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शिक्षित वर्ग और धर्म

शाम के 5 बज रहे थे, आधुनिक इतिहास की क्लास चल रही थी, तभी सामान्य दिनों की तरह अजान प्रारम्भ हुई, वैसे तो अजान 5 -7 मिनट में हो जाती थी,और इस  बीच क्लास स्थगित हो जाती थी, चूंकि एग्जाम नजदीक था, और हर मिनट कीमती था , तो सर ने हम सभी( लगभग130-140 सिविल प्रतियोगी) के सामने एक सुझाव दिया कि डिप्टी डायरेक्टर महोदया से कहकर इस समस्या का हल निकाला जाय, और इसी बीच उन्होंने कबीर जी का दोहा याद दिलाया, “कंकर पाथर जोड़ के मस्जिद दियो बनाय, ता पर चढ़ी मुल्ल्ला बांग दे, का बहिरा हुआ खुदाइ” |चूंकि इतिहास विषय था, तो समाज में व्याप्त धार्मिक समस्याओं के कारणों पर भी प्रकरण डाला उन्होंने | 

मेरी राय में यहां तक कोई समस्या नहीं थी, विषय अजान का था तो , प्रतिदिन की यह समस्या थीं क्योंकि मस्जिद पड़ोस में ही थी, और क्लास का समय बदलना मुश्किल था, इतिहास नहीं तो किसी अन्य विषय की क्लास हो ही जाती थी, और सभी समान्यतः यही राह अपनाते|

पर  उस दिन सर के सुझाव से ज्यादा, हमारे सहपाठियों का ध्यान कबीर के दोहे पर गया, और बजाय सुझाव के, शिकायत की गई|

मै भी हतप्रथ थी, जब महोदया आयी, और यह कहा कि आप सबने सर को धर्म संबंधी आलोचना करने से मना क्यों नहीं किया

स्वाभाविक सी बात थी , महोदया तक विषय का उद्देश्य नहीं पहुंचाया गया था,  परंतु इससे ज्यादा गम्भीरता की बात यह थी कि एक सिविल अस्पिरेंट होने के साथ हम सब स्नातक से ऊपर के शिक्षित समाज का हिस्सा थे, और हमसे इतनी भी क्या कोई  अपेक्षा नहीं कर सकता कि हम अपनी सोच को इतना  विकसित रखे कि ऐसे विषयों को गहराई से समझे, बजाय ऐसी बातों को तूल देने के|

क्यों हम मूल समस्या का समाधान निकालने की बजाय धर्म का विवाद बना देते है, क्यों हम धर्म से ऊपर नहीं सोचते?

“विद्या ददाति विनयम”

और हम स्कूल, विद्यालय, समाज की संस्थाओं से उम्मीद करते रहते हैं कि वे भेदभाव न करे, परंतु स्वयं शुरुआत नहीं करना चाहते, माना कि भेदभाव हैं , पर यह भी तो समझना आवश्यक है कि कहीं आप स्वयं इसका हिस्सा तो नहीं है? और इसके समाधान क्या हो सकते हैं?

“विद्या ददाति विनयम”

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