अँग्रेजी वाले बाबू का बहुत डिमांड होता है शहर मे, गाँव में, मोहल्ले मे। फलना बाबू के बेटे की नई नई नौकरी लगती है। बारहवीं तक अँग्रेजी स्कूल से पढ़ने के बाद सीधा इंजिननियरिंग कॉलेज। और कॉलेज के बाद अमेरिका मे नौकरी। पूरे मोहल्ले में शोर हैं, बेटा न्यू-यॉर्क में है। वो बेटा अपने घर का बेटा न होकर फिर पूरे मोहल्ले का बेटा हो जाता है। मोहल्ले के लड़के , दूर दूर के रिश्तेदार पूछने आने लगेंगे, भैया कैसे पहुचे अमेरिका। “क्यूंकी भैया की पढ़ाई के साथ साथ अँग्रेजी बहुत अच्छी थी”।
फिर आता है जून का महिना और अमेरिका वाला लड़का अपने शहर आता है। रंग रूप बदल चूका होता है। वेश भूषा के साथ साथ, खान पान, मिलने का तरीका, बोलने का तरीका, “माँ बाप का धौश- अमेरिका से आया है मेरा बेटा”। सब कुछ साफ साफ नज़र आता है। कभी कभी आप उस लड़के को अपने घर की छत पर फर्राटेद्दर अँग्रेजी मे बात करते सुनेंगे। झांक झांक कर लोग देखेंगे। शहर का बाबू अब अँग्रेजी वाला बाबू बन चूका होता है।
हिन्दी हमारी राजभाषा है मगर अँग्रेजी विलासिता की मिसाल देने वाली भाषा है। मगर अँग्रेजी के बिना काम चलेगे भी नहीं ? क्यूँ है न? बेरोजगार तो बैठेंगे नहीं। हिन्दी को लेकर कहाँ तक चाटना है भाई। हिन्दी को बस उपन्यास और गृह सोभा, सरिता और वनिता तक ही सीमित रखना है ! और कुछ हो सके तो तहलका और हंस जैसी पत्रिका से इसका नाम ऊंचा उठाया जा सकता है !
आज जब बच्चा बोलना शुरू करता है तो माँ बाप का पूरी कोशिश होती है हर शब्द बच्चे के मूंह से अँग्रेजी मे ही निकले। बच्चे से सुबह के “ पौटी” से लेकर रात के “गुड नाइट” सीखने के क्रम मे हम बच्चो में हिन्दी और अँग्रेजी के प्रति इन्फेरिओरिटी (inferiority) और सुपृओरिटी (superiority) महसूस जरूर करा देते हैं । आप बच्चों के अँग्रेजी के किताब को उठा लें। उसमे G फॉर जैंट्लमैन में एक आदमी काले कोर्ट टाई लगाकर अँग्रेजी बोलने वाला आपको दिख जाएगा, मगर F फॉर फार्मर में आपको एक धोती कुर्ता पहने एक सख्स नजर आएगा । यानी बच्चो को बचपन से ही हमें सीखा देना है कि कोर्ट टाई लगाकर अँग्रेजी बोलने वाला जैंट्लमैन है और धोती कुर्ता पहने जो सख्स है वो साधारण सा इंसान है।
हिन्दी को अँग्रेजी से नीचे रखना हमारा समाज ही हमें बचपन से सिखाता है। बच्चा जब बचपन मे अँग्रेजी में नहीं बोल पता तो लोग हँसते हैं उसपर। फिर माँ बाप परेशान होकर उच्च कोटी के अँग्रेजी स्कूल मे उसका दाखिला करवाते हैं कि बच्चा पढे या न पढे इससे मतलब नहीं, मगर अँग्रेजी बोलता जरूर सीख जाये। समाज मे प्रतिष्ठा भी चाहिए! अगर सरकारी विद्यालय में पढ़ेगा तो बातें बनेंगी “ या तो माँ बाप के पास हैसियत नहीं हैं” या “बच्चा कमजोर है”।
फिर जब बच्चा आठवीं तक है तो अँग्रेजी कई खंड में बंट चूका होता है, मगर हिन्दी का वर्गीकृत ज्ञान वही रहता जो प्राथमिक शिक्षा के बाद से रहा और ये आठवीं तक चलता है। सबसे बड़ा धोका हिन्दी के साथ तब होता जब आठवीं के बाद आपको हिन्द और संस्कृत में से किसी एक को चुनना होता है? आखिर क्यूँ?
नई शिक्षा नीति से आने वाले दिनों में हम अपने बच्चो को हिन्दी से और दूर करने वाले हैं। आने वाले दिनों में ये क्षेत्रवाद का विस्तार करेगी एक देश एक भाषा कि भावनाओं को भी आहत करेगी। फिर कहाँ रह पाएगी सरकार कि वो देशभक्ति कि नीति जिसके सहारे आने वाले चुनाव कि तैयारी की जा रही है।
नोट: इसमे मैंने कुछ पत्रिकाओं के नाम लिखें हैं। कृपया इस पत्रिका के लेखक और संपादक अपनी भावनाओं को आहत न करें। हिन्दी के लिए आप नेक काम कर रहे हैं।
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