नारी की स्थिति–प्रमुख धर्म ग्रंथों की नज़र में:-
यह सही है कि सृष्टि के सृजन के प्रारंभ से ही वैज्ञानिक सोच किसी न किसी रूप में विद्यमानरही है,भले ही उसे सार्वभौमिक मान्यता देर से मिली हो।इसीलिए नारी ही नहीं अपितु संसार के सभी प्राणियों के प्रति सम्यक समानता का भाव रखने की वैज्ञानिक सोच सदैव से ही विद्यमानरहने सम्बंधी प्रमाण प्राचीन साहित्य में यदा–कदा दिखाई दे जाते है।अतएव इस बात को मानने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि नारी ने समाज के विकास में सदैव कंधे से कंधा मिलाकर पुरूष का साथ दिया है |सही अर्थों में कहें तो नारी एवं पुरूष एक दूसरे के पूरक रहे हैं , लेकिन पुरूष प्रधान समाज में उन्हें वह सम्मान व दर्जा नहीं दिया गया जिसका वे वास्तव में हक़दार रही हैं। पुरूष प्रधान मानसिकता वाले समाज ने नारी को अबला मानकर सदैव ही पुरूष के सापेक्ष कमतर आंका है।नारी के प्रति समाज का यही विभेदकारी एवं अहंकारी रवैया प्रचलित सभी धार्मिक व्यवस्थाओं में भी दृष्टिगोचर होता है ।
- विश्व के सबसे बडे़ धर्म –ईसाई धर्म का पवित्र ग्रंथ बाइबल भी पुरूष प्रभुत्व के गुणगान करने से नहीं थकता है, क्योंकि हिब्रू बाइबिल (Hebrew Bible) केअनुसार ईश्वर (God) जिसे ईसाई धर्म में Yahweh कहा गया है, ने धरती की मिट्टी से एक मानव की रचना कर उसमें अपने नथुनों से जीवन दायनी साँस फूंककर सबसे पहले मानव यानी आदम(Adam) की रचना की और बाद में उसके मन– बहलाव के लिए उसके साथी के रूप में आदम के शरीर से पसली एवं मांस निकालकर प्रथम नारी (Eva) की रचना की ।इस प्रकार गॉड ने पुरूष को अपनी ही इमेज में बनाया ,इसलिए यह पुरूष ही समस्त सृष्टि का लार्ड है।उक्त तथ्य जेनेसिस(Genesis 2:22-23) में उल्लिखित कथन– The God made a woman from the part he taken out of the man,and he brought her to the man. Then the man said,”This one at last is bone of my bones and flash of my flesh; this one will be called ‘woman’ for she was taken out from man.” से समर्थित है।इसप्रकार ईसाइ धर्म में पुरूष की उत्पत्ति ही नारी से पहले होने एवं नारी की उत्पत्ति प्रथम पुरूष के ही अंगों से उसके मन बहलाव के लिए होने के कारण नारी से पुरूष को अधिक प्रधानता दी गयी है ।
- ईसाई धर्म के मौलिक सिद्धांतों के अनुसार नर–नारी का परस्पर स्वेच्छा एवं उल्लास से मिलना ही मूल पाप है।इस ओरिजनल सिन के लिए पुरूष को शैतान के कहने पर वुमैन ने फुसलाया।इसलिए वुमैन शैतान की बेटी है और वह पुरूष को सम्मोहित कर मूल पाप यानी काम भाव यानी शैतानियत के चंगुल में फँसाने का बुरा आचरण करती है , जिसके कारण वह बुरी जादूगरनी या डायन है तथा एडल्टरी की दोषी भी है।इस लिए उसे यातना देना पुण्य कार्य है।
- इसके अतिरिक्त स्त्री तथा ग़ैर क्रिश्चियन पुरूषों एवं इस धरती को अपने अधीन बनाकर उन पर राज करना फैथफुल क्रिश्चियन पुरूष का कर्तव्य बताया गया है।इन्हीं मौलिक मान्यताओं के कारण ईसाई धर्म में स्त्री को सदियों तक पुरूष की शत्रु तथा शैतान की बेटी एवं शैतान का उपकरण माना जाता रहा है।नर–नारी मिलन को मूल पाप माने जाने के कारण विवाह भी पाप माना जाता रहा है परंतु विवाह क्रिश्चियन विधि से होने पर तथा चर्च के नियंत्रण में वैवाहिक जीवन जीने पर अपेक्षाकृत न्यूनतम पाप की मान्यता दी गयी।तब भी विवाहित स्त्री को मूलतः अपवित्र ही माना जाता है।ईसाई धर्म में पवित्र स्त्री तो वह है जो किसी क्रिश्चियन चर्च में दीक्षित नन होऔर जो ग़रीबी , चैरिटी तथा क्रिश्चियन पादरियों तथा चर्च की आज्ञाकारिता की शपथ ले।
- इन नारी विरोधी मान्यताओं में यूरोपीय नारी मुक्ति आंदोलन के बाद शनै: शनै: परिवर्तन हुआ और 18वीं शताब्दी तक बाईबिल पढ़ने तक का हक न रखने वाली क्रिश्चियन स्त्री को 1929 में इंग्लैंड की अदालत ने पहली बार यह माना कि स्त्री भी परसन है और उनमें आत्मा होती है तथा 20वीं सदी में ही क्रिश्चियन स्त्रियों को वयस्क मताधिकार प्राप्त हुआ।
- विश्व के नंबर दो के धर्म–मुस्लिम धर्म की खुदाई किताब–कुरान एवं शरियत के अध्ययन से पता चलता है कि मुस्लिम धर्म में गैर मुस्लिम (काफिर)को मारने काटने की चर्चा के समान हीऔरतों के विरूद्ध अत्याचार एवं शोषण की चर्चा सर्वाधिक मिलती है।इस धर्म में औरत को भोग का साधन मात्र बताया गया है एवं उसे भोग एवं विलास की वस्तु समझा गया है ।यह तथ्य कुरान के चौथे अध्याय सूरह–अन–निसा एवं दूसरे अध्याय सूरह–अल–बकरह से भी प्रमाणित होता है,जिनमें क्रमश: कहा गया है –
1.”कि अगर तुम्हें अंदेशा हो कि तुम यतीमों के मामले में इंसाफ न कर सकोगे तो औरतों में से जोतुम्हे पसंद हों उनमें से दो–दो,तीन–तीन,चार–चार तक निकाह कर लो।”सूरह–अन–निसा(4.1-4)
2.” तुम्हारी औरतें तुम्हारी खेतियॉं हैं,लिहाजा अपनी खेती में तुम जब और जैसे चाहो जाओ, और अपने लिए आगे भेजो।यह अल्लाह का हुक्म है।”सूरह–अल–बकरह(2.21-23)
- मुसलमानों की खुदाई किताब कुरान के अध्याय सूरह–अल–बकरह (2.282) के अनुसार वित्तीय मामलों में दो मर्दों या एक मर्द और दो औरतों को गवाह बनाने की बात कही गयी है, जिससे स्पष्ट है कि एक मर्द को दो औरतों के बराबर का दर्जा दिया गया है।इसी प्रकार कुरान के चौथे अध्याय सूरह–अल–निसा (4.11-14) मे पैतृक सम्पत्ति में औरतों के हिस्से के सम्बंध में उल्लेख है -“अल्लाह तुम्हें तुम्हारी औलाद के बारे में हुक्म देता है कि मर्द का हिस्सा दो औरतों के बराबर है।”
- इसके अलावा मुस्लिम धर्म में मर्द द्वारा औरत को तलाक देने का अधिकार बहुत आसान है, जबकि औरत के लिए यह आसान नहीं है।इस प्रकार मुस्लिम धर्म ग्रंथों में औरत को मर्द के भोग विलास के साधन मात्र उसे बच्चे पैदा करने की मशीन से अधिक नहीं समझा है और दुर्भाग्यवश मुस्लिम धर्म की कट्टरता के कारण सदियों से तत्कालीन ज़रूरतों के अनुसार चली आ रही परंपराएं एवं प्रथाएँ जिनकी वर्तमान में कोई प्रासंगिकता शेष नहीं रही है,उनमें भी बदलाव न करना किसी भी दशा में न्यायोचित नहीं हैं अपितु अपने ही अनुयायियों में उन परंपराओं के प्रति नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए माहौल पैदा कर रहा है।
- मनु संहिता से अनुशासित ब्राह्मणवाद जिसे अक्सर लोग हिन्दू धर्म की संज्ञा प्रदान करने की भूल करते हैं, से भिन्न धर्म सनातन धर्म जो अनुयायियों की दृष्टि से ईसाई, मुस्लिम एवं कोई धर्म न मानने वाले( मानव धर्म) लोगों के बाद विश्व का चौथे नम्बर का धर्म होने के साथ ही सदियों से भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित रहा है तथा जिसमें सहिष्णुता, परोपकार, उदारता, सम्यक स्वतंत्रता, समानता तथा यथोचित परिवर्तनशीलता जैसे मानवीय मूल्य समाहित हैं तथा जहॉं पर–हित के समान कोई अच्छाई और पर–पीड़ा के समान कोई अधर्म न होने की वकालत की गयी है, के अनुसार नारी को पुरूष के समान अधिकार एवं महत्व दिए जाने का गुणगान किया गया है, लेकिन इतिहास के पन्नों में तत्कालीन अधिक महत्व के पद एवं संस्थाओं में भारतीय नारी की उपस्थिति नगण्य ही दृष्टिगोचर होती है तथा नारी शिक्षा के भी अत्यल्प उदाहरण ही मिलते हैं। “पिता रक्षति कौमार्ये भर्ता रक्षति यौवने,। रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा: न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति।।” अर्थात् जन्म से शादी होने तक पिता से, शादी होने से पति के जीवित रहने तक पति से एवं पति की मृत्यु के बाद पुत्र से रक्षित रहने की हिन्दू मान्यता के कारण हिन्दू नारी को व्यावहारिक रूप से पुरूष से कमतर ही महत्व मिलने की पुष्टि होती है तथा स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की गयी हा।
- वैदिक कालीन नारी को स्त्रीधन के सिवाय पैतृक सम्पत्ति में कोई अधिकार न होने का वर्णन किया गया है, हालाँकि स्त्रियों से जन्में विभिन्न प्रकार के पुत्रों को पैतृक संपत्ति में निश्चित भाग देने का वर्णन मिलता है। नारियों का जन्म अभिशाप माना जाता था ,भृगु जी नारियों के धर्म बताते हुए कहते हैं– “बालया वा युवत्या वा वृद्धया वापि पोषित। न स्वातंत्र्येण कर्त्तव्यं किंचितकार्यं गृहेष्यपि।।”अर्थात् नारियॉं पूर्णरूपेण पुरूषों पर आश्रित रहती थीं तथा उन्हें स्वयं अपने घर में भी कभी कोई काम स्वतंत्र रूप से करने की आज़ादी नहीं थी।
- इसी प्रकार नारी के स्वभाव के बारे में भृगु ऋषि के माध्यम से कहा गया है-“स्वभाव एवं नारीणां नराणामिह दूषणम ।अतोर्धान्न प्रमाद्यंति प्रमदासु विपश्चित:।”अर्थात् पुरूषों पर दोष लगाना नारियों का स्वभाव है और इसी कारण से बुद्धिमान लोग नारियों के सम्बंध में कभी प्रमाद नहीं करते हैं । वे सदैव उनसे दूर –दूर रहते हैं तथा सावधानी बरतते हैं।नारी की बुराइयों के सम्बंध में ऐसे अनेकों विवरण हिन्दू साहित्य में भरे पड़े हैं ।
- इसके विपरीत पुरूषों द्वारा स्त्रियों पर नियंत्रण रखने को उत्तम धर्म के लिए वांछनीय कह गया है, तत्सम्बंधी श्लोक दृष्टव्य है– “इमं हि सर्ववर्णानां पश्यंतो धर्ममुत्तमस । यतन्ते रक्षितुं भार्या भर्तारो दुर्बला अपि।।”
- हिन्दू मान्यताएँ यही नहीं रूकतीं बल्कि सदाचारिणी स्त्री को दुराचारी, कामी, क्रोधी एवं विद्या–विनय आदि गुणों से रहित अपने पति की देवता की भाँति सेवा करने को ईश्वर की इच्छा बताने का पाठ पढ़ाने से नहीं चूकतीं है। ”अश्लील: कामवृत्तो वा गुणैर्वा परिवर्जित:। उपचर्य: स्त्रिया साध्व्या सततं देववत्पति:।। इस प्रकार इन विरोधाभासी दृष्टांतों के बाबजूद वैदिक क़ालीन भारत को “नार्यस्तु तत्रपूज्यंत रमंत तत्र देवता “ मानने पर पृश्न चिह्न खड़ा होता है?
- हालाँकि 500 ईसा पूर्व महात्मा बुद्ध के काल में नर–नारी में शारीरिक एवं वायोलॉजिकल अंतर के सिवाय नारियों को पुरूषों के समान सम्मान एवं अधिकार दिए जाने के प्रमाण सांस्कृतिक & साहित्यिक ग्रंथों में मिलते हैं।इस काल में नारी पुरूषों से कंधे से कंधा मिलाकर घरेलू कार्यों केअतिरिक्त व्यापार एवं उद्योग में पूर्ण समर्पण के साथ पुरूष का हाथ बँटाने लगी थी ।उनके लिए धार्मिक कार्य एवं शिक्षा के द्वार खोल दिये जाने के प्रमाण भी मिलते हैं ।
- जैन धर्म में नारी को पुरूष की प्रेरणा या आदर्श कहा गया है और “नारी गुणवत्ता धत्ते सृष्टिअग्रिम् पदम्” अर्थात् गुणवान नारी को अग्रिम पद धारण करने के विचार के तहत तीर्थंकरों ने समवशरणम में नारियों को दीक्षित कर आर्यिका बना के उच्च स्थान दिया है।भगवान ऋषभदेव ने राज्य अवस्था में अक्षर अंक विद्या पहले ब्राम्ही और सुन्दरी को प्रदान की, बाद में भरत और बाहुहली को।लेकिन जैन धर्म के अनुसार मुक्ति केवल निग्रंथ दिगम्बर को ही मिल पाने की मान्यता के कारण नारी की मुक्ति निषेध है, वो इसलिए क्योंकि नारी निग्रंथ दिगंबर नहीं बन पाती।इसप्रकार जैन धर्म में भी पुरूष प्रधान सोच के कारण नारी की सफलता उसके पॉंच रूपों–कन्या,पत्नी,मॉं,भार्या और कुटुम्बनी के रूप में खरी उतरने में ही बतायी गयी है और उसे घरेलू एवं पारिवारिक कार्यों में ही संलग्न रहने की सीख देकर पुरूष के झूठे दंभ को बढ़ावा दिया है ।
- यह कहने में कोई संदेह नहीं है कि हिन्दू, ईसाई,मुस्लिम आदि धर्मों में प्रचलित विसंगतियों से सीख लेते हुए गुरू नानक जी के सिद्धांतों पर आधारित पंदरहवीं शताब्दी में स्थापित हुए सिख धर्म में नर एवं नारी को एक दूसरे का पूरक मानते हुए उन्हे एक सिक्के के ही दो पहलू कहा गया है,जो एक–दूसरे के बिना सुरक्षा एवं पूर्णता के भाव को महसूस नहीं कर सकते हैं ।इसी विचार को आमजनों में प्रभावी बनाने के उद्देश्य से ही सिख धर्म के संस्थापक गुरुनानक जी ने सन् 1499 में स्पष्ट रूप से यह घोषणा की थी -“कि नारी जो मानव रेस / वंश को आगे बढ़ाती है और बड़े बड़े शासकों एवं महापुरुषों को जन्म देती है , वह अभिशाप एवं निन्दा का पात्र कैसे हो सकती है”?
- इसप्रकार बुद्ध काल में नारी उत्थान एवं उसे पुरूषों के समान मान–सम्मान दिलाने की शुरू हुई पहल महात्मा ज्योतिबा फूले एवं सावित्री बाई फुले के संघर्षपूर्ण दौर से गुजरते हुए नारियों के लिए यथोचित अधिकारों को भारतीय संविधान से संरक्षित करने के डॉ.अम्बेडकर के पुनीत कार्य ने भारतीय नारी को अबला होने के सदियों से थोपे गए कलंक को मिटाने का अविस्मरणीय कार्यकिया है। जय भारत
- आर.एस. विद्यार्थी,नोएडा