतीश कुमार ने बिहार के लिए जो कुछ भी किया है, क्या वह बिहार मॉडल है?”

कहने को तो बिहार के “जंगलराज” को सुशासन के रास्ते पर लाने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 15 साल के अपने शासन में बिहार का कोई स्पष्ट मांडल विकसित करने में कामयाब नहीं हो सके।

जैसे- गुजरात मॉडल या अन्य मॉडलों की बात अक्सर चर्चाओं में उछलती रहती हैं। इसका कतई मतलब यह नहीं है कि उन्होंने कुछ भी काम नहीं किया है।

लोगों तक बिजली पहुंचाना और सड़कों का कमोबेश ठीक-ठाक इतंज़ाम कर देना कोई मॉडल नहीं होता है। यह वह ज़रूरी काम है, जो हर राज्यों को करना चाहिए।

हम इन सभी कामों को विकास के प्रति अपनी समझ का विस्तार मान सकते हैं। बहरहाल, इसे बिहार के विकास का मॉडल तो कतई नहीं मान सकते हैं, क्योंकि बिजली और सड़क की पहुंच का विस्तार करना बिहार की बड़ी आबादी के रोज़गार की समस्या का समाधान नहीं करता है।

उस विकास को पाने के लिए बिहार के लोग प्रवासी मज़दूर बनकर “बिहारी” शब्द का अपमान भी झेलते हैं। दो महीने बाद बिहार में विधानसभा के चुनाव होने हैं और यह बिल्कुल ही मुफीद समय है अपने तमाम राजनीतिक दल, गठबंधन या नेताओं से पूछने का कि पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?

बिहार कैसा हो? इसके बारे में तुम्हारे आइडिया और विज़न क्या हैं? बिहार में बिहार के लोगों का शिक्षा, रोज़गार और स्वास्थ्य को लेकर जो पलायन है, उसको रोकने के लिए आपके पास कोई ब्लूप्रिंट है क्या?

बिहारियों का पलायन आम से खास तक हर कोई करता है

बिहार में कई मूलभूत चीज़ों के लिए लोगों का पलायन होता है, जो कि एक सच्चाई है। डॉक्टर का बेटा भी आगे की डिग्री के लिए पलायन करता है और मज़दूर का बेटा अधिक मज़दूरी के लिए पंजाब से बेंगलुरु या पुणे चला जाता है।

यहां तक कि पूरा भारत मिलकर दुनिया के देशों में काम के लिए जाने वाले नौजवानों को नहीं रोक पाता है, जो अपने कान में इयरफोन लगाकर यह गाना सुनता है, “ये जो देश है तेरा स्वदेश है तेरा, है पुकारा।” सवाल उठता है कि बिहार को कैसे कोई रोक लेगा?

बिहार का पलायन इस लिहाज़ से अलग है कि यहां दुखों में चूर होकर लोग पलायन करते हैं। बिहार का किसान हताश होकर ज़िंदगी से पलायन नहीं कर रहा है, जैसे अन्य विकसित राज्यों के किसान करने को मजबूर हो रहे हैं। बिहार का किसान किसानी से हताश होकर मज़दूरी करने के लिए दूसरे राज्यों में पलायन कर रहा है।

बिहार को सबसे पहले अपने प्रशासनिक ढांचे मानव संसाधन को पेशेवर बनाना बेहद ज़रूरी है। ज़िला और ब्लॉक स्तर पर ही नहीं पंचायत स्तर कार्यालयों में काम करने की नई मानवीय नैतिकता का बहाल होना ज़रूरी है। जिससे योजनाओं को ज़मीन पर उतारा जा सके।

बिहार जैसे हिंदी प्रदेश के बच्चे हिंदी में भी पास नहीं हो पाते

गाँव से लेकर शहरों और कस्बों के स्कूलों में शिक्षक नाम की प्रजाति जो समाज में कभी बहुत आदरणीय हुआ करती थी, आज पढ़ाती ही नहीं है। अगर पढ़ाती भी या पढ़ाना चाहती भी है, तो वह इस चिंता में डूबी रहती है कि आज जिन स्टूडेंट्स को पढ़ा रहे हैं, वे पता नहीं किन कारणों से स्कूल-कॉलेज ही आना छोड़ दें।

बिहार में स्कूल-कॉलेजों में शिक्षा व्यवस्था के खस्ताहाल होने का एक नहीं, बल्कि हज़ार कारण हैं जिसको ना तो प्रशासन ने समझा और ना ही सरकारों ने उसके लिए कोई नीति बनाई।

हांलाकि समझने की कोशिशों के बाद पोशाक-साइकिल जैसी योजनाओं के निमार्ण से फायदा हुआ है मगर वह सब लंबे रेस का घोड़ा नहीं साबित हुआ। इससे अधिक बुरी रिपोर्ट क्या हो सकती है कि बिहार जैसे हिंदी प्रदेश के बच्चे हिंदी में भी पास नहीं हो पाते हैं।

बिहार के चुनाव में किसी भी नेतृत्व के पास बिहार का आर्थिक मॉडल विकसित करने से पहले बिहार के प्रशासन का मॉडल बनाना होगा। ऐसा प्रशासन, जो बिहार के पुराने दौर की यादों को समाप्त कर दे। 

नीतीश कुमार ने अपने सुशासन के नारों के दौर में कुछ काम किया भी है परंतु वह पारदर्शी, तटस्थ नहीं दिखा।

बिहार में इलाज और स्वस्थ होना तो बहुत दूर की बात है

बिहार नीतीश कुमार के सुशासन के दौर में चिकित्सा के मामले में किस मुहाने पर आकर खड़ा है, यह कोरोना महामारी जैसे लिटमस टेस्ट में दिख चुका है। सत्ताधारी दल यह भले कह रहे हैं कि कोरोना वैश्विक महामारी है और पूरे विश्व की स्वास्थ्य व्यवसथा चौपट हो गई है मगर बिहार की सरकारी चिकित्सा व्यवस्था को जनता के बीच कभी विश्वास हासिल नहीं हुआ।

इलाज और स्वस्थ होना तो बहुत दूर की बात है। पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने सात सुत्री वचन दिए थे जिसमें एक वचन घर में पीने का पानी पहुंचाने का था। चापाकल से मुक्ति और पाइप से पानी अच्छा कदम था लेकिन कितना सफल हुआ?

अगर इसका आंकलन भर ही बिहार की जनता स्वयं कर ले तो इसके बाद वह बाकी बचे सूत्रों का आंकलन भी कर सकेगी। यही नहीं, उसको कसौटी पर परखेगी भी।

मौजूदा कार्यकाल में ही नहीं, बल्कि पहले के कार्यकाल में भी नीतीश सरकार ने बिहार में उद्योग के लिए उद्योगपतियों को आकर्षित करने का प्रयास किया लेकिन वो अपने मकसद में सफल नहीं हो पाएं। थोड़ी बहुत सफलता मिली भी तो वह केवल भवन और पुल निमार्ण के क्षेत्र में।

बिहार में उद्योग लगने और बसने का एक सिस्टम विकसित करना होगा। उनको रेड कार्पेट जैसी सुविधा देनी होगी तभी वह बिहार के तमाम संसाधनों का इस्तेमाल कर सकेंगे।

बिहार में स्टूडेंट्स का जीवन भी उद्योग सरीखा ही है। माता-पिता की आकांक्षाओं में खड़े होने के लिए वहां के होनहारों का बरगद के पेड़ों से लेकर जर्जर हो रही इमारतों में समूह बनाकर पढ़ाई करना और तो और लड़कियों का साइकिल का झूंड बनाकर पढ़ने के लिए कोचिंग क्लास में जाना, साबित कर देता है कि यहां का युवा अपने आज को बेहतर कल में बदलने के लिए जी-तोड़ मेहनत करता है।

बहरहाल, भोजपुरी के अश्लील गानों और बिहारी शब्द के संबोधन मात्र से उनकी अस्मिता के उस आत्मविश्वास को तार-तार कर देता है जिसके डीएनए की डफली पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने बजाई थी और इस बार सुशांत सिंह राजपूत के नाम से बजा रही है।

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