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नारी की स्थिति-प्रमुख धर्म ग्रंथों की नज़र में:-

            नारी की स्थितिप्रमुख धर्म ग्रंथों की नज़र में:-

      यह सही है कि सृष्टि के सृजन के प्रारंभ से ही वैज्ञानिक सोच किसी किसी रूप में विद्यमानरही है,भले ही उसे सार्वभौमिक मान्यता देर से मिली हो।इसीलिए नारी ही नहीं अपितु संसार के  सभी प्राणियों के प्रति सम्यक समानता का भाव रखने की वैज्ञानिक सोच सदैव से ही विद्यमानरहने सम्बंधी प्रमाण प्राचीन साहित्य में यदाकदा दिखाई दे जाते है।अतएव इस बात को मानने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि नारी ने समाज के विकास में सदैव कंधे से कंधा मिलाकर  पुरूष  का साथ दिया है |सही अर्थों में कहें तो नारी एवं पुरूष एक दूसरे के पूरक रहे हैं , लेकिन पुरूष प्रधान समाज में उन्हें वह सम्मान दर्जा नहीं दिया गया जिसका वे वास्तव में हक़दार रही हैं। पुरूष प्रधान मानसिकता  वाले समाज ने नारी को अबला मानकर सदैव ही पुरूष के सापेक्ष कमतर आंका है।नारी के प्रति  समाज का यही  विभेदकारी एवं अहंकारी रवैया प्रचलित सभी धार्मिक व्यवस्थाओं में भी दृष्टिगोचर होता है                                                                                

         1.”कि अगर तुम्हें अंदेशा हो कि तुम यतीमों के मामले में      इंसाफ कर सकोगे तो औरतों में से जोतुम्हे पसंद हों उनमें से दोदो,तीनतीन,चारचार तक निकाह कर लो।सूरहअननिसा(4.1-4)

           2.” तुम्हारी औरतें तुम्हारी खेतियॉं हैं,लिहाजा अपनी खेती में तुम जब और जैसे चाहो जाओ, और अपने लिए आगे भेजो।यह अल्लाह का हुक्म है।सूरहअलबकरह(2.21-23)

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