“गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर: ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः”।।
- भारत में गुरू को ईश्वर से भी ऊपर माने जाने की परंपरा बहुत पुरानी बतायी गयी है। कहा जाता हैकि प्राचीन काल में गुरु और शिष्य के संबंधों का आधार था गुरु का ज्ञान, मौलिकता और नैतिकबल, उनका शिष्यों के प्रति स्नेह भाव, तथा ज्ञान बांटने का निःस्वार्थ भाव ।शिष्य में होती थी, गुरु केप्रति पूर्ण श्रद्धा, गुरु की क्षमता में पूर्ण विश्वास तथा गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण एवं आज्ञाकारिता।अनुशासन शिष्य का सबसे महत्वपूर्ण गुण माना गया है।
- आचार्य चाणक्य ने एक आदर्श विद्यार्थी के गुण इस प्रकार बताये हैं–
“काकचेष्टा बको ध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च ,
अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पञ्चलक्षणम् “
- गुरु और शिष्य के बीच केवल शाब्दिक ज्ञान का ही आदान प्रदान नहीं होता था बल्कि गुरु अपने शिष्य के संरक्षक के रूप में भी कार्य करता था। उसका उद्देश्य रहता था कि गुरु उसका कभी अहित सोच भी नहीं सकते।यही विश्वास गुरु के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा और समर्पण का कारण रहा है।शायद यह अर्ध सत्य है,क्योंकि प्राचीन भारत में समाज के कुछ चुनिन्दा वर्णों के पुरूषों को ही शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिला हुआ था, अधिकॉंश आबादी को शिक्षा के अधिकार से बंचित रखा गया था।ऐसी परिस्थिति में जब समाज के बहुसंख्यक समुदाय को शिक्षा से अलग रखकर एक वर्ग विशेष के द्वारा समाज के चुनिन्दा वर्ग के लोगों के मध्य शिक्षा का प्रसार किया गया हो, तो वह “अंधा बॉंटे रेबड़ी फिर फिर आपै देई” वाली बात हो गयी ना।
- प्राचीन भारतीय साहित्यिक अभिलेखों में उल्लिखित तथ्यों से यह प्रमाणित है कि वैदिक कालीन भारत में चतुर्वर्णीय व्यवस्था के अनुसार केवल सवर्णों अर्थात– ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य वर्ण के पुरूषों को गुरूकुल प्रणाली से शिक्षा प्रदान की जाती थी।इन गुरूकुलों में आधुनिक शिक्षा पद्धति के अनुसार प्रशिक्षित सर्व जातीय शिक्षकों के द्वारा स्कूल / कालेज में पढ़ाई जाने वाली शिक्षा के स्थान पर केवल ब्राह्मण गुरू द्वारा आबादी से सुदूर एकॉंत में स्थित गुरूकुल में वैदिक धर्म ग्रंथों के साथ ही वर्ण व्यवस्था के अनुसार सम्बंधित वर्ण के लिए निर्धारित कार्यानुसार व्यावहारिक शिक्षा सिखायी जाती थी।शिक्षा ग्रहण करने की अवधि शुरू के पच्चीस वर्ष तक होती थी,और इस दौरान विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता था।मनु स्मृति के अनुसार ब्राह्मण जो कि सृष्टि रचयिता ब्रह्मा के मुख से उत्त्पन्न हुए हैं, अतएव मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ हैं |इसीलिए उनके द्वारा कही गयी बातें ईश्वर के मुखार बिन्दु से निकली हुई होने के कारण शेष सभी वर्ण के लोगों के लिए मानना अनिवार्य है तथा सभी के हित में भी है।वैदिक कालीन भारत में इसी सिद्धॉंत के आधार पर सामान्यतया ब्राह्मणों को ही शिक्षक होने का अधिकार प्राप्त था ।यदा–कदा क्षत्रिय एवं वैश्य वर्ण के लोगों द्वारा भी ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लेने के उदाहरण मिलते हैं, लेकिन शूद्र वर्ण को शिक्षा ग्रहण करना पूर्णत: वर्जित ही नहीं अपितु घोर दंडनीय भी था। दशरथ पुत्र राजा रामचंद्र के राजकाल में शंभूक नामक शूद्र वर्ण के व्यक्ति द्वारा अपने समाज के लोगों को जागरूक एवं शिक्षित करने पर ब्राह्मणों द्वारा उसके इस कार्य से ब्राह्मण पुत्र की मौत हो जाने की शिकायत करने पर राजा राम द्वारा शंभूक को दंड स्वरूप बध कर दिए जाने की घटना तत्कालीन व्यवस्था के आदर्श पर सवाल खड़ा करती है। इसी प्रकार महाभारत काल में अवर्ण एकलव्य द्वारा गुरू द्रोणाचार्य की अनुमति के बिना धनुर्विद्या सीख लेने पर गुरू दक्षिणा के रूप में एकलव्य का अंगूठा कटवा लेने की घटना तत्कालीन गुरूओं की निष्पक्षता एवं नि:स्वार्थता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है ?
- यद्यपि ईसा पूर्व छठी सदी मे महात्मा बुद्ध के समय में महिलाओं सहित समाज के सभी वर्णों को धार्मिक कार्यों में सहभागिता दिए जाने की शुरूआत के साथ आम जन को शिक्षा का अधिकार दिए जाने की पहल हो गयी थी, लेकिन इसने गति तब पकड़ी जब ज्योतिबा फुल्ले एवं उनकी पत्नी सावित्री वाई फुल्ले ने 19 वीं सदी में स्त्री शिक्षा के साथ समाज के निचले तबके को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया।अपने इस अद्वितीय कार्य के कारण ज्योतिबा फुले को प्रथम शिक्षक एवं श्रीमती सावित्रीवाई फुले को प्रथम महिला शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त हुआ।तदनंतर आजादी के बाद हमारे देश में लागू की गई लोकतॉंत्रिक व्यवस्था में धर्म, पंथ, समुदाय, वर्ण,जाति या लिंग का भेदभाव किए बिना सभी को समान शिक्षा पाने का हक दिया गया और तदानुसार लागू की गयी शिक्षा व्यवस्था के तहत अनेक प्रसिद्ध भारतीय शिक्षकों ने देश के नव निर्माण में अपना अमूल्य योगदान दिया।इनमें सर्वपल्ली राधाकृष्णन का नाम भी गिना जाता है,जिन्हें न केवल भारत के प्रथम उप राष्ट्रपति एवं द्वितीय राष्ट्रपति होने का गौरव प्राप्त है, बल्कि कहा जाता है कि उन्होंने भारत तथा पश्चिमी देशों के बीच की सांस्कृतिक खाईं को कम करने का अभूतपूर्व कार्य भी किया है।यह भी जनश्रुति है कि जब सन्1962 में श्री डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के द्वितीय राष्ट्रपति के पद पर विराजमान हुए तब कुछ बच्चों ने उनका जन्म दिन मनाने का प्रस्ताव उनके समक्ष रखा,तो उन्होंने जबाब में कहा कि यदि उनका जन्म दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाय तो उन्हे गौरव महसूस होगा।तभी से भारत में प्रत्येक 05 सितम्बर को पड़ने वाले उनके जन्मदिन को उनके सम्मान में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा है।इस प्रकार भारत में मनाया जाने वाला शिक्षक दिवस वस्तुत: डॉ.राधा कृष्णन,जो एक शिक्षक भी रहे हैं,का जन्म दिवस है, जिसे उनके अनुरोध पर उनके सम्मान मे 05सितम्बर सन 1962 से शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा है।जबकि सामान्यतया कोई दिवस उस दिन पर हुई पहली घटना विशेष या उस विषय से जुड़े व्यक्ति विशेष से सम्बंधित दिवस पर मनाने की परंपरा रही है, उस दृष्टिकोण से क्या भारत में शिक्षक दिवस महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले के जन्म दिन पर मनाया जाना अधिक प्रासंगिक न होगा ?