बिहार देश का पहला राज्य है जहां महिलाएं मतदान में पुरुषों के अपेक्षा बढ़-चढ़कर मतदान करती हैं। बिहार में 2015 और 2019 के विधानसभा और लोकसभा चुनावों में महिलाओं की बढ़ी हुई भागीदारी ने पुरजोर तरीके से यह साबित किया है कि उनकी दुनिया घरों में रसोई तक सीमित नहीं है।
बिहार की आधी आबादी ने अपनी राजनीतिक चेतना का परिचय देकर यह बतलाने का प्रयास भी किया है कि उनके मुद्दे वह नहीं हैं जो पुरुषों के भी है। किसी भी चुनाव में महिला मतदाताओं की बढ़ती भागीदारी से राजनीतिक दलों में भी यह समझदारी विकसित करनी पड़ी है कि उनको अपने विज़न एजेंडा में महिलाओं को भी ध्यान में रखना ही होगा।
बिहार के गौरवशाली पुननिर्माण में पंद्रह साल के अपनी सरकार में बच्चियों, लड़कियों और औरतों को ध्यान में रखकर कई समावेशी नीतियों पर काम भी किया। जिसके कारण बिहार के सामाजिक जीवन में हर पब्ल्कि स्पेस में महिलाओं की मौजूदगी दिखती भी है।
इससे इंकार नहीं किया जा सकता है लेकिन बिहार का सोशल स्पेस आज भी महिलाओं के लिए मर्दों के तुलना में समान्य नहीं है सामाजिक मानसिकता आज भी सोसल स्पेस में महिलाओं की मौजूदगी को समान्य तरीके से नहीं देखता है। मसलन, बस, आटो, टैम्पू से लेकर सड़क पर भी अश्लील गीत-संगीत बजते रहते है और महिलाओं के लिए गर्व का विषय तो कभी नहीं हो सकता है, इसको बढ़ाने की ज़रूरत है।
बिहार में महिलाएं किसको करेंगी वोट?
बिहार का समाज अपनी सोच में लड़कियों को लेकर काफी पितृसत्तात्मक और सामंतवादी होने के साथ-साथ जातिवादी भी रहा है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बिहार के पहले नेता है जिन्होंने अपने वोट बैंक का विस्तार महिलाओं के बीच किया है, महिला मतदाताओं के बीच उनको लेकर अनिश्चिता की स्थिति भी नहीं होगी।
राजनीतिक और सामाजिक चेतना से जागृत आर्थिक रूप आत्मनिर्भर और समान्य महिलाएं भी नीतीश कुमार से यह उम्मीद करेगी कि वह सामंतवाद, जातिवाद के मिले-जुले पितृसत्तात्मक मूल्यों को बदलकर महिलाओं के लिए सामाजिक न्याय और विकास का कोई मॉडल उनके सामने रखे। जिससे बिहार में महिलाओं के हित में समतामूलक और महिलाओं के लिए एक संवेदनशील महौल का निमार्ण हो सके।
अपने शासनकाल में मुख्य़मंत्री नीतीश कुमार पंचायतों, नगर निगम, सरकारी नौकरियों में महिला आरक्षण देकर, लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री के शासनकाल में महिलाओं को पीरियड्स लीव का अधिकार देने के कदम से जो आज भी पूरे भारत में लागू नहीं है, उससे काफी आगे निकल जाते है लेकिन मुख्यमंत्री नीतिश कुमार अपने 15 साल के कार्यकाल में विधानसभा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए विधानसभा में कामयाब नहीं हो सके।
चूंकि उन्होंने महिलाओं की सामाजिक भागीदारी बढ़ाने में अपनी महत्ती भूमिका का निर्वाह किया है इसलिए उनकी यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने में टिकट वितरण में भी महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करे। उनकी यही भूमिका शेल्टर होम्स कांड में उनके मुंह पर लगी कालिख को पोछ तो नहीं सकती, उसको धुंधला ज़रूर कर सकती है।
राजनीतिक चेतना बढ़ाने की है ज़रूरत
इसमें कोई दो राय नहीं है कि नीतीश कुमार की कार्यकाल में पोशाक योजना, मुख्यमंत्री साईकिल योजना, लड़कियों के लिए स्कूल कॉलेज में मुफ्त शिक्षा और स्नातक या परास्नातक पास करने पर नगद इनाम योजनाओं से लड़कियों की हिस्सेदारी उन जगहों पर भी बढ़ी है, जहां एक दशक पहले तक पुरुषों का अधिकार हुआ करता था। आज बिहार में महिलाएं अगर पब्लिक स्फीयर में पहले से अधिक दिख रही है, तो इसमें महिलाओं को लेकर नीतीश कुमार सरकार की नीतियों का रोल प्रमुख रहा है।
आधी आबादी की वास्तविक हिस्सेदारी बिहार की राजनीति में भी हो, इसको सुनिश्चित करने के लिए महिलाओं में जिस राजनीतिक चेतना की ज़रूरत थी। वह पंचायत, नगर निगम, सरकारी नौकरियों और पब्लिक स्पेस में उनकी मौजूदगी से दिखने लगा है। आधी आबादी की राजनीतिक भागेदारी बढ़ाने के लिए अगर एक दल भी हल्का-सा प्रयास करे, तो अन्य राजनीतिक दलों पर भी उसका असर पड़ता है।
महिलाओं के विधानसभा में आरक्षण के अभाव में यह एकमात्र कदम मील का पत्थर साबित हो सकता है और यह प्रयास मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कर सकते हैं। उनका यह प्रयास बिहार के पितृसत्तात्मक और सामंतवादी माहौल को तोड़ने में बहुत बड़ा हथौड़ा साबित होगा, क्योंकि अब बिहार चुनाव के तमाम पोस्टरों में महिलाओ की मौजूदगी सिरे से गायब है।