7 अगस्त 2016 को मेरा आई.ए.एस का पेपर था. पिछले एक दो महीने मैं कुछ व्यक्तिगत कारण से पढाई पर ज़्यादा ध्यान नहीं दे पाया. व्यक्तिगत कारण ऐसे जो टाले नहीं जा सकते थे. फिर मेरा पेपर हुआ. पेपर अच्छा ही गया. लेकिन इतना अच्छा नहीं की क्वालीफाई करूँ. लेकिन मैं तनिक भी विचलित नहीं हुआ. जब घरवालों ने मुझसे पूछा तो मैंने उनको बता दिया की ये “एक्ट ऑफ़ गॉड” है. और जो एक्ट गॉड का है भला हम कौन उसे टाल सकते हैं. मैं जो अंतिम के दो महीने तबियत ख़राब होने की वजह से नहीं पढ़ पाया वो एक्ट ऑफ़ गॉड था. तबियत सही होना अपने हाँथ में नहीं होता. बात ये भी सच है की मैंने उसके पहले भी कोई ज़ोरदार तैयारी कर के नहीं रखी थी. लेकिन अंत के दो महीने ने मुझे हौसला दिया. की गलती मेरी नहीं है. हालत की है. भगवान् ने जब बैंक के अधिकारी बनने के लिए नियुक्त किया था तब जिलाधिकारी का ख्वाब सँजोना काफ़िर होने के बराबर ही था.
वैसे भी कुछ होना न होना सब भगवान् के ही हाँथ में होता है. जब गॉड ने सोच लिया था की इकोनॉमी डूबेगी, और चटखारे लेके डूबेगी तो थोड़े न कोई सरकार, कोई व्यवस्था कुछ उखाड़ सकती है. पत्ता का हिलना तक भगवान् के हाँथ में होता है. ये तो अर्थशास्त्र है. अर्थशास्त्र वैसे भी गॉड पे ही छोड़ देना चाहिए. कम से कम उनसे हम मन की बात तो कर सकते हैं. ईश्वर को प्रसन्न रखिये, जी.डी.पी प्रसन्नचित रहेगी. जय हिन्द!