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बढ़ती बेरोज़गारी के बीच क्या देश के युवा ही अब सड़कों पर उतरकर क्रांति लाएंगे?

दिन का 1.5 जीबी मुफ्त डाटा आजकल लोगों को उनकी असल बेरोज़गारी का एहसास नहीं होने दे रहा है, शायद उनके सोचने की क्षमता को सीमित किया जा रहा है या उनको पुस्तकों से दूर कर सीमित विचारों के इर्द-गिर्द ही रख के रखा जा रहा है।

दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े एक रिसर्च के विधार्थी ने यह बात हंसते हुए तब बताई जब उनसे यह चर्चा की जा रही थी कि भारत की जीडीपी पिछले कई महीनों से इतनी लड़खड़ा क्यों रही है?

उन्होंने बताया कि देश को मजबूत बनाने वाले युवा तो अपने फोन में इतने व्यस्त है कि वो यह समझने में असक्षम हो गए हैं कि शायद उनके आर्थिक गतिविधि में शामिल होने से किस प्रकार देश की वितीय स्थिति को मजबूत किया जा सकता है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

साथ ही यह भी बताया कि शायद इन्टरनेट आपको पूरे विश्व से जोड़ने की शक्ति रखता हो लेकिन यह कहीं-न-कहीं एक बड़ी संख्या में युवाओं को उनकी प्रतिभा से अनजान ही रखे हुए है, हालांकि उन्होंने यह भी बताया कि यह उनके लिए शोध का विषय है और इसपर शुरुआती अटकले लगाना एकदम गलत हो सकता है।

रोज़गार मिले तो पटरी पर आ सकती है अर्थव्यवस्था

एक वाणिज्य के विद्यार्थी से इसी देश की जीडीपी पर सवाल किया तो उन्होंने रूपए की तरलता, कम आय होना, संगठित क्षेत्र में रोज़गार की भारी कमी होना भी कारण बताया, उन्होंने काफी अच्छे ढंग से समझाने की कोशिश की कि किस प्रकार अगर एक व्यक्ति को रोज़गार दिया जाता है, तो उसके हाथ में हम रूपए की ताकत देते हैं कि वह उसको किस प्रकार से खर्च करता है, कौन-सी सुविधाओं और सेवाओं का इस्तेमाल करता है।

लेकिन इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि उसके पैसे से होने वाली तरलता या कहें कि उस पैसे के खर्च होने से अगले व्यक्ति के हाथ में पैसा आएगा जिसके मुनाफे से वह अपने घर का और उसके मूलधन से अपने व्यापार पर और अधिक खर्च करेगा, जिससे बाज़ार में डिमांड और सप्लाई का नियम चलता रहेगा।

प्रतीकात्मक तस्वीर

साथ में वह व्यक्ति अपने लिए अगर जीवन-बीमा खरीदता है, बच्चों को अच्छी शिक्षा देता है, तो सरकार को भी उनके वेलफेयर पर कम पैसा खर्च करना पड़ता है, जिससे सरकार अपने धन को अन्य महत्वपूर्ण जन कल्याण की योजनाओं में खर्च कर सकती है।

कहने का मतलब यह है कि एक व्यक्ति को रोज़गार देने का मतलब है कि आप एक परिवार को ऊपर उठा रहे हैं यानी उनकी शिक्षा के स्तर को उठा रहे हैं, उनके स्वास्थ्य का स्तर उठा रहे हैं और सही मायनो में उन्हें, सरकार की जन-कल्याणकारी योजनाओं के इस्तेमाल से बचाकर आत्मनिर्भर बना रहे हैं, इतना ज़्यादा आत्मनिर्भर कि वह दिन-प्रतिदिन सामान खरीदकर देश को ही भरी-भरकम टैक्स भर रहा है।

एक हास्य कवि से देश की जीडीपी के विषय में बात की गई, तो उन्होंने बताया कि भारत देश एक क्रांतिकारियों का देश है और इतिहास इस बात का गवाह रहा है, “जब भी किसी राज्य, समाज या धर्म में अस्थिरता आई है, तो क्रांतियों का जन्म हुआ है और जीडीपी के सुधार के लिए भी नई क्रांतियों की आवशयकता है। उन्होंने बताया,

“देश में क्रांति को जन्म देने वाले समाज के युवा होते हैं, जब भी देश का युवा खुद को किसी सामाजिक समानता या समाजिक न्याय से वंचित पाता है, तो उसके मन की व्याकुलता इस समानता को पाने के लिए उसे पीड़ित बनाने लगती है और उसकी यही पीड़ा उसके विचारों में क्रांति का समावेश कर उसकी कुंठा को और भी ज़्यादा बढ़ा देती है, इसके बाद क्रान्ति का निर्माण करने में अहम भूमिका निभाती है।”

वे आगे कहते हैं, “यह समय कुछ ऐसा ही है जब देश का युवा या तो रोज़गार के अभाव से कुंठित है या निजी क्षेत्र में बढ़ते हुए शोषण से।”

विरोध करते छात्र प्रतीकात्मक तस्वीर

21वीं सदी में जिस प्रकार शिक्षा ने दोबारा नई गति पकड़ी है उसने साक्षर से शिक्षित होने का फासला काफी कम कर दिया है। उदाहरण के तौर पर विश्व की सबसे बड़ी पार्टी के सबसे बड़े नेता का स्वागत जिस प्रकार देश के युवाओं ने एक बट्टन दबाकर किया है, उसने बड़े-बड़े लोगों की नींद खराब कर दी या कुछ बूढ़े हो रहे शरीर में नई जान फूक दी है।

देश का युवा अब उस हद तक जागरूक हो चुका है जब वो देश के प्रथम नागरिक द्वारा चयनित “पार्टी”  के लोगों को उसकी वर्तमान ज़िम्मेदारी का अहसास करा सकता है लेकिन देश का प्रशासन अभी भी नींद से नहीं जागना चाहता, तो शायद जल्द ही यह उनकी आखरी नींद होगी।

क्योंकि भूखा मज़दूर, आक्रोशित युवा और न्याय के लिए टूटता सब्र ज़्यादा दिन तक उसी अवस्था में नहीं रह सकता जिसमें प्रशासन उसे रखे हुए है, तो जल्द ही आपको देश की सड़कों पर कुछ नई विचारधारा के लिए क्रांति दिखाई दे सकती है।

यही कहकर कवि ने अपनी बात ख़त्म की लेकिन अभी समस्याएं और सवाल काफी हैं।

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