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प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा का आईना है भोजपुरी रैप “का बा”

अभिनेता मनोज बाजपेयी का पहला भोजपुरी रैप वीडियो “बबंई में का बा” आने वाले समय में भोजपुरी गीत-संगीत में मील का पत्थर साबित होगा। कुछ दिनों पहले यूट्यूब पर रिलीज़ हुआ यह नया भोजपुरी रैप वीडियो लोकप्रियता का नया आयाम गढ़ने वाला है।

इस भोजपुरी रैप के लेखक जेएनयू के मेरे वरिष्ठ साथी डॉ. सागर हैं। उन्होंने इस भोजपुरी रैप में बिहार-यूपी से मुबंई आने वाले प्रवासी मज़दूरों की उस पीड़ा को अभिव्यक्त किया है, जो इन मज़दूरों के आंसूओं में ज़ब्त हो जाती हैं। महानगरों की भागदौड़ में जब किसी को अपने जैसा साथी मिलता और बात करता है, तो आंख का एक कोर गीला हो जाता है और मन भीग जाता है।

डॉ. सागर, मनोज वाजयेयी, अनुभव सिन्हा और अनुराग सैकिया की जुगलबंदी है यह वीडियो

सागर, मनोज वाजयेयी, अनुभव सिन्हा और अनुराग सैकिया ने इस म्यूज़िक वीडियो को अचानक से जारी कर उस डिबेट के चिल्ल-पों में थोड़ी देर का सुकून भरा अल्प विराम दिया, जो सुशांत सिंह की मौत से शुरू होकर पूरी तरह से भटक चुकी है। फिर से उस मंज़र को ज़हन में हरा कर दिया है। जो कहीं-ना-कहीं हमारी जैसी पीढ़ी को विभाजन के बाद सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी लगती है।

सत्तर-अस्सी के आस पास आई पीढ़ी के पास तो भारत विभाजन का कोई भी अनुभव किताबों, फिल्मों और डाक्यूमेंट्री से ही होता होगा। कोरोना महामारी में इस पीढ़ी ने देख लिया कि जब सरकारें निकम्मी होती हैं, तो मानवीय त्रासदी सड़कों पर दम तोड़ने लगती है।

हम सब जानते हैं कि कोरोना संकट में दुनिया काफी बदल चुकी है। जबकि इस संकट में तमाम हो रहे बदलाव के कारण सबसे अधिक प्रभावित जो तबका है, वह प्रवासी मज़दूरों का तबका है। जो दो वक्त की रोटी के किए अपने घर के पास रोज़गार के साधन नहीं होने के कारण अपने ही गाँव से पलायन करने के लिए विवश हैं। उनकी पीड़ा के साथ-साथ उनकी सारी संवेदनाओं को भोजपुरी शब्दों में पिरोने की कोशिश डॉ. सागर ने बड़ी शिद्दत से की है, वह अपनी बात पहुंचाने में कामयाब भी रहे हैं।

भोजपुरी रैप क्या साबित करता है?

डॉ. सागर ने भोजपुरी भाषा में अपनी शानदार अभिव्यत्ति से उन तमाम फूहड़ और अश्लील भोजपुरी गीत लिखने और गाने वालों को ज़मीन पर लाकर पटक दिया है, जिन्होंने गैर-भोजपुरी भाषी के मन में भोजपुरी भाषा और समाज को लेकर घटिया सोच दर्ज़ कर दी है। यह भोजपुरी रैप साबित करता है कि किसी भी भाषा के गीत लिखने के लिए अगर गीतकार के अंदर मानवीय संवेदना, अस्मिता और भाषा की गरिमा का बोध नहीं हो, तो वह अश्लील और छिछली बात ही करेगा। भाषा-भाषायी सभ्यता संस्कृत्ति की गरिमा को धूमिल ही करेगी।

हालांकि पूरे भोजपुरी रैप में जिस संवेदना और तकलीफ की अभिव्यक्त्ति है वह पुरुष समाज से अधिक जुड़ती है। जबकि वीडियों में कई बार प्रवासी मज़दूर महिला या उनके परिवार की महिलाएं भी दिखती हैं। महिलाओं के साथ जुड़ी प्रवासी पुरुष की संवेदना आती है और चली जाती है। यह धारणा थोड़ा सा कचोटती है कि क्या प्रवासी मज़दूर केवल पुरुष समाज है उसमें महिलाएं शामिल नहीं हैं। डिबरी की तरह घटने का प्रवासी मज़दूर और आटो रिक्शा में मच्छर काटने वाले प्रवासी मज़दूर केवल पुरुष तो नहीं ही हैं।

साथ ही साथ यह भी कचोटता है कि क्या डॉ सागर जैसा संवेदनशील व्यक्ति जेएनयू के अपने ट्रेनिंग में स्त्री संघर्ष के संवेदना से अनजान रहा होगा? इस पर विश्वास नहीं होता। यह हो ही नहीं सकता है कि सांस्कृतिक परिवेश की छोटी-छोटी बातों को पकड़ कर उनको गीतों में पिरोने वाला व्यक्ति इससे अनजान कैसे रह सकता है? वह भी जेएनयू जैसी जगह में।

“का बा” गाने का रिव्यू जेंडर आधार पर नहीं किया जा सकता है

डॉ. सागर ने बीबीसी के साथ अपने इंटरव्यू में यह बात कही है कि महिलाओं का पक्ष रखने का प्रयास जारी है। जल्द ही वह सतह पर आएगा और उम्मीद है सभी को पसंद भी आएगा। उनकी इस घोषणा के बाद “का बा” गाने का रिव्यू जेंडर आधार पर नहीं किया जा सकता है। रिव्यू का आधार गीत में इस्तेमाल किए गए शब्द और शब्दों से पैदा हो रहे बिम्म या प्रतिबिंब हो सकते हैं। डॉ. सागर ने एक-एक शब्द इतनी सजगता और तारत्मयता में पिरोया है कि वह गीत की बोली बनते ही निखर जाते हैं।

“चला बाबू बड़ा लंबा रास्ता बा, जबले जान रही गोड़ चलत रही, बाबू चल-चल ना, हम बानी नू अरे कुछ ना, 1500  किलोमीटर कहत आडू, अरे चल जाई, आदमी ऐ चल जाई, चल जाई, अरे बस भोलेनाथ के नाम लियाचल बाड़ बोल बम बोल बम।”

पूरा गीत अपनी तमाम संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने के बाद अंत में जब इन शब्दों के पास पहुंचती है, तब फिर से दिमाग के दरवाज़े पर पैदल जाते हुए प्रवासी मज़दूरों की तस्वीर एक साथ दौड़ने लगती है।  यह शब्द हथौड़े की तरह कान में ठक-ठक बजते हैं और “का बा” का रैप जो नशा पैदा करता है उसको उतार भी देते हैं।

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