शिक्षा धंधा नहीं देश के विकास का मानक है। एक डाक्टर या इंजिनियर बनाने के लिए स्टूडेंट्स के माँ-बाप अपनी सारी ज़रूरत समेटकर कोटा जैसी जगहों पर हर साल एक से डेढ़ लाख रुपए की फीस भरते हैं। ऊपर से मेस का गंदा खाना और 6 बाई 6 के माचिस की डिब्बी जैसे कमरे के लिए 15 से 20 हज़ार हर महीने भरते हैं, वो भी एडवांस में।
अपने बच्चे को एक साल कोटा जैसी जगहों पर पढ़ाने के लिए माँ-बाप किस-किस तरह की कुर्बानियां देते हैं, यह बात सोच के ही मन इतना इमोशनल हो जाता है कि बाॅडी में कपकपी मच जाती है।
बहुत सारे माँ-बाप अपने लिए त्याहारों पर कपड़े तक नहीं खरीदते हैं। माँ शादी ब्याह में जाना छोड़ देती हैं, क्योंकि नई साड़ी के पैसे नहीं होते। बाप की शर्ट फट जाए तो रफू करा लेते हैं। घर में राशन टाइम से आए या ना आए पर बच्चे को हर महीने टाइम पर पैसा देते हैं, क्योंकि वो नहीं चाहते कि बच्चे को मकान मालिक किसी तरह से तंग करें और उसकी पढ़ाई पर नकारात्मक असर पडे़।
ऐसे में, हर माँ-बाप का बस एक ही मकसद होता है कि उनका बच्चा आराम से पढ़-लिख सके, उनको सरकार से और कोई उम्मीद नहीं थी। उन्होंने सरकार से कभी शिकायत नहीं कि कोटा की फीस इतनी महंगी क्यों है, बल्कि परिस्थिति को स्वीकार किया और बच्चे को पढ़ाने के लिए दुनिया भर के कष्ट उठाते रहे लेकिन सरकार के एक फैसले ने एक झटके में सब कुछ बदल दिया।
सरकार क्यों नही कर रही है फैसले पर विचार?
सरकार ने फैसला लेते समय ना इन बच्चों का सोचा, ना ही इनके माँ-बाप का सोचा और ना मजदूरों-गरीबों का सोचा। यह फैसला इतना वाहियात था कि पांच सौ से भी कम कोरोना केस जो कि दिल्ली, मुंबई और केरल में मिले और लाॅकडाउन पूरे देश में लगा दिया।
फैसला लेने से पहले मोदी जी ने राज्य सरकारों से तैयारियों के लिए भी बात नहीं किया। बस हवाला दिया कि WHO ने हेल्थ इमरजेंसी घोषित कर दिया है जबकि WHO ने कभी नहीं बोला की कोरोना से निपटने का साल्यूशन देशव्यापी लॉकडाउन है।
खैर, लॉकडाउन लगने के बाद तमाम दिक्कतों को सहते हुए कोटा के सारे स्टूडेंट्स अपने घर आ गए। ऐसे में, ज़्यादातर स्टूडेंट्स का घर छोटा ही होता है, क्योंकि माँ-बाप सोचते हैं कि पहले बच्चे पढ़ लें घर, तो बाद में भी बन जाएगा। लिहाजा हर स्टूडेंट्स को अपने भाई-बहन के साथ कमरा शेयर करना पड़ता है।
इसके साथ एक मनोवैज्ञानिक फैक्ट यह है कि पीजी और हास्टल में रहने के कारण स्टूडेंट्स को घर वाले माहौल में रहकर पढ़ाई करने के लिए मेंटली प्रीपेयर होने में एक डेढ़ महीना लग जाता है। ऊपर से लॉकडाउन बढ़ने से परिवार की आर्थिक चुनौतियों से घर के माहौल में एक अनचाहा तनाव भी उभरने लगा।
अभिभावक और बच्चे दोनों हैं परेशान
जिनके माँ-बाप प्राइवेट सेक्टर में काम करते थे, उनकी तो कमर ही टूट गई। परिवार के ऐसे तनावपूर्ण माहौल में पढ़ाई कर पाना मुश्किल होता गया, मगर फिर भी बच्चों ने पढ़ाई जारी रखी लेकिन बच्चों की एफिसियंसी घट गई, एकाग्रता कम हो गई।
इन सब समस्याओं को लाख इग्नोर करने के बाद भी दिमाग पर एक अनचाहा मानसिक प्रेशर बढ़ता गया, जो कि पढा़ई करने वालों के मन में एक अलग किस्म का “कुछ ना कर सकने वाली” निराशा और बेचैनी भर देती है। अब ऐसी मानसिक अवस्था में कोई स्टूडेंट्स परीक्षा दें, तो उसका परिणाम क्या होगा यह बात शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल और प्रधानमंत्री मोदी को पता ही होगा।
बिहार और असम के बाढ़ प्रभावित इलाकों के स्टूडेंट्स की चिंता तो सरकार और मीडिया के विमर्श से ही गायब है। सरकार के लिए ये लाखों स्टूडेंट्स महज फेल होने वाले आंकड़े होगें लेकिन हकीकत में यह आंकड़े उन लाखों परिवारों की दुनिया होगी, जिसे सरकार के एक फैसले ने तबाह कर दिया होगा।
एक अच्छी सरकार वह होती है जो देश के अंतिम व्यक्ति के हितों को ध्यान में रखकर कोई फैसला लेती है। इसलिए मेरा प्रधानमंत्री मोदी से गुज़ारिश है कि इस परीक्षा तो स्थगित कर दीजिए और पार्लियामेंट में कोटा की और उसकी जैसी सभी कोचिंग संस्थानों को अगले एक साल तक फ्री में हर स्टूडेंट्स की फिर से तैयारी कराने का ऑर्डर पारित करवाइए।