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“क्या श्री राम के मंदिर निर्माण से कुछ हासिल होगा?”

जब भी देश में वास्तविक समस्याएं हुई हैं, राष्ट्र एकत्रित होकर पलायन करने में सफल रहा है। वर्तमान में भारत का आम जन जीवन अपने आर्थिक और भौतिक सीढ़ियों के अंतिम खाई में फंसा हुआ है। 1990 के पूरे दशक में राम मंदिर ने तमाम सामाजिक और राजनीतिक विमर्शों को एक अलग लबादा पहनाया।

हम आर्थिक समस्या और सामाजिक रचना करने की ओर अग्रसर होने ही वाले थे कि मंडल आयोग की सिफारिश के बाद ना केवल पिछड़े वर्ग को, बल्कि तथाकथित सामान्य वर्ग को भी 10% आरक्षण का प्रावधान नरसिम्हा राव की सरकार लेकर आई थी।

भारतीय राजनीतिक दलों का वोट बैंक बंट रहा था। ऐसे में राम आए और हमें एक किया। हमने तमाम आपसी भौतिक ज़रूरतों को राम के आगे न्यौछावर कर दिया। उस समय जब न्यायलय में समान्य वर्ग के आरक्षण का मुद्दा गया था, तो उसे यह कहकर नकार दिया गया कि  50% से अधिक आरक्षण नहीं हो सकता।

मुझे याद है जब भी कृष्ण जन्माष्ठमी होती थी, तो रात के समय मथुरा और वृन्दावन के कृष्ण पूजा का सीधा प्रसारण हमारे सरकारी चैनल पर होता था। किसी को कोई आपत्ति नहीं कहीं कोई सवाल नहीं! रथ यात्रा का सीधा प्रसारण हमारे सरकारी चैनल करते ही हैं। इस पर ना तो कोई सवाल खड़े किए जाते हैं और ना ही कोई आपत्ति होती है।

मैंने दूरदर्शन के नागरिक चार्टर को पढ़ा है, जिसके मुताबिक, “तकनीकी तौर से भारतीय सांस्कृतिक आयोजनों को दूरदर्शन भारत के एकीकरण स्त्री उत्थान और सामाजिक न्याय आदि के संदर्भ में दर्शा सकता है। उसका प्रसारण कर सकता है।” अब सिया-राम से बड़े एक्त्व वाहक कौन हो सकते हैं?

क्या राम और राम मय भारत अतीत के गौरव का वर्त्तमानिक भारत बन गया है? या यह मात्र एक पलायन है? यहां दो प्रश्न मेरे सामने आते हैं। क्या यहां अब 2014 के विकास पुरुष की छवि हिन्दू समर्थक या हिन्दू हृदय सम्राट में पूरी तरह तब्दीली लेकर आएगी?

या भारत अब एक संतुलित दृष्टि से सत्ता से प्रश्न पूछना शुरू करेगा कि तमाम योजनाओं के लिए जो बड़ी बड़ी घोषणाएं हुई हैं, उनका पैसा कहां गया?

भारत के प्रधानमंत्री राष्ट्रीय प्रसारण में पुरोहित के बगल में बैठकर भूमि पूजन का मंत्रोच्चार करते हैं। यह किस तस्वीर और तकदीर को आगे बढ़ाएगी?

हम अपनी नियति का सामना करने के लिए हमेशा नशे की खोज में रहते हैं। हमारी तर्क प्रणाली और भौतिक ज़रूरतें हमेशा से हमें चिंतन और कर्म के संयोजन के लिए प्रेरित करती हैं। दुनिया के तमाम सभ्यताओं ने यह यात्रा पहले भी देखी है।

तमाम प्रत्यक्ष ज्ञान किसी अप्रत्यक्ष सत्ता के आगे अक्सर दंडवत प्रणाम करता है। हम सब खुली आंखों से नींद के आगोश में आ जाते हैं, जो हमें सुखद अनुभूति देती है। हे राम! से जब श्रीराम का टकराव गुंजता हुआ सिया राम तक पहुंचता है, तो कबीर के राम कराह उठते हैं।

इस दौर में शायद ही कोई यह प्रश्न करने की हिम्मत करे कि श्री राम के मंदिर निर्माण से हासिल क्या होगा? या इस्लामिक जगत में भी शायद ही कोई पूछना चाहे कि क्या हमें धार्मिक मान्यताओं का लबादा त्यागकर एक आधुनिक समाज में आगे नहीं बढ़ना चाहिए? कब तक हम कुरान पाक के अनुचित विवेचनाओं का पाठ दोहराते रहेंगे? क्या हमें साथ मिलकर एक मानवीय तर्क प्रणाली पर आधारित समाज का निर्माण नहीं करना चाहिए?

हम में से कोई भी अपने धर्म या ईश्वर सम्बन्धित मान्यताओं पर शंकालु होने का जोखिम नहीं उठाना चाहते और ऐसे समय में तो बिलकुल नहीं जब भावनाओं और आवेशों का अतिरेक हिमालय पर्वत श्रृंखला की तरह नित नवीन विकट यात्रा के वृद्धिमान दौर में हो।

पूरा विश्व ईश्वर रुपी कल्पना की आड़ में सत्ता हथियाने में लगा है! ईश्वरीय गुणों को मानवीय स्वरुप देने वाला सनातन वैभव आधुनिक दौर में मध्यकालीन ना हो जाए, इस बात की आशंका बनी हुई है।

श्री राम को भारतीय मानस के जन-जन में मर्यादित उत्तम उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। रामानन्द सागर के रामायण ने पहले तो सबके अपने-अपने राम पराये किए और उसके बाद हमने उनके सौम्य स्वभाव को तीक्ष्ण किया।

इस पूरी यात्रा में राम ईश्वर से क्रोधित राजकुमार या संस्कृति वाहक की भूमिका में भी आए और अब फिर क्या उनकी वापसी सत्ता को मर्यादित तौर से संचालित करने वाले सम्राट के तौर पर होगी?

सीता मइया का भूमिगत होना क्या हमारी समस्याओं का भूमिगत होना सिद्ध होगा? राम नाम को उपनाम बनाकर अपनी शान में गुस्ताखी करने के लिए हम तैयार हैं क्या? सम्पूर्ण हिन्दू समाज यदि राम के आस्था में लबरेज़ होकर राम नाम धर लें तो मुझे यकीन हो जाएगा वास्तव में हम राम मय हैं।

सत्य यही है कि जिस पहचान को उजागर करने के लिए हम राम नाम के सरनेम का प्रयोग करते हैं, उस पहचान से इत्तेफाक भी रखते हैं। नहीं तो “मैं भी चौकीदार” का डिजिटल अभियान “मैं भी राम” या मेरा सरनेम भी राम से संचालित होता और एक भौतिक समस्या का भी अंत होता मगर हमें वर्ग बनाए रखने हैं, जातियां बनाई रखनी हैं! क्यों राम जी चलें राम राम।

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