वैसे कमाल के लोग रहे होंगे, जिन्होंने हमारे संविधान (कानून) को जन्म दिया? आप गौर करिए तो पता चलेगा, देश का कानून खुद अजीबो-गरीब स्थिति पैदा करता है, कई मुद्दों पर अपनी ही बात को अगले किसी पन्ने में काट देता है।
सबसे पहला और बड़ा भेद समझ लीजिए
संविधान कहता है कि भारत एक धर्मनरपेक्ष देश है, इसका सरल भाषा में अर्थ होता है, किसी तरह के धार्मिक या जातिगत भेदभाव को ना मानने वाला देश। फिर वही संविधान मौलिक अधिकार में कहता है,
हर भारतीय नागरिक को अपने-अपने हिसाब से किसी भी धर्म, जाति को मानने, उन्हें कभी भी बदलने का अधिकार है।
इसका सरल भाषा में अर्थ होता है, कोई भी किसी भी तरह के धार्मिक और जातिगत चोले को जितना चाहे ओढ़ सकता है, उसको कोई कानून रोक नहीं सकता है।
दूसरा बड़ा भेद देखिए, संविधान कहता है,
भारत का हर नागरिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएगा और दूसरों को भी इस दृष्टिकोण के लिए तैयार करेगा।
फिर वही संविधान उन्हीं लोगों को अपने धार्मिक, जातिगत बातों को मानने, उन्हें पूजने, उन्हें उत्सव मानने की आज़ादी भी देता है।
यह दो भेद मात्र मैंने बताए हैं, ऐसे आपको बहुत सारे भेद मिल जाएंगे। अब सवाल यह है, क्या संविधान निर्माताओं को यह पता था कि इस देश में जातिगत भेदभाव मिटाया नहीं जा सकता है? दरअसल, धर्मवाद और जातिवाद के कारण अंदरुनी विद्रोह सदियों से भारत देखता आ रहा था, उसे भी सत्ता को दबाना था, इसलिए बीच का रास्ता निकाल लिया गया, जिससे सभी तरह के लोग खुश हो जाए।
जो धर्मवाद जातिवाद के पोषक रहे हैं, उन्हें बल मिल जाएगा, कानूनी तौर पर उसको मानने का और सींचने का। वहीं जो धर्मवाद और जातिवाद के शोषित रहे हैं, उनको बल मिल जाएगा खुशी मनाने का, कानूनी तौर से समानता का, ऊंच नीच और शोषण से आज़ादी।
तीसरे तरह के लोग ही बहुत कम थे, तब शायद भारत में इसलिए उन्हें किसी तरह का धर्मवाद या जातिवाद ना मानने का अधिकार मिल गया और वह उसमें ही खुश हो गएं लेकिन देश की आज़ादी के बाद से आज तक की ज़मीनी हकीकत इन सभी मुद्दों पर क्या रही है? सब जानते ही हैं, धर्मवाद और जातिवाद की जड़ें आधुनिक भारत में और मज़बूत हुई हैं। उसका साफ असर भी अब और खुलकर दिखने लगा है, कोई कभी भी किसी का भी सार्वजनिक रूप से धर्मवाद या जातिवाद के नाम पर कत्ल कर रहा है।
- क्या इस अंदरुनी कलह के लिए हमारी न्याय प्रणाली ज़िम्मेदार नहीं है?
- क्या उसे नहीं दिखा 65, 70 सालों में आपकी बनाई गई व्यवस्था को इस देश ने कैसे लिया है?
- उसको ज़मीनी स्तर पर कितना माना गया है?
- क्या ऐसी विभाजनकारी कानूनी व्यवस्था ने कट्टरवाद को बढ़ावा नहीं दिया है?
आज देश में खुलेआम धर्म के नाम पर कितने ही संगठन खुलेआम गुंडई कर रहे हैं और उनको अपने राजनीतिक फायदे के लिए राजनीतिक दल इस्तेमाल कर रहे हैं, इनको सपोर्ट कर रहे हैं। क्योंकि आपके कानून के हिसाब से वे यह करने की आज़ादी रखते हैं और इन सबके बीच हम दशकों से इस भ्रम में जिए जा रहे हैं कि एक दिन भारत धर्मवाद और जातिवाद से ऊपर उठकर जीने वालों का देश होगा।
लगभग सभी राजनीतिक दल यही सपना दिखाए जा रहे हैं, जबकि उनकी खुद की राजनीतिक दुकानें धर्मवाद और जातिवाद की मज़बूत जड़ों को और मज़बूत करने से ही चल रही हैं। ऐसे में अगर कोई यह सपना देख रहा है कि भारत कभी धर्मवाद, कट्टरवाद या जातिवाद जैसी बीमारियों से ठीक हो जाएगा, तो उन्हें उठकर ठंडे पानी से मुंह धो लेना चाहिए, ताकि उन्हें पता चल जाए कि यह सिर्फ एक कोरा सपना देख रहे हैं, जो कभी हकीकत नहीं बनेगा।