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क्या सच में सिर्फ परिस्थितियों के मुख्यमंत्री बनकर रह गए हैं नीतीश कुमार?

विश्व आज कोरोना महामारी से बुरी तरह जूझ रहा है और बिहार प्रदेश में चुनाव का बाज़ार गरम है। आलम यह है कि लॉकडाउन के मध्य मिल रही रियायतों में यदि दो-चार बिहारी भी कहीं जुट रहे हैं, तो कोरोना से ज़्यादा चर्चा आगामी विधानसभा चुनाव की हो रही है।

हालांकि बिहार में सबसे ज़्यादा विधायकों वाली पार्टी राजद और सबसे कम विधायकों वाली पार्टी लोजपा ने फिलहाल विधानसभा चुनाव नहीं कराने का प्रस्ताव रखा है, जो कि अभी चुनाव आयोग के पास लंबित है। बहरहाल, चुनाव अभी हों या कुछ समय बाद, इस बार यह देखना रोमांचक होगा कि बिहार की जनता किसे अपना मुख्यमंत्री चुनती है?

कौन हैं मुख्यमंत्री पद के दावेदार?

मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवारों में जो दो नाम सबसे ऊपर उभरकर सामने आते हैं, जिनके बीच सीधा मुकाबला होने के कयास लगाए जा रहे हैं वे हैं- वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव।

इक्का-दुक्का लोग दबी ज़ुबान में चिराग पासवान का नाम भी उछाल देते हैं। चिराग पासवान का नाम उछाला जाना इसलिए और भी स्वाभाविक लगता है, क्योंकि बीते दिनों में नीतीश कुमार से उनकी अनबन की खबरें आती रही हैं।  

बात नीतीश कुमार की

नीतीश कुमार। फोटो साभार- Getty Images

नीतीश जेपी के छात्र आंदोलन से निकले हुए नेता हैं। किसी ज़माने में लालू यादव के बेहद करीबी माने जाते थे मगर बाद में अलग हो गए। 2005 में भाजपा की मदद से बिहार के मुख्यमंत्री बने फिर 2013 में भाजपा से नाराज़ हो गए।

हुआ यूं कि भाजपा ने आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तब अपने चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष चुना था। यह वह दौर था जब नीतीश कुमार को नरेंद्र मोदी साम्प्रदायिक लगते थे।

उस बीच थोड़े दिनों के लिए जीतन राम मांझी भी मुख्यमंत्री बने मगर बाद में पार्टी आलाकमान ने उन्हें जदयू से बाहर का रास्ता दिखा दिया। 2015 में नीतीश ने राजद और काँग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और जीते। 2017 में तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों का हवाला देते हुए नीतीश ने महागठबंधन की सरकार गिरा दी और भाजपा के सहयोग से बिहार के मुख्यमंत्री बन गए। 

बात तेजस्वी यादव की

तेजस्वी यादव। फोटो साभार- सोशल मीडिया

लालू यादव के छोटे बेटे तेजस्वी इस वक्त बिहार के नेता प्रतिपक्ष हैं। 2015 में उपमुख्यमंत्री बनकर उन्हें इतनी लोकप्रियता नहीं मिली थी जितनी 2017 में नेता प्रतिपक्ष बनने पर मिली। देखा जाए तो काफी अरसे के बाद बिहार को इतना बेबाक नेता प्रतिपक्ष मिला है।

विधानसभा में खुलकर सरकार पर हमला बोलते हैं। सोशल मीडिया और इंटरनेट पर राजद को सुचारु रूप से आगे भी बढ़ाया है। युवाओं में अच्छी पकड़ है मगर आज के बुज़ुर्ग इन्हें कम पसंद करते हैं। 

हाल ही में इनकी पार्टी के पांच विधान पार्षद पार्टी का दामन छोड़कर जदयू में शामिल हो गए। 2019 के लोकसभा चुनाव में राजद का खाता तक नहीं खुला। पार्टी के वरिष्ठ नेता और उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह कई बार पार्टी छोड़ने का इशारा कर चुके हैं।

कयास लगाए जा रहे हैं कि विधानसभा चुनाव के ठीक पहले कई युवा और बुज़ुर्ग नेता राजद छोड़ देंगे। गौरतलब है कि मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में महागठबंधन की अन्य पार्टियों ने अभी तक तेजस्वी के ऊपर मुहर नहीं लगाई है।

बात चिराग पासवान की

चिराग पासवान। फोटो साभार- सोशल मीडिया

चिराग युवा हैं, मौसम विज्ञानी कहे जाने वाले राम बिलास पासवान के बेटे हैं और वर्तमान में लोजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। लोजपा ऐसे तो दलितों की पार्टी मानी जाती है मगर विगत कुछ वर्षों से पार्टी पासवान परिवार के वंशवाद के कारण सुर्खियों में रही है।

चिराग 2019 में लगातार दूसरी बार जमुई से लोकसभा सांसद चुने गए हैं। पिछले कुछ समय से चिराग नीतीश सरकार के काम काज के तरीके पर प्रश्नचिन्ह लगाते रहे हैं।

खबरों की मानें तो लोजपा जल्द ही बिहार सरकार से समर्थन वापसी की भी घोषणा कर सकती है लेकिन इससे सरकार पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है, क्योंकि फिलहाल बिहार में लोजपा के मात्र दो विधायक हैं। सूत्रों की मानें तो पटना में एक और नए समीकरण पर चर्चा हो रही है, जिसमें तेजस्वी मुख्यमंत्री और चिराग उपमुख्यमंत्री बनेंगे इस बात पर भी विचार हो रहा है। 

नीतीश की छवि क्राउड पुलर पॉलिटिशियन की नहीं

नीतीश कुमार। फोटो साभार- सोशल मीडिया

इन तमाम राजनीतिक अटकलों के बीच सबसे ज़्यादा जिस बात पर चर्चा हो रही है, वह बात यह है कि सूबे के मुखिया नीतीश कुमार को जनता कितना पसंद करती है। भाजपा और जदयू ने अपने-अपने स्तर से वर्चुअल रैली कर के प्रचार करना शुरू कर दिया है।

इन वर्चुअल रैली के ज़रिये भाजपा और जदयू युवा वोटरों को तो आकर्षित कर पाएगी मगर अधेड़ उम्र के या बुर्ज़ुर्ग वोटर इससे कितना जुड़ पाएंगे यह तो वक्त ही बताएगा। 

2015 में जब नीतीश चुनाव लड़े थे तो उनके पास राजद और काँग्रेस का समर्थन था। लालू भी तब जेल के बाहर थे और जहां भी सभा करने जाते थे, अच्छी खासी तादाद में लोग उन्हें सुनने जाते थे। नीतीश की छवि “क्राउड पुलर पॉलिटिशियन” की नहीं है।

इस बार का चुनाव अलग है। 2019 में पार्टी की धुआंधार जीत के बाद भाजपा नेताओं के हौसले बुलंद हैं। हालांकि गृहमंत्री अमित शाह यह बात साफ कर चुके हैं कि नीतीश ही इस चुनाव में एनडीए का चेहरा होंगे। इसके साथ ही एक और सच यह भी है कि अमित शाह और भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष जे पी नड्डा ने चिराग पासवान को इतनी छूट दे रखी है कि वह लगातार नीतीश पर हमलावर रहे हैं।

एक नया गणित यह भी लगाया जा रहा है कि भाजपा ज़रूरत पड़ने पर चिराग पासवान को दलित सीएम कैंडिडेट के रूप में प्रचारित कर के नीतीश का खेल बिगाड़ सकती है। एनडीए में सीटों के बंटवारे को लेकर खींचतान जारी है और ऐसे में भाजपा का पलड़ा अभी मज़बूत नज़र आता है। 

नीतीश परिस्थितियों के मुख्यमंत्री हैं- पूर्व सांसद डॉ. मो. शहाबुद्दीन

इस बात के लिए नीतीश सरकार की कुछ खामियों का भी अहम योगदान है। कुछ साल पहले बिहार के बाहुबली और राजद के पूर्व सांसद डॉ. मो. शहाबुद्दीन ने नीतीश कुमार पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि नीतीश परिस्थितियों के मुख्यमंत्री हैं। उनके इस बयान को लेकर तब काफी बवाल मचा था लेकिन नीतीश कुमार का हालिया प्रदर्शन देखें तो कई बार शहाबुद्दीन की यह बात सच ही लगती है।

रोज़मर्रा के कामकाज को जाने दें तो नीतीश कुमार कहीं से भी एक उम्दा सीएम कैंडिडेट नहीं नज़र आते। नीतीश की नाव विकास पर कम और राजद के जंगलराज के डर के बहाने ज़्यादा किनारे पर नज़र आती है।

2017 में जबसे नीतीश ने राजद और काँग्रेस से अलग होने का फैसला किया है, तबसे लेकर आज तक अगर देखा जाए तो “गुड गवर्नेंस” के नाम पर नीतीश कुछ खास काम नहीं कर पाएं हैं। 

मुज़फ्फरपुर बालिका गृह कांड नीतीश सरकार पर धब्बा

मुज़फ्फरपुर बालिका गृह कांड के बाद आक्रोश में प्रदर्शन करते लोग। फोटो साभार- Getty Images

मुज़फ्फरपुर बालिका गृह कांड को नीतीश सरकार पर लगे एक बड़े धब्बे के रूप में याद किया जाएगा। इस कांड के मुख्य आरोपी ब्रजेश ठाकुर स्वयं नीतीश के काफी करीबी बताए जाते रहे हैं। इस मामले ने ऐसा तूल पकड़ा कि इसकी सुनवाई के लिए केस को दिल्ली ट्रांसफर करना पड़ा।

यह किस तरह के सुशासन की सरकार है कि हस्तक्षेप के डर से आपको अपने राज्य के केस की सुनवाई के लिए दिल्ली जाना पड़े? इस कांड के बाद महिलाओं का विश्वास नीतीश सरकार में घटा है। ज्ञात हो कि इस मामले में बिहार सरकार की समाज-कल्याण मंत्री मंजू वर्मा को भी इस्तीफा देना पड़ा था।

मुज़फ्फरपुर चमकी बुखार को कोई नहीं भूल सकता

बिहार में चमकी बुखार के दौरान अपने बच्चों को गोद में लिए माता-पिता। फोटो साभार- सोशल मीडिया

गर्मी के मौसम में बच्चों को होने वाले एईएस यानि कि एक्यूट इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम जिसे आम बोलचाल की भाषा में चमकी बुखार कहा जाता है। यह बीमारी ज़्यादातर ऐसे बच्चों को होती है, जो कि पहले से ही कुपोषित होते हैं। यह बीमारी 1995 से लगातार बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के बच्चों को अपनी ज़द में लेती रही है।

2015 में बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइज़ेशन यानि WHO के साथ हाथ मिलाया। उसके बाद तैयार एक स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीज़र के तहत आशा कार्यकर्ताओं, आंगनबाड़ी सेविकाओं और इस तरह के तमाम प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा के कर्मचारियों को एक विशेष प्रकार की ट्रेनिंग दी गई थी।

इसका नतीजा यह हुआ कि 2015 से 2018 तक काफी कम बच्चों की मौत हुई। 2019 के मई और जून महीने में ही करीब 300 बच्चों की मौत चमकी बुखार से हो गई। स्वास्थ्य कर्मियों और सरकार पर लापरवाही का आरोप लगा। नीतीश सरकार तब मुज़फ्फरपुर के बच्चों को प्रचुर मात्रा में ओआरएस तक उपलब्ध नहीं करवा पाई थी।

बिहार सरकार जब आज के कोरोना काल के दौरान प्रदेश में लाखों टेस्टिंग होने का दवा करती है, तो मुझे हंसी आती है। चमकी बुखार से हुई मौतों के वक्त स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन मुज़फ्फरपुर गए थे और तब उन्होंने कहा था कि श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉस्पिटल मुज़फ्फरपुर में 100 बेड वाला पैडरिएट्रिक (बच्चों के लिए विशेष) यूनिट बनाया जाएगा जो कि आज तक तैयार नहीं हुआ। डबल इंजन की सरकार इस मोर्चे पर बुरी तरह फेल नज़र आती है। 

पटना में जलजमाव कहीं JDU के वोटर को ना बहा ले जाए

28 सितंबर 2019 को पटना में भारी बारिश हुई थी। उसके बाद लगातार एक हफ्ते तक पटना में बारिश होती रही जिसके कारण पटना में बाढ़ जैसी स्थिति आ गई थी। पूरा शहर इस बीच एक अघोषित लॉकडाउन में चला गया था। कई लोग इस बीच अपनी जान गवां बैठे थे।

इस जलजमाव का मुख्य कारण पटना शहर में सम्प हाउस इत्यादि की सही से व्यवस्था नहीं होना माना जाता है। पटना उच्च न्यायालय में इस समस्या को लेकर कई जनहित याचिकाएं दायर हुईं जिसका नतीजा यह निकला कि पटना नगर निगम और बिहार सरकार के कुछेक कर्मचारियों को निलंबित कर दिया गया।

नीतीश कुमार के डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी भी जलजमाव में फंसे हुए थे तब एनडीआरएफ की टीम ने उन्हें और उनके परिवार को निकला था। नीतीश कुमार तब बेहद मजबूर मुख्यमंत्री के रूप में देखे गए थे। 

कोरोना संकट से उभरता आक्रोश छीन सकता है सत्ता

इस कोरोना काल में पूरे देश से लगभग 50 लाख प्रवासी मज़दूर बिहार लौटे हैं। बिहार सरकार इन मज़दूर साथियों को वापस लेने पर ही तैयार नहीं थी मगर बाद में दूसरे राज्यों से पड़े दबाव और विपक्ष के लगातार हमले की वजह से सरकार अपने प्रवासी मज़दूरों को वापस लेने पर राज़ी हुई। उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी तब संसाधन की कमी का रोना रोते पाए गए थे। 

बिहार सरकार ने 1 जून से ही अपने सारे क्वारंटाइन सेंटर बंद कर दिए। जिसके कारण जब प्रवासी मज़दूर वापस लौटे तो उनकी सही ढंग से ना ही जांच हुई और ना ही उनके गाँव जाने में किसी तरह की रोकटोक हुई।

इसके बाद ही गाँवों में कोरोना का विस्फोट काफी तेज़ी से हुआ और जब समस्या बढ़ी तब कोरोना से निपटने की बिहार सरकार की आधी अधूरी तैयारियों का भी पता जनता को चला। एनएमसीएच और एम्स से ऐसे वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए कि देखने वाले की रूह कांप जाए।

भुखमरी से मौत

इस महामारी और लॉकडाउन में बिहार सरकार जनता को दो वक्त की रोटी भी दे पाने में सक्षम नहीं रही। गुजरात से कटिहार जा रही अरबिया खातून की मौत और आरा ज़िले के राहुल मुसहर की मौत भूख के कारण हो गई थी। बिहार के पीडीएस सिस्टम में जिस प्रकार की गड़बड़ियां हैं, उनसे यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल हो जाता है कि सरकार की मंशा राशन देने की है या राशन नहीं देने की!

बहरहाल, नीतीश बाबू यह है आपका सुशासन? पिछले 15 साल का रिकॉर्ड देखा जाए तो नीतीश कुमार एक तेज़ तर्रार मुख्यमंत्री से ज़्यादा रूटीन कर्मचारी अधिक लगते हैं। 

इसके साथ ही कई अन्य मुद्दे हैं जैसे कि बेरोज़गारी, नियोजित शिक्षकों को नियमित करने का मसला या बिहार में शिक्षा व्यवस्था का चरमरा जाना। नीतीश कुमार ज़्यादातर मुद्दों पर या तो असफल हैं या आदत के अनुसार मौन साधे हुए हैं।

बीच-बीच में विशेष राज्य वाला मुद्दा भी उठाते रहते हैं। इन सभी असफलताओं के बीच जनता कभी-कभी पप्पू यादव को भी याद कर लेती है, जो पटना में जलजमाव या अभी आई हुई बाढ़ की विभीषिका में जनता के बीच नज़र ज़रूर आते हैं। 

तेजस्वी भी इन दिनों बाढ़ ग्रस्त इलाकों का दौरा करते पाए जा रहे हैं। सच्चाई यही है कि जनता आज भी पप्पू यादव या शहाबुद्दीन सरीखे बाहुबलियों को भूली नहीं है। इसलिए नीतीश आज भी चुनाव जीत जाते हैं।

कल को हो सकता है नीतीश चुनाव जीत भी जाएं लेकिन उन्हें स्वयं विचार करना चाहिए कि जिस जंगलराज का राग अलापते-अलापते वह यहां तक पहुंचे हैं, पिछले 15 सालों में क्या उन्होंने वही राज नहीं दोहराया है?

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