एक बढ़े परिवार का मुखिया एक हो और सदस्य ज़्यादा हो तो परिवार को संभालना, उसका पालन पोषण करना काफ़ी मुश्किल हो जाता है। इसलिए अन्य सदस्यों को भविष्य का मुखिया बनाने के लिए परिवारों को अलग-अलग रहना पड़ता है।
मुखिया जाने-अनजाने अपना हुकुम हर परिवार पर थोपकर कब तानाशाह बन जाता है उसे पता ही नहीं चलता। इसलिए समझदार मुखिया बच्चों की शादी कर उन्हें उनका परिवार स्वयं चलाने के लायक बनाता है ताकि वे आत्मनिर्भर हो जायें। एक मुखिया होने पर परिवार को इकठ्ठा रखने की ज़िद में ज़्यादातर, कुछ सदस्यों पर अधिक ध्यान दिया जाता है और कुछ पर बिलकुल नहीं, इसलिए मनमुटाव पैदा होते हैं।
जिससे परिवार टूटते हैं। परिवार को टूटने से और उसकी समृद्धि बचाने के लिए मुखियों का विकेंद्रीकरण करना ज़रूरी हो जाता है।
मीडिया ने बड़े राज्यों को ही भारत समझ लिया है
मैं भारत के बढ़े बढ़े राज्यों की बात कर रहा था। आप कभी सोचिये कि भारत के कुछ प्रदेश ही मीडिया के कवरेज में दिखते हैं। कभी आपको अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों की ख़बरें ज़्यादा समय तक मेन स्ट्रीम मीडिया में नहीं दिखेगी।
हमेशा मुंबई, दिल्ली, यूपी और बिहार ही मुद्दे बने रहते हैं। मुख्यमंत्री अपने राज्य के पूरे कोनों में भी कभी गया ही नहीं होता है। इस सबका रहस्य इनकी लोकसभा सीट, इनके क्षेत्रफल और जनसंख्या के बंटवारे में छुपा है। आइये आज भारत की उस कमज़ोर कड़ी को मजबूत करने की बात करते हैं जिसे सालों पहले किया जा सकता था।
न्यू स्टेट रिओर्गनाईज़ेशन पॉलिसी
संस्कृति और भाषा बनने में कई सौ वर्ष लग जाते हैं लेकिन हम विकास की अधूरी परिभाषा थोप कर जानबूझकर या कई बार अनजाने ही संस्कृति नष्ट करने लग जाते हैं। एक ही सांचे में सबको ढालने और एक ही पैमाने से सभी को नापने की गलती कर बैठते हैं। भारत के कई राज्यों के साथ यही हुआ।
उदहारण के तौर पर बुंदेलखंड, आधा राज्य उत्तर प्रदेश में है और आधा मध्य प्रदेश में, इसलिए बुंदेलखंड अपने सांस्कृतिक अस्तित्व की अंतिम सांसे गिन रहा है। अन्य हिंदी प्रदेशों की तरह यह भी अधकचरा हो कर रह गया।
1956 के स्टेट रिओर्गनाईज़ेशन का शायद यही मकसद रहा होगा कि विभिन्न संस्कृतियों को आपस में मिला कर बहुमुखी आदान-प्रदान कराया जाए लेकिन अगर आप देखें तो राजनैतिक इक्छाशक्ति न होने की वजह से ऐसा कुछ हो नहीं पाया या यूं कहें कि नेहरु-गाँधी जैसे दूरदर्शी सोच रखने वाले नेता भारत कभी विकसित कर ही नहीं पाया, जिससे नीति का मकसद पूरा नहीं हो पाया।
भारत पर एकरूपता थोपी जा रही है जिससे राज्यों की अंदरूनी संस्कृति, कला, साहित्य, संगीत, खेल खत्म होते जा रहे हैं। राजधानी और उसके आसपास के क्षेत्र दिखावे के लिए विकसित कर दिए जाते हैं लेकिन ज़मीनी तौर पर जब राज्यों के अंदरूनी हिस्सों में जाओ तो वही शोषण, जातिवाद, सामंतवाद आज भी चालू है।
जब भी हम भारत की धीमी विकास दर की बात करते हैं तो बीमारू राज्यों का ज़िक्र सबसे पहले आता है। इन बीमारू राज्यों के कारण पूरे भारत की ग्रोथ धीमी पड़ जाती है लेकिन राजनेताओं के जीत यही बीमारु राज्य तय करते हैं। काऊ बेल्ट और ज़मीन के बेहतरीन उपजाऊपन के बावजूद भ्रष्टाचार की दीमक इन प्रदेशों को खा गई है।
ये राज्य क्षेत्रफल और जनसंख्या के हिसाब से काफ़ी बड़े हैं। इतने बड़े राज्यों पर शासन करना कोई आसान काम भी नहीं है। अब तो फिर भी उत्तराखंड, झारखण्ड, छतीसगढ़ के अलग होने से ये चार प्रदेश 7 राज्यों में तब्दील हो गये हैं लेकिन फिर भी बाक़ी बचे हिस्से अभी भी बहुत बड़े हैं। जिस वजह से उनकी अलग-अलग कला और संस्कृति पर ख़ास ध्यान नहीं जा सकता। यहां की राजनीति इन्हें अलग-अलग राज्यों में विभाजित कर इन्हें आत्मनिर्भर बनाना ही होगा।
राज्य व इनकी लोकसभा सीट विभाजन
- मध्यप्रदेश- 29
मैं जिस मध्यप्रदेश में पैदा हुआ था, उसमें छतीसगढ़ शामिल था। आज मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ अलग-अलग प्रदेश हैं। मेरे पिता 1956 में विन्ध्यप्रदेश में पैदा हुए थे लेकिन 1956 में ही स्टेट रीऑर्गनाइजेशन एक्ट के तहत विन्ध्यप्रदेश को मध्यप्रदेश में समाहित कर दिया गया।
टेक्निकली देखा जाए तो ये तीन अलग-अलग प्रदेश हैं। लेकिन मेरे पिता और मेरी संस्कृति एक ही है, बुंदेलखंड लेकिन मध्यप्रदेश की स्थापना के चलते इस प्रदेश की आज अपनी कोई संस्कृति नहीं है। एक प्रदेश में ही मालवा, बघेलखंड, बुंदेलखंड, नवाबी भोपाल आपस में अस्तित्वहीन से हो गये हैं। छत्तीसगढ़ अलग हुआ तो छत्तीसगढ़ की आज अपनी पहचान है। 1956 में इन अलग-अलग संस्कृतियों को एक प्रदेश में शामिल करने के पीछे जो भी नीति रही हो, वह सफल तो नहीं रही वरना यह प्रदेश देश के सबसे पिछड़े प्रदेशों में नहीं होता।
अब आप सोचिये अगर मालवांचल, बुंदेलखंड, बघेलखंड, भोपाल स्टेट ये अलग-अलग राज्य हो जाते तो इनके विकास की रणनीतियां बनाना इनके मुख्यमंत्रियों के लिए आसान होता या नहीं। अगर लोकसभा सीटों के आधार पर देखा जाए तो बुंदेलखंड को 14, बघेलखंड को 5, मालवांचल को 16 और बाक़ी लोकसभा सीट से भोपाल स्टेट बनता।
अगर आज की राजनैतिक परिस्थितियां देखी जायें तो मालवांचल में सिंधिया मुख्यमंत्री होते, बघेलखंड के कमलनाथ, भोपाल स्टेट से शिवराज, बुंदेलखंड से शायद गोपाल भार्गव। सबसे महत्वपूर्ण बात होती कि इन सभी राज्यों में इनके क्षेत्रीय मुद्दों की राजनैतिक पार्टियां होती और इन बड़े-बड़े नेताओं के सामने खड़े होने के लिए और कई दमदार नेता जन्म लेते।
- उत्तरप्रदेश– 80
भारत में केंद्र सरकार बनाने की एक जादू की छड़ी है “उत्तर प्रदेश जीतो, केंद्र की सत्ता तुम्हारी, अगर नहीं भी जीते तो उत्तर प्रदेश में जो जीता, जोड़तोड़ कर उसका समर्थन लो, फिर केंद्र में सत्ता तुम्हारी”
सिर्फ़ उत्तरप्रदेश से लोकसभा की 80 सीटें हैं। एक उत्तरप्रदेश जीतना, 8 हरियाणा जीतने के बराबर है। सारी सरकारें अपनी पैसा, चुनावी रणनीति इस एक प्रदेश को जीतने में झोंक देती हैं। अगर आप डीमोनीटाईज़ेशन की टाइमिंग याद करें तो वह भी यूपी चुनाव के पहले ही किया गया था। इस तरह की जनविरोधी ओछी तरकीबों से उत्तरप्रदेश घटिया राजनीति का गढ़ बन चुका है।
आख़िर ऐसे ही थोड़ी सुप्रीमकोर्ट खुलेआम डिक्लेयर कर देता है कि यूपी में जंगलराज है। आप क्या सोचते हैं इस घटिया राजनीति का फ़र्क यूपी की संस्कृति पर नहीं पड़ा होगा? विकास, मानव अधिकार, सिद्धांत, क़ानून व्यवस्था जैसे शब्दों पर यूपी के किसी भी व्यक्ति का भरोसा आखिर हो तो कैसे हो और भी बहुत सारे पेंच हैं। ऐसे ही थोड़ी मोदी, सोनिया, प्रियंका सब यहीं से चुनाव लड़ने मरे जाते हैं।
उत्तरप्रदेश से उत्तराखंड कुछ सालों पहले ही अलग किया गया है। अब उत्तरप्रदेश में आधा बुंदेलखंड क्यों शामिल है इसका कोई उचित कारण तो आपको शायद ही मिलेगा। इतने समय से मांग भी उठ रही है इसलिए बुंदेलखंड एक अलग राज्य बने इसमें तो कोई दो राय है ही नहीं। बाक़ी अवध को 26, रोहिलखंड को 12, पूर्वांचल को 10 सीटों के आधार पर अलग-अलग प्रदेश बनाया जा सकता है।
योगी जी के पसंदीदा काम और उनकी ख़ुशी के लिए रोहिलखंड क्षेत्र को मध्यप्रदेश नाम भी दिया जा सकता है क्योंकि महाभारत, रामायण के हिसाब से असल मध्यप्रदेश यही था। उत्तरप्रदेश के इस आंतरिक विभाजन से सबसे बढ़ा फ़ायदा ये होगा कि इस पूरे राज्य को एक व्यक्ति की तानाशाही नहीं झेलनी होगी।
4 अलग-अलग क्षेत्रों के अलग अलग मुद्दे होंगे और ये सभी राज्य आत्मनिर्भर बनने के लिए विकास की पटरी पर तो आ ही जायेंगे। उत्तरप्रदेश का एक राज्य के तौर पर खत्म होना भारत की पूरी राजनेति को बदल कर रख देगा और इस पूरे क्षेत्र को मायावती-मुलायम-योगी वाली राजनीति से भी मुक्ति मिलेगी।
- बिहार– 40
चुनाव के लिए रिया-सुशांत-कंगना का जो इस्तेमाल हो रहा है वह आपके सामने है। जिस प्रकार उत्तरप्रदेश में सत्ता हासिल करने के लिए पार्टियां किसी भी हद तक जाती हैं वही हाल बिहार का है। कारण समझिये, झारखण्ड के अलग होने के बाद भी अकेले बिहार से 40 सीटें जीत कर केंद्र में सत्ता काबिज़ की जा सकती है।
सालों से यह प्रदेश नितीश-लालू पॉलिटिक्स की मार झेल रहा है। बिहार यहां के घटिया सिनेमा के लिए बदनाम भी है, दूसरे क्षेत्रों में जब बिहार के लोग जाते हैं तो उन्हें वैसा समझा जाता है जैसा वे भोजपुरी फिल्मों में दिखते हैं और एक हद तक जैसा सिनेमा है समाज उसी तरह तब्दील हो रहा है।
अगर बिहार की 40 सीटें सांस्कृतिक आधार पर बांट कर मिथिला या विदेहप्रदेश, भोजपुर और मगध राज्यों में तब्दील कर दी जाए तो एक तो यहां की सांस्कृतिक धरोहरें बच सकती हैं, दूसरा यहां के लोग तुच्छ राजनीति की मार से बच जायेंगे।
- महाराष्ट्र -48
हिंदुत्व राजनीति के शुरूआती गढ़, महाराष्ट्र की तरक्की को जब मापा जाता है तो मुंबई और पुणे क्षेत्र की तरक्की इसमें अहम किरदार अदा करती है। आप सोचिये अगर मुंबई, नवी मुंबई, पुणे, नासिक इन शहरों को न गिना जाए तो बाक़ी महाराष्ट्र क्या एक विकसित प्रदेश है?
महाराष्ट्र विकास को बड़ी आसानी से 4 हिस्सों मुंबई, विदर्भ, मराठवाड़ा और बाक़ी महाराष्ट्र में देखा जा सकता है। वैसे महाराष्ट्र अकेले प्रदेश से 3 रणजी ट्राफी में तीन टीमें खेलती हैं। अगर इस राज्य को लोकसभा सीटों के आधार पर विभाजित किया जाए तो विदर्भ को 11, मराठवाड़ा को 8, मुंबई स्टेट को 11, बाक़ी बचे महाराष्ट्र को क़रीब 18 सीट मिलेंगी।
और कुछ हो न हो लेकिन इस क़दम से ये पूरा क्षेत्र शिव सेना, भाजपा, मनपा बाक़ी नकपा और कांग्रेस के चंगुल से शायद निकल पाए। अजित पवार की 2019 चुनाव में कुलाटियां सबने देखीं हैं। इस तरह की ओछी राजनीति देखने के बाद इन सभी वर्तमान नेताओं से यहां के लोग भयंकर निराश हो चुके हैं।
जो है जैसा है वैसा ही चलेगा मान कर सब चुप हैं। ये दकियानूसी नेता नए लोगों को नयी पार्टियों को स्थापित भी नहीं होने देते। अगर हमें महाराष्ट्र की राजनीति में बदलाव देखना है हमें इसे 4 हिस्सों में बांट कर 4 अलग-अलग स्थानीय मुख्यमंत्रियों के हवाले करना होगा।
- गुजरात -26
गुजरात को मोदित्व से आज़ादी दिलाना इस देश की अखंडता के लिए बहुत ही ज़रूरी हो चला है। मोदित्व की परिभाषा है कि लोगों को आपस में विरोधी बनाओ, लड़ाओ और किसी भी कीमत पर एकछत्र सत्ता स्थापित करो। गांधी के गुजरात में खाम गठबंधन खत्म होते ही मोदित्व शुरू हो गया। मोदित्व का सिर्फ़ एक ही उसूल है अपना फ़ायदा।
इस राजनीति के कारण ही यहां की राजनीति मेहसाना, सूरत, अहमदाबाद , जामनगर पर केन्द्रित हो कर रह गई है क्योंकि यहां भारत के सबसे अमीर घराने बसते हैं, बाक़ी गांवों, शहरों पर अब कोई ध्यान नहीं दिया जाता।
इस गुजरात क्षेत्र से 3 मुख्यमंत्री भारत को मिल सकते हैं। जब यहां महाराष्ट्र की तर्ज़ पर तीन रणजी ट्राफी टीमें हैं तो तीन मुख्यमंत्री में हर्ज ही क्या है। वैसे सौराष्ट्र और कच्छ तो 1956 के पहले राज्य थे ही। अब हमें फिर से इन्हें दो अलग अलग राज्यों के तौर पर देखना चाहिए और बाक़ी बचे क्षेत्र को गुजरात घोषित कर दें।
- पश्चिम बंगाल -42
यह राज्य ममता बनर्जी की कम्युनिस्ट तानाशाही और हिंदुत्व तानाशाही की राजनीति के बीच पिस गया है। बंगाल जैसे राज्य के लिये शक्ति का विकेंद्रीकरण अतिआवश्यक है। यहां के स्थानीय लोग गोरखालेंड की मांग 1909 से कर रहे हैं लेकिन सरकार के कानों पर जू भी रेंग जाए तो सरकार काहे की।
2013 में भी यह मांग उठी थी लेकिन अब जलपाईगुड़ी, गोरखालेंड और दार्जिलिंग को मिला कर एक सांस्कृतिक राज्य बनाने का समय आ गया है। कोलकाता को एक स्टेट के तौर पर देखा जा ही सकता है इसके आसपास की 17 सीटों के साथ इसे एक अलग राज्य बनाया जा सकता है। बाक़ी हिस्से में मेदिनीपुर, मालदा और बुर्दवान को भी अलग अलग राज्य के तौर पर देखा जा सकता है।
- केरल– 20
भारत का सबसे पढ़ा लिखा राज्य और कई मायनों में भारत का सबसे बेहतर राज्य, यहां के लोग सबसे पहले प्रजा से नागरिक में विकसित हुए हैं। इस राज्य की अपनी अलग राजनीति है, कम्युनिस्ट सरकार है। इस राज्य और संस्कृति के आगे के विकास के लिए इस राज्य को भी 4 हिस्सों में देखा जा सकता है। कर्नाटक और केरल एक तुलु संस्कृति का अपना तुलूनाडू राज्य बन जायेगा, बाक़ी मलाबार, कुट्टानड और त्रावणकोर अलग-अलग तीन राज्य बन जायेंगे।
- दिल्ली– 7
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग बहुत समय से चल रही है। पुलिस भी यहां राज्य सरकार के कंट्रोल में होगी तो दिल्ली राज्य और केंद्र सरकार में बेफिज़ूल का अंतर्विरोध खत्म होगा। दिल्ली, नोएडा, गुडगांव ये तीनों शहरी क्षेत्रों को मिला कर एक विकसित प्रदेश बन सकता है। दिल्ली को एक राज्य बना देने से कई सवाल हमेशा के लिए खत्म हो जायेंगे।
- तमिलनाडु– 38
तमिलनाडु भी राजनीतिक तौर पर सबसे सक्रिय प्रदेशों में से एक रहा है। सबसे पहले कोरोमंडल का एक हिस्सा जुड़ा हुआ था जो इसमें वापस जोड़ देना चाहिए और बाक़ी पंड्यानाडू, तोंडईनाडू, कोंगुनाडू, चोलानाडू नाम से 4 प्रदेश बन ही सकते हैं।
- कर्नाटक– 28
बंगलोर हिस्से को ही इसकी 9 सीटों के साथ एक अलग राज्य बनाया जा सकता है। बाक़ी बची कर्नाटक की 19 सीटों को भी कम से कम 2 अलग अलग राज्यों तुलूनाडू और मलेनाडू के आधार पर विभाजित किया जा सकता है।
- आंध्रप्रदेश– 25
आंध्रप्रदेश से अलग हो कर तेलंगाना नया राज्य बना है।आंध्रप्रदेश को अभी भी सांस्कृतिक तौर पर 4 अलग अलग राज्यों रायलसिम्हा- 4 सीटें, कोस्टल आन्ध्र या मौर्य प्रदेश 9 सीट, कोरोमंडल और उत्तरान्ध्र प्रदेश के तौर पर देखा जा सकता है।
- असम– 14
असम में कई सालों से बोडोलैंड की मांग उठ ही रही है। इसके अलावा सांस्कृतिक तौर पर कामरूप और देओलपारा को भी अलग-अलग राज्य बनाया जा सकता है। इससे रिफ्युजी और इललीगल इमिग्रेशन हैंडलिंग में भी मदद होगी।
- राजस्थान– 25
आधा सिंधिया परिवार मालवा में राज करता है और आधा राजस्थान में। इस राजशाही से मुक्ति के लिए राजस्थान को भी इसके सांस्कृतिक हिस्सों जैसे मारवाड़, मेवाड़, धोंधर, हाड़ोती, सेखावती, मत्स्य में बदलना होगा।
लोकसभा नवीनीकरण और सांस्कृतिक सरंक्षण
- किसी भी राज्य का मुख्यमंत्री 18 सीटों से अधिक नहीं संभाल रहा होगा जिससे उसकी कार्यक्षमता बढ़ेगी।
- क्षेत्रफल के आधार पर भी देखें तो एक मुख्यमंत्री को छोटे क्षेत्र पर नज़र रखनी होगी।
- क्षेत्रीय मुद्दे केंद्र की राजनीति में ज़्यादा प्रखर होकर सामने आएंगे।
- नए स्थानीय नेता और पार्टी जन्म लेंगे।
- केंद्र की सत्ता पाने के लिए कोई भी व्यक्ति सभी राज्यों पर बराबरी से ध्यान देगा और मुद्दों पर गठबंधन होगा न कि सीटों पर। कोई भी पार्टी एक-दो राज्य पर ही अपना पैसा और शक्ति बर्बाद नहीं करेगा।
- क्षेत्रीय भाषा, साहित्य और कला को नया जीवन मिलेगा और मुख्यधारा में जुड़ने का मौका मिलेगा।
- हर राज्य की अपनी अलग टीम होगी इसलिए एडमिनिस्ट्रेशन टीम बढ़ेगी, रोज़गार के नए मौके सामने आयेंगे।
- हमारा देश डेटा पुअर कंट्री है इस वेकिन्द्रिकरण से राज्यों का तुलनात्मक अध्धयन बेहतर हो पाएगा।
- राज्य अपने भोगोलिक सांस्कृतिक ज़रूरतों के आधार पर आत्मनिर्भर हो पाएंगे।
- सांस्कृतिक विभाजन प्राकृतिक होता है, इसलिए ये लम्बे समय तक मजबूत रहता है।
इन सारी ख़ूबियों के अलावा कई नुकसान भी हो सकते हैं जैसे राज्य छोटे छोटे सूबों की तरह हो जायेंगे। कहीं छोटे सूबे का मुख्यमंत्री राजा जैसा बर्ताब न करने लगे और हर राज्य में विपक्ष समाप्त होने लगे। संस्कृति में जो मेल-जोल आया, कहीं वह खत्म न ओ जाये इत्यादि।
हर दूरदर्शी नीति के शायद ऐसे नुकसान होते ही हैं। मेरा जवाब इसको लेकर यह है कि न्यू एजुकेशन पॉलिसी के तहत हायर सेकेंडरी तक ही बच्चों को भारत के अलग अलग ज़ोन के राज्यों में कम्पलसरी पढ़ने भेझा जाए। भारत में बेहतर लोकतंत्र लाने के लिए ये सबसे ज़रूरी कदम हो सकता है।
2024 लोकसभा चुनाव और भारत का रोडमैप
क्षेत्रों और उनकी संस्कृति के फ़ायदे के लिए जिस विकेंद्रीकरण का वर्णन मैंने किया है, इसकी मांग हमेशा से लोग करते आयें हैं लेकिन सत्ता का लालच, गद्दी छिनने का डर ने उनको कभी शक्ति हस्तांतरण करने नहीं दिया।
मोदी जैसे नेताओं ने नए नए बैंक खोलने के बजाये एकीकृत कर दिया है, मंत्रालय आपस में मर्ज कर दिए हैं। कई अलग-अलग मंत्रालय एक व्यक्ति संभाल रहा है। पूरी कोशिश ये रही है कि कम से कम लोगों के पास राजनैतिक ताकत हो।
2024 का चुनाव वाकई में एतिहासिक होने वाला है। मोदी सरकार ऐसे प्रयास कर सकती है कि यह चुनाव ही न हो। राजनीति की मेरी समझ कहती है ऑफिसियली राष्ट्रीय इमरजेंसी लगाने के कारण पैदा किये जा सकते हैं। जिस तरह लोकसभा चुनाव के पहले पुलवामा अटैक हुआ।
इसका राजनैतिक फ़ायदा मोदी साकार ने उठाया इसी प्रकार अब सत्ता पर काबिज़ रहने के लिए मोदी सरकार इस हद तक भी जा सकती हैं कि पड़ोसी मुल्क के साथ 2023 में छोटा-मोटा युद्ध छेड़ दें लेकिन इस युद्ध से भारत के लोगों को कितना नुकसान हो सकता है, न इसका अंदाज़ा मोदी सरकार को है और न उन्हें इसकी फ़िक्र है। उनका इकलौता मकसद हिंदुत्व राष्ट्र बना कर सावरकर का सपना पूरा करना है।
अगर मैं कुछ ज़्यादा ही सकारात्मक हो कर देखूं तो यह कहना काफ़ी आसान है मोदी सरकार के सेकेण्ड टर्म के सभी फ़ैसले लोकविरोधी रहे हैं इसलिए जनआक्रोश बढ़ता ही जा रहा है। एक कहावत है “भूखे भजन न होए गोपाला” अब उनके भक्त भी कब तक उनके भजन गायेंगे जब उनके पेट की रोटी ही छीन ली जाएगी।
रोज़ लोगों की नौकरी जा रही है, हर तबके की, हर सेक्टर के लोगों की जेबें ख़ाली हो रही हैं। सारे स्टूडेंट यूनियन साथ आ चुके हैं। कई लोग जो 2019 के पहले ही जाग चुके थे वे इतना मजबूर हो गये कि उन्होंने भाजपा न आये, इसलिए मजबूरी में कांग्रेस को वोट दिया। एक तरफ़ भारत के लोगों ने राहुल-सोनिया की अध्यक्षता वाली कांग्रेस को पूरी तरह से नकारने का मन बना लिया है। अगर कांग्रेस में भारतीय जनमानस की पुकार सुन पायी तो शायद हम बिना इंदिरा गांधी फ़ेमिली वाली कांग्रेस के दर्शन कर पायें।
एक और आंकड़ा है 2014 में जिन 18 से 20 साल के बच्चों ने भाजपा को वोट दिया, वे 2020 में 28-30 साल के होंगे। जब वे 18 के थे तब उन्हें रोज़गार नहीं चाहिए था, जब वे 23 के थे तब सरकारी परीक्षाओं की तैयारी या एमबीए कर रहे थे लेकिन 28 पार करने के बाद इन सब नौजवानों को अब नौकरी चाहिए, पैसा चाहिए।
अब 90 के दशक के बचपन गुजारे हुए बच्चे 2022 में जीवन के 35 वर्ष पार कर चुके होंगे। शायद ही मोदी सरकार 2024 तक काबिज़ रह पाए। अगर भारत के मात्र 543 ईमानदार लोग एक एक सीट पर चुनाव लड़ जाये तो कोई बड़ी बात नहीं कि 2024 में भाजपा, कांग्रेस मिलकर विपक्ष में बैठें। वैसे भी जब नितीश और मोदी साथ हो सकते हैं तो कोई भी हो सकता है।
2024 में या तो भारत हिंदुत्व राष्ट्र होगा या फिर आज़ादी के बाद की पहली ऐसी पार्टी लोगों के सामने आएगी जो स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर नहीं आपकी हमारी ज़रूरतों के आधार पर हमारा मत हासिल करेगी और हमें सारे दकियानूसी नेताओं से मुक्ति दिलाएगी। जब ऐसा होगा तभी सत्ता का विकेंद्रीकरण होगा और राज्य व राज्य के लोग अपने जीवन को बचा पाएंगे।