भारत में महामारी को आये अभी कुछ 6 महीने हुए हैं पर इन 6 महीनों में हमने भारत को 2020 के भारत से एकाएक 1896 के भारत में बदलते देखा वह दौर था बॉम्बे प्लेग का जिसने उस वक्त 10 मिलियन लोगों के जीवन को प्रभावित किया। जिस की कहानियां आज तक हर घरों में सुनाई जाती है।
आज यानी कि 2020 का दौर है कोरोना का यह एक ऐसी बीमारी है जो चीन के एक प्रांत से निकलकर पूरे विश्व को अपने चपेट में ले लेती है। एक नजर में इन सारी घटनाओं को देखें तो दो बातें नजर आती है
पहला- हालात के सामने इंसानों की बेबसी और दूसरा आने वाले भविष्य की जो उससे भी ज्यादा भयावह है या यूं कहें अनिश्चितता।इन सब के बीच एक तस्वीर जो हम सबके सामने आई वह थी प्रवासी मजदूरों के घर वापसी की तस्वीर उनका छूटता रोजगार और वह भूख का मंजर जिसने एक पल में मानो सब कुछ बदल दिया हो ।
मैं भारत के उस प्रांत से आती हूं जहां रोटी कम और उसकी बाट जोहती भूख ज्यादा है, जहां रोजगार कम और रोजगार की तलाश में दर बदर भटकती बेरोजगारी ज्यादा है, जहां शिक्षा कम और शिक्षा के नाम पर बिकते डिग्रियां ज्यादा है यह प्रांत है पूर्वांचल का एक हिस्सा बिहार!
जिसके कोख में अभी भी रची बसी है इतिहास की स्वर्ण गाथाएं जहां के मिट्टी में अभी भी खिलते हैं मजदूरी और मेहनत के फूल पर अफसोस यह है कि इन सबके बीच बिहार की वर्तमान तस्वीर है भूख, गरीबी, अशिक्षा , बेरोजगारी और मजबूर प्रवासी मजदूर।
हम अपनी स्थिति को सुधारने की गुहार लगाते लगाते अपने देश दुनिया को छोड़ मजदूरी में लग जाया करते हैं पर इन गुहारो से बहरी हो चुकी सरकार क्यों हमारा सुध तक नहीं ले पाती है?
ऐसा जानते हैं क्यों क्योंकि हमारे यहां गुहार लगाने की रिवाज है अपना हक मांगने की नहीं और हमें हक का मतलब बताएं भी कौन क्योंकि जब हम बड़े हो रहे होते हैं तब समाज ने हमारे साथ जाति को बड़ा किया होता है जो ना जाने कब हम से भी बड़ा हो जाता है उसके आगे हमें हक , अधिकार कर्तव्य और दायित्व की बात सिखलाए कौन?
आज जब समस्याएं अपने इस विकराल रूप के साथ हमारे सामने सीना तान के खड़ी है तब माथे पर लदी गठरी ,हजारों किलमीटर के सफर में जख्मी हुए पैर भूख की आग में अपनों को पीछे छोड़ जाता यह शरीर हम सबके लिए बस एक ही सवाल खड़ा कर जाता है जिससे हम ना जाने कब से भागे चले आ रहे हैं। आज वक्त आ गया है अपने इस दुर्दशा पर मौन होकर विचार करने की कि आखिर यह किसकी अपराध की सजा हम अब तक भर रहे हैं मेहनत और मजदूरी के साथ दो जून की रोटी के लिए आखिर क्यों पूरे जीवन को दांव पर लगा रहे हैं क्या हमारी माटी में इतनी भी क्षमता नहीं कि वह हमें अपने आंचल में समेट सके!