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समुदाय की सहभागिता के बिना योजनाएं क्यों नहीं हो पाती हैं सफल?

हमारे देश में बहुत सारी योजनाएं चलाई जा रही हैं। केंद्र से लेकर राज्य और ब्लॉक स्तर से लेकर पंचायत स्तर तक अनेक योजनाएं हैं। इन सभी योजनाओं का अंतिम लक्ष्य समुदाय को लाभ पहुंचाना है। उनके जीवन स्तर को ऊंचा उठाना और क्षेत्र का विकास करना है।

कई योजनाएं कागज़ों पर ही दम तोड़ जाती हैं

कुछ योजनाओं से जनता को सीधा लाभ मिलता है, तो कुछ योजनाएं क्षेत्र के विकास के लिए चलाई जाती हैं। अच्छी बात यह है कि सरकार की इन योजनाओं को सफल बनाने में कई स्वयंसेवी संस्थाएं भी काम करती हैं। लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि इन योजनाओं की समाप्ति के बाद इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं होता है।

अक्सर योजनाओं की अवधि ख़त्म होने के बाद ना तो सरकारी विभाग को इससे कोई सरोकार होता है और ना ही स्वयंसेवी संस्थाएं इस दिशा में कोई प्रयास करती हैं। विशेषकर क्षेत्र के विकास के लिए शुरू की गई परियोजनाओं का तो और भी बुरा हाल होता है।

उत्तराखण्ड राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में सरकार की कोई भी योजना ग्रामवासियों के लिए आजीविका और सुविधा की दृष्टि से वरदान साबित होती हैं लेकिन परियोजना समाप्ति के पश्चात् वही योजनाएं रख-रखाव ना होने के कारण ग्रामीणों के लिए अभिशाप सिद्ध हो रही हैं।

उत्तराखंड राज्य की अटल आदर्श ग्राम योजना पर एक नज़र

वर्ष 2010-2011 में राज्य के 670 गाँवों को अटल आदर्श ग्राम घोषित कर उन्हें सोलर लाईटों से जगमगाया गया था लेकिन महज कुछ वर्षों के अन्तराल के बाद जो मार्ग रोशनी से जगमगा रहे थे, वह आज अंधेरे में डूब गए हैं। वर्त्तमान में उत्तराखंड के घर-घर में बिजली तो पहुंच गई है लेकिन इन घरों तक ले जाने वाले मार्ग काले घने अंधेरे में डूबे हुए हैं।

जो सोलर लाईट खराब हो जाती है वह फिर दोबारा ठीक नहीं हो पाती हैं या इन्हें फिर से रौशन करने के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है।नैनीताल शहर में बैंक हाउस मालरोड के पास स्ट्रीट लाईट पिछले 6 सालों से खराब थी, कई बार शिकायत दर्ज़ कराने के बाद यह ठीक हुई लेकिन मात्र एक महीने में फिर खराब हो गई। जब शहरों में यह हाल है, तो गांवों की स्थिति कैसी होगी, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

अल्मोड़ा जनपद के लमगड़ा विकासखण्ड स्थित कल्टानी गाँव के गोविंद सिंह फत्र्याल कहते हैं, उनके गाँव में वर्ष 2015-16 में उत्तराखण्ड अक्षय ऊर्जा विकास एजेंसी (उरेड़ा) द्वारा 20 सोलर लाइटें लगाई गई थीं।

इसने कुछ समय तक सुनसान अंधेरे रास्तों को दीयों की तरह रौशन कर दिया था लेकिन वर्तमान में 9 लाईटें खराब हो चुकी हैं। जिसे ठीक करने के लिए किसी विभाग द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गई। बार-बार अनुरोध किए जाने पर एक बार सही किया गया जो फिर खराब हो गया।

इस संबंध में उन्होनें सुझाव दिया कि इस प्रकार के कामों को करने के बाद इनकी देखभाल के लिए प्रत्येक छह माह में तकनीकी जांच करवाई जानी चाहिए। परियोजना समाप्ति के बाद भी इनके उचित संचालन की योजनाएं बनाने की आवश्यकता है।

इस संबंध में सिरसोड़ा गाँव के एक सामाजिक कार्यकर्त्ता खीम सिंह बिष्ट कहते हैं कि पूर्व के समय में ग्रामवासी शाम 06.30 बजे के बाद अपने घरों से बाहर कम निकला करते थे।

अंधेरे में जंगली जानवरों का भय और आक्रमण ने उनके मन में डर पैदा कर दिया था लेकिन उनके गाँव में उरेड़ा के अन्तर्गत सोलर लाइटें लगीं, जिससे गाँव वालों का रात में भी आवागमन संभव हो पाया।

अधिकारी फोन पर ही समझा देते हैं लाईट ठीक करने की योजना

उन्होनें बताया कि जब भी यह लाइटें खराब होती हैं, तो संबंधित विभाग को शिकायत दर्ज़ कराई जाती है। कई बार अधिकारी फोन पर ही लाईट ठीक करने की प्रक्रिया समझाते हैं, जो ग्रामवासियों के लिए एक चुनौती बन जाती हैं क्योंकि ग्रामवासी तकनीकी ज्ञान से अनभिज्ञ होते हैं।

खीम सिंह सुझाव देते हैं कि सरकार को चाहिए कि ग्राम स्तर पर योजनाओं के निर्माण के साथ ही ग्रामीणों को प्रशिक्षण भी दे ताकि परियोजनाओं की समाप्ति के बाद, उसका तकनीकी रूप से रख-रखाव सक्षम हो सकें।

राज्य की राजधानी देहरादून में उरेड़ा के साथ काम करने वाले नरेंद्र मोहन इस बात से सहमत हैं कि किसी भी योजना के सफल कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए उचित रखरखाव की आवश्यकता होती है। अगर हम सोलर लाइट के रख-रखाव की बात करते हैं, तो मेरा मानना है कि इन लाइटों पर सब्सिडी देने की पिछली व्यवस्था पर फिर से विचार किया जाना चाहिए।

व्यक्तियों द्वारा समान निवेश इन रौशनी को बनाए रखने के लिए ग्रामीणों पर समान ज़िम्मेदारी डालते हैं। नरेंद्र मोहन ने कहा कि सरकार को उन्हें खुद ही इन लाइटों की मरम्मत करने में सक्षम बनाने के लिए उचित प्रशिक्षण और तकनीकी ज्ञान प्रदान करना चाहिए।

उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि स्व-सहायता समूहों को गाँव में इस तरह की परियोजनाओं की देखभाल करने की ज़िम्मेदारी दी जा सकती है, क्योंकि ये समूह पहाड़ी क्षेत्रों में काफी सक्रिय हैं।

पहाड़ी इलाकों की रीढ़ हैं वन

परियोजना समाप्ति के बाद योजनाओं की दुर्गति की एक और बानगी उत्तराखंड में पौधा रोपण के रूप में देखने को मिलती है। पर्वतीय क्षेत्रों में ग्रामों की रीढ़ की हड्डी कहलाने वाली वन पंचायत जिनमें प्रति वर्ष हज़ारों की संख्या में विभिन्न प्रजातियों के पौधों का रोपण किया जाता है, जो परियोजना के दौरान कागजों में शत प्रतिशत सफल भी होते हैं लेकिन योजना की समाप्ति के तीन माह के भीतर रख-रखाव के अभाव के कारण केवल 55 प्रतिशत पौधे ही जीवित रह पाते हैं।

पर्वतीय क्षेत्रों में वन पंचायत एक खुला चारागाह है, जिस पर जानवरों द्वारा नुकसान पहुंचाया जाना स्वाभाविक है। योजनाओं का जाल इस तरह फैल रहा है कि अधिकांश गाँवों में दो से तीन परियोजनाएं एक समय में समान कार्य कर रही हैं।

प्रत्येक परियोजना का उद्देश्य अधिक से अधिक पेड़ लगाना होता है। इस कारण वन पंचायतों में मात्र 2 मीटर की दूरी पर 2 से 3 ओक के पेड़ (बांज या शाहबलूत एक पेड़ है, जिसका अंग्रेजी नाम ओक (Oak) है) देखने को मिल रहे हैं। यह दूरी इन पौधों के लिए इतनी कम है, जो इन नवीन पौधों का अस्तित्व निश्चित रूप से समाप्त कर देगी।

कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि पौध से पेड़ का सपना पूर्ण करना है, तो रोपण में तकनीकी मानकों का ध्यान रखना आवश्यक है।

जल संरक्षण हेतु विभिन्न परियोजनाओं में खाल खन्तियों का निर्माण किया जाता है जिनका सकारात्मक प्रभाव प्राकृतिक जल स्रोतों, नालों व गधेरों में जल वृद्धि के रूप में देखने को मिल रहा है लेकिन आज भी पूर्व निर्मित खाल-खन्तियों की जीर्ण-शीर्ण हालत को देखकर दुख होता है।

नवीन निर्माण से अच्छा तो होगा कि पूर्व की खाल खन्तियों का रख-रखाव कर उन्हें नवीन किया जाए। इस संबंध में नैनीताल जनपद के घारी विकासखण्ड स्थित जलना नीलपहाड़ी गाँव के पिताम्बर मेलकानी कहते हैं कि उनकी वन पंचायत में डी.एस.टी परियोजना के अन्तर्गत वर्ष 2018-2020 के मध्य खाल खन्तियों का निर्माण सेन्ट्रल हिमालयन इन्वायरमेन्ट एसोसिएशन (चिया) संस्था नैनीताल के माध्यम से करवाया गया।

जिससे ग्रामवासियों को ग्राम स्तर पर कार्य मिलने से आजीविका संवर्धन के साथ-साथ प्राकृतिक जल स्रोतों में जल स्तर में वृद्धि देखने को मिली। वर्त्तमान में 55 परिवार इन संरचनाओं के कारण अपनी पानी की आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम हैं लेकिन प्रश्न यह उठता है कि आने वाले वर्षों में इन संरचनाओं के रख-रखाव के लिए कौन ज़िम्मेदार होगा?

यह सिर्फ उत्तराखंड की बात नहीं है, बल्कि कई अन्य पहाड़ी राज्यों को भी अपनी कठिन भौगोलिक स्वरूपों के कारण सभी मौसमों में विशेषकर अत्यधिक बर्फबारी के दिनों में ऐसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जबकि इन क्षेत्रों का पूरे देश से संपर्क कट जाता है, ऐसी मुश्किल घड़ी में इस प्रकार की परियोजनाओं को बनाए रखना सबसे बड़ा चैलेंज है।

इसलिए इन परियोजनाओं में स्थानीय लोगों की सहभागिता और उनकी क्षमताओं का निर्माण करने तथा उन्हें इस तरह की पहल में सामान रूप से शामिल करना काफी महत्वपूर्ण होगा। यानी समुदायों की सहभागिता के बिना किसी योजना की सफलता अधूरी है, जिसकी तरफ सरकार को ध्यान देने की आवश्यकता है।


नरेन्द्र सिंह बिष्ट,(चरखा फीचर्स), नैनीताल, उत्तराखण्ड

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