भारत ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स 2020 में 153 देशों की सूची में 112वें स्थान पर है। यह जेंडर आधारित अंतर भारत के कक्षाओं में आसानी से देखा जा सकता है। आर्थिक तंगी, घरेलू काम में व्यस्तता और जल्दी शादी हो जाने जैसी वजहों से लाखों लड़कियां स्कूल नहीं जा पा रही है। जब शिक्षा के अपने मौलिक अधिकार की बात आती है, तो स्कूल ना जा पाने से देश में लड़कियों को अभी भी उस आज़ादी का अनुभव नहीं हो पा रहा है जो उनके पुरुष साथी उनके आस-पास रहकर करते हैं।
मध्याह्न भोजन योजना से लेकर बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ तक, शिक्षा प्रणाली में लड़कियों की भागीदारी बढ़ाने के लिए विभिन्न सरकारी नीतियों का मसौदा तैयार किया गया है। अब, नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 की शुरुआत के साथ, भारतीय शिक्षा प्रणाली एक महत्वपूर्ण परिवर्तन से गुज़रने के लिए तैयार है।
सीखने की मौजूदा प्रणाली में कुछ परिवर्तन सुझाए गए हैं जैसे किसी चीज़ को रटकर याद करने की पारंपरिक अवधारणा से दूर हटना, समग्र विकास पर अधिक ध्यान केंद्रित करना, पहले चरण से पाठ्यक्रम में व्यावसायिक प्रशिक्षण का एकीकरण और भविष्य में बच्चे और ज़्यादा तैयार रह सके इसके लिए डिजिटल शिक्षा का उपयोग करना।
एनईपी ज़रूर एक अच्छा आइडिया है लेकिन जिस देश में 100 में से केवल एक लड़की ही अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी कर पाती है। ऐसे में, एनईपी क्या सही मायने में देश भर में बच्चों, विशेषकर लड़कियों, के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में बताता है? इस महामारी के बीच सामने आया यह डिजिटल जेंडर डिवाइड सिर्फ मौजूदा स्थिति को आगे बढ़ा देने का काम करता है।
इस स्वतंत्रता दिवस यूथ की आवाज़ ने एनईपी पर मलाला फंड के साथ चर्चा की। इसमें नई शिक्षा नीति के उन पहलुओं पर बात की गई, जहां यह नीति सफल नज़र आती है और जहां यह भारत में गुणवत्ता शिक्षा में जेंडर असमामता को बताने में असफल रहती है।
हमने इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले चार विशेषज्ञों से बात की। इस दौरान इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश हुई कि क्या NEP 2020 भारत के कक्षाओं के संकट (#KakshaCrisis) को हल कर सकता है?
पैनल को यूथ की आवाज़ हिंदी के एडिटर प्रशांत झा द्वारा होस्ट किया गया। इस चर्चा में शामिल थे:
डॉ. ज्योत्सना झा, निदेशक, बजट और नीति अध्ययन केंद्र (CBPS),
श्रद्धा छेत्री, प्रमुख संवाददाता, टाइम्स ऑफ इंडिया,
केहान सान्याल, मुख्य शिक्षा अधिकारी, PEPNETWORK,
नेहा पार्ती, एसोसिएट डायरेक्टर, सेकेंडरी स्कूल, क्वेस्ट एलायंस।
डॉ ज्योत्सना झा ने पॉलिसी में असंगति और विस्तार की कमी पर डाला प्रकाश
मुझे लगता है कि नई शिक्षा नीति में सबसे बड़ी समस्या असंगति और विस्तार की है। इस असंगति के कारण, यह समझना बहुत मुश्किल है कि वास्तव में इस नीति का लक्ष्य क्या है? मैं वित्तपोषण का एक उदाहरण देती हूं।
इस बारे में केवल एक ही बात का ज़िक्र है कि हमारे सकल घरेलू उत्पाद का 6% शिक्षा पर खर्च किया जाएगा, जिसे हमारी नीतियां पिछले कई सालों से बताती आ रही हैं। लेकिन एनईपी 2020 इस बारे में कोई बात नहीं है कि यह फंड कहां से आने वाला है? इस स्तर की फंडिंग हासिल करने की दिशा में केंद्र और राज्य सरकारों के एक साथ काम करने का कोई खास प्रयास नज़र नहीं आता है।
यदि आप पिछले 5-6 सालों शिक्षा पर हुए खर्च को देखें, तो इसमें नाममात्र की वृद्धि हुई है लेकिन जब आप मुद्रास्फीति का हिसाब लगाते हैं, तो यह वास्तव में कम हो जाती है। जब आप एक संघीय प्रणाली और सहयोग के बारे में बात करते हैं, तो शिक्षा पर खर्च का 75-80% राज्यों द्वारा वहन किया जाता है।
इसलिए जब बजट बढ़ाने की बात करते हैं, तो क्या राज्यों से सलाह ली जाती है? नहीं, यह नीति संसद में प्रस्तुत नहीं की गई है। इस नीति को तैयार करने की प्रक्रिया में राज्य सरकार का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। एनईपी द्वारा किए गए वादे बहुत ही खोखले लगते हैं जब यह बात इसकी फंडिग पर आती है।
अब, अगर हम जेंडर के बारे में बात करते हैं, तो एक जेंडर इनक्लूज़न फंड है लेकिन मुझे यह बहुत ही सतही लगता है। ‘केंद्र द्वारा निर्धारित प्राथमिकताओं के लिए राज्य इस निधि का उपयोग कर सकते हैं’, इन शब्दों को देखकर कोई भी इसका अंदाज़ा लगा सकता है। जेंडर का मुद्दा सभी राज्यों के लिए अलग-अलग हैं।
यदि आप 1992 से नीति को देखते हैं, तो महिला समानता पर एक पूरा अध्याय है, जो पितृसत्ता और विभाजन के मुद्दों पर गहराई से बात करती है लेकिन नई शिक्षा नीति से इन मुद्दों के सभी संदर्भ गायब हैं।
यदि शिक्षा का अधिकार कानून शामिल किया गया है, तो NEP को शौचालय और अन्य बुनियादी ढांचे से संबंधित मुद्दों का उल्लेख करने की कोई आवश्यकता नहीं होगी – क्योंकि वे पहले से ही आरटीई के तहत आते हैं। कुल मिलाकर मुझे नीति से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं है।
श्रद्धा छेत्री ने पॉलिसी में सरकारी स्कूलों की ओर ध्यान देने के लिए कुछ ज़रूरी बातों का ज़िक्र किया
यदि आप दिल्ली में सीबीएसई की 10वीं की बोर्ड परीक्षाओं को देखते हैं, तो 1,64,000 लड़कों की तुलना में लगभग 1,44,000 लड़कियां ही परीक्षा में बैठीं। इसलिए हम यहां स्पष्ट रूप से एक अंतर देख सकते हैं, जिसे आप कक्षा 12वीं की बोर्ड परीक्षाओं में उपस्थित होने वाले लड़के और लड़कियों की संख्या में भी देख सकते हैं। अब जब हम उच्च शिक्षा की ओर बढ़ते हैं, तो यह आंकड़ें और भी बदतर होते जाते हैं।
इसलिए जब एनईपी सरकारी स्कूलों के बारे में बात नहीं करता है, तो कहीं न कहीं निष्पक्षता की कमी है और साथ ही छात्राओं के लिए अवसरों की भी कमी है। जब आप निजी स्कूलों और सरकारी स्कूलों में लड़कियों के नामांकन संख्या देखेंगे, तो आप स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि सरकारी स्कूलों में अधिक लड़कियों का नामांकन है। यदि आप सरकारी स्कूलों को बेहतर बनाने की बात नहीं करते हैं, तो फिर समानता कहां है? निष्पक्षता कहां है? और समान अवसर कहां हैं?
केहान सान्याल ने बताया कि कैसे एनईपी
एनईपी ने सकल नामांकन अनुपात को 26% से बढ़ाकर 50% करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। जहां एनईपी ने ‘उपयुक्त नामांकन’ का क्या मतलब है, यह ही नहीं समझाया।
क्या नामांकन का मतलब है कि छात्रों को उपकरण दिए जाएंगे, या इसका मतलब यह है कि सामान्य रूप से स्कूलों और विशेष तौर सरकारी स्कूलों में शिक्षण और शिक्षण में समग्र परिवर्तन कैसे होता है? एकमात्र जगह जहां एनईपी में कुछ हद तक जवाबदेही की ओर इशारा किया गया है, वह यह है कि कक्षा 3 तक बच्चों को मूलभूत साक्षरता दी जाएगी।
एक और महत्वपूर्ण दृष्टिकोण उन छात्रों की पहचान होगा जिनको बहुत पहले से कुछ विशेष ज़रूरतें हैं। एमएचआरडी में स्कूलों की जनगणना होती है लेकिन इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि किन ज़िलों को अधिक शिक्षकों की ज़रूरत है।
यदि यह जानकारी उपलब्ध नहीं है, तो हम हस्तक्षेप करने में असमर्थ हैं। इसलिए जब तक हमारे पास हमारे पास कोई डेटा नहीं है और उस अंतर को खत्म करने की दिशा में प्रौद्योगिकी नवाचार जब तक हमारे पास नहीं है, तब तक यह पहला कदम होगा।
नेहा पार्ती ने वोकेशनल एजुकेशन और लड़कियों की आंकाक्षाओं पर इसके प्रभाव की बात की
ज्ञान आधारित विषयों और व्यावसायिक विषयों के बारे में धारणाओं को तोड़ने के लिए शुरुआती दिनों में व्यावसायिक शिक्षा शुरू करने का इरादा बहुत अच्छा है। लेकिन ऐतिहासिक रूप से, 11वीं और 12वीं कक्षा में व्यावसायिक प्रशिक्षण शुरू करने का एक कारण है, क्योंकि जब आप शिक्षा के उद्देश्य को देखते हैं, तो उद्देश्य सिर्फ छात्रों को रोज़गार के लिए तैयार करना और उन्हें कौशल से लैस करना नहीं है। शिक्षा के बड़े उद्देश्य हैं, विशेष रूप से एक बच्चे का समग्र विकास।
एनईपी लोकतांत्रिक मूल्यों, समावेश और 21वीं सदी में कौशल पर बहुत अधिक महत्व देता है लेकिन जब आप शुरुआती दिनों में व्यावसायिक प्रशिक्षण लाते हैं, तो सभी उद्देश्यों को संतुलित करना बहुत ज़रूरी हो जाता है। इसलिए जब एनईपी इस समग्र विकास की बात करता है, तो कहीं न कहीं इसने शुरुआती स्तर पर कौशल विकास लाने पर बहुत अधिक ध्यान केंद्रित किया है।
बैगलेस दिनों की अवधारणा बहुत शहरी है। अगर हम ग्रामीण, और सरकारी स्कूलों को देखें, तो बच्चे पहले से ही कई बैगलेस दिनों का अनुभव कर रहे हैं, क्योंकि उनके पास कई आवश्यक किताबें नहीं हैं या पढ़ाने के लिए टीचर्स ही नहीं हैं।
जबकि यह अवधारणा बहुत ही शहरी है लेकिन इस अवधारणा के तहत प्रावधान बहुत ग्रामीण हैं, जैसे कि एक कारीगर के कौशल से बच्चों को परिचित कराना लेकिन देश भर में स्कूलों के प्रकार में विविधता को देखते हुए, इस प्रावधान की गुणवत्ता और स्थिरता सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।
एक ग्रामीण व्यवस्था में व्यवसाय बहुत ही जाति-आधारित और पुरुष-प्रधान हैं, इसलिए जब हम इसे जेंडर वाले लेंस से देखते हैं, तो हम छात्रों के बीच जिस तरह के जोखिम और आकांक्षाएं पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं, उन पर सवाल उठाने चाहिए।
क्या NEP 2020 भारत में कक्षाओं के संकट को खत्म कर पाएगा?
शिक्षा के लिए लड़कियों की पहुंच में बाधा डालने वाले विभिन्न कारकों पर उचित विचार किए बिना और एक मज़बूत कार्यान्वयन योजना के बिना, यह मुश्किल हो सकता है।
इस LIVE के साथ ही यूथ की आवाज़ ने मलाला फंड के साथ #KakshaCrisis नाम के कैंपन की शुरूआत की है जो NEP 2020 के प्रावधानों के ईर्द-गिर्द अधिक से अधिक विचार-विमर्श की मांग करता है।
इस अभियान का उद्देश्य केंद्र और राज्य सरकारों से की जवाबदेही की मांग करती है और और सभी लड़कियों के लिए अच्छी शिक्षा तक समान पहुंच सुनिश्चित करना भी है।