Site icon Youth Ki Awaaz

“TV डिबेट के बाद राजीव त्यागी का यूं गुज़र जाना अप्रत्यक्ष रूप से उनकी हत्या है”

डिबेट्स , वाद-विवाद। प्रसांगिक तभी लगते हैं जब उनका निचोड़ सकरात्मक हो या फिर वह वाद-विवाद अपने लक्ष्य तक पहुंच रहा हो। किसी विकास के लिए वाद-विवाद चलता है। लोगों के विचारों के समकक्ष अपने विचारों को प्रसांगिक बनाना आसान काम नहीं होता लेकिन कोशिश यही होती है कि उस दौरान कोई फिजिकल एब्यूज और गाली-गलौज ना हो।

किस ओर जा रहे हैं टीवी डिबेट्स?

मगर आज के दौर पर वाद-विवाद का स्तर इतना नीचे चला गया है कि लोग अपनी जान से हाथ धो बैठ रहे हैं। यह बहुत ही कष्टदायक है। यह हमें गंभीर होकर इस विषय पर सोचने को मजबूर करता है कि टेलीविज़न डिबेट्स आखिर किस ओर जा रहे हैं।

हम आज हाल ही में हुए कांग्रेस के प्रवक्ता राजीव त्यागी जी के निधन के विषय में बात करते हैं। जो वाद-विवाद के दौरान दिल का दौड़ा पड़ने से आकस्मिक मौत का शिकार हो गए। उस समय वह टीवी पर चल रही वर्चुअल डिबेट का हिस्सा थे और घर में रहकर मीटिंग अटेंड कर रहे थे।

यशोदा हॉस्पिटल कौशाम्बी के सिनियर डॉक्टर पद्म पल सिंह ने बताया कि वह अपने घर से ही टीवी पर किसी मुद्दे को लेकर डिबेट कर रहे थे और उसी दौरान वह अत्यधिक उत्तेजित हो उठे और इस कारण उनके ह्रदय की गति रुक गई।

उन्होंने आगे बताया कि पूरे 45 मिनट तक हमने उनको हर तरह का लाइफ सिस्टम मुहैया करवाया साथ के साथ वेंटिलेटर पर भी रखा गया। मगर अनहोनी को कोई नहीं टाल सकता। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने एक बहुत ही प्रभावशाली प्रवक्ता खो दिया। जिसके वास्तव में हम सभी को दुःख है।

आखिर उस दिन डिबेट में क्या हुआ?

मैंने हाल ही में एक वीडियो देखा जिसमें आजतक के रोहित सरदाना जी के साथ संबित पात्रा और राजीव त्यागी जी का डिबेट चल रहा था। उसी दौरान एंकर ने उनकी बातों को ऐसे तोड़-मरोड़ कर पेश किया जैसे वह अपराधियों का साथ दे रहे हों।

यह वास्तव में दुःखद है। किसी की जान कि कोई कीमत ही नहीं है। वहीं संबित पात्रा ने जो भी अपना बयान दिया उसको वैसे के वैसे ही पेश किया गया। यहां तो साफतौर पर देखा जा सकता है कि वहां सिर्फ एक पक्ष की बात को अहमियत दी जा रही थी। जो मनुष्य न्याय परस्त होगा उसको अन्याय परेशान करेगा।

वह चर्चा बैंगलोर हिंसा के विषय में चल रही थी। भाजपा प्रवक्ता ने सरासर उनके अभिमान को ठेस पहुंचाया। साथ ही साथ उनके धर्म को लेकर भी आपत्तिजनक बात कही। उन्होंने कहा, “तिलक लगाने से कोई हिन्दू नहीं बन जाता आप अपने दिल पर तिलक लगाइए।”

यहां तक कि उनके हिन्दू होने पर भी सवाल उठाए गए। धर्म की भावनाओं पर ठेस लगने से सभी को बुरा लगता है। मगर यहां तो ज़हर उगलने का कारोबार-सा चल पड़ा है। जिस ओर देखो नफरत ही नफरत है।

क्या कर रहे हैं न्यूज़ चैनल्स?

लोग एक-दूसरे पर ऐसे कीचड़ उछालते हैं जैसे उनके पास इस समय सत्ता के द्वारा दी गई सारी सुविधा हो। यह एक शर्मनाक बात है। कहीं-न-कहीं न्यूज़ चैनलों पर यही आरोप लगे कि आप लोग दो समुदाय को लेकर आपस में झगड़वाने का काम करते हैं।

इन डिबेट्स में नफरत का पैमाना बहुत अधिक बढ़ गया है। ऐसे डिबेट्स हमारी आत्मा और हमारे मष्तिष्क पर बहुत गलत प्रभाव डाल रहे हैं। ऐसी प्रणाली को वैधता कौन देता है? यह तो पक्का है कि यह सुनियोजित तरीके से प्रसारित किया जा रहा है।

आज तक पर चल रही बहस की तस्वीर, तस्वीर साभार: ट्विटर

कुछ न्यूज़ चैनल्स स्क्रीन पर आकर बस अपने मनोरंजन और टीआरपी की रोटियां सेकते हैं चाहे कोई अपनी जान से हाथ धो बैठे। यह देश की जनता को बहकाने का एक प्रोपेगैंडा है। जो अपनी दयनीय स्थिति में आ पहुंचा है।

आज भी समय है कि हमें न्यूज़ चैनलों को देखना हमको बन्द कर देना चाहिए। क्योंकि यहां पर हकीकत को नहीं परोसा जा रहा है, बल्कि घटिया, अनारक्षित, त्रुटि से भरे और जानबूझकर भ्रामक रिपोर्टिंग के कई रूपों को समाहित किया जा रहा है जो निंदनीय है।

यह राजीव त्यागी की अप्रत्यक्ष रूप से हत्या है। न्यूज़ चैनलों ने एक तरह से लोकतंत्र की भी हत्या की है। डिबेट प्रोग्राम में अगर लोग चाकू या बंदूक से वार करने लगें, तो इस पर अचरज मत कीजिएगा क्योंकि यह हो रहा है। आज के डिबेट्स की कोई भी वीडियो देख लीजिए और एक दशक पहले की वीडियो उसमें आपको अंतर नज़र आ जाएगा।

हाल ही का मुद्दा लेते हैं। दिल्ली में कोरोना की स्तिथि से ध्यान को भटकाने के लिए सरकार ने यहां भी हिन्दू-मुस्लिम गेम खेलने से गुरेज़ नहीं किया और सारा ठीकरा जमातियों पर फोड़ डाला। इस जगह पर आकर एक प्रसिद्ध लेखक लियो टॉल्स्टॉय (1828 -1910) के विचारों की याद आती है।

“किसी देश को बर्बाद करना हो तो वहां के लोगों को धर्म के नाम पर आपस में लड़ा दो, देश अपने आप बर्बाद हो जाएगा।”

इन्होंने यह कितनी बड़ी बात बोल दी। यह महान लेखक थे और तकरीबन 100 साल बाद उनके द्वारा दी गई यह अवधारणा आज कितनी सार्थक होती नज़र आती है।

क्या कुछ बदलने वाला है?

मेरे मन में और यहां तक कि हर बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों के मन में यही सवाल होंगे कि राजीव त्यागी कि मौत के बाद क्या?

●टीवी डिबेट की जो यह संस्कृति है, क्या यह इस दुर्घटना के बाद बदलेगी?

●क्या यह विधि कभी लोकतांत्रिक बनेगी?

●क्या इसमें उनको जगह दी जाएगी जो सत्ता से सहमति नहीं रखते उनको मौका मिलेगा?

यह एक दुःखद समाचार है। आज के समय में देश किस ओर जा रहा है, मुझे यह सोचकर अब डर लगने लगा है। ऐसा लगता है देश ऐसी खाई कि ओर बढ़ रहा है जहां से वापस आने का शायद ही कोई रास्ता बचा हो। मैं बस अपने देश के हुक्मरानों से एक शेर के ज़रिए अपनी बात रख कर इस बात को अभी के लिए विराम देता हूं।

“तू इधर उधर की न बात कर ये बता कि क़ाफ़िला क्यूं लुटा
मुझे रहज़नों से गिला नहीं तिरी रहबरी का सवाल है।”

Exit mobile version