Site icon Youth Ki Awaaz

बाढ़ से परेशान किसान अब झेल रहा है कृषि बिल 2020 की मार

कृषि सुधार विधेयक 2020 के समर्थन और विरोध में दिए जा रहे तर्कों के बीच किसानों का भविष्य उलझ कर रह गया है। सरकार इस बिल को जहां ऐतिहासिक और किसान हितैषी बता रही है, वहीं विपक्ष इसे किसान विरोधी बता कर इसका विरोध कर रहा है।

प्रतीकात्मक तस्वीर, तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

हालांकि इस राजनीतिक उठापटक से दूर किसान आज भी देश का पेट भरने की चिंता में लगा हुआ है। इतना ही नहीं न्यूनतम समर्थन मूल्य के दांव पेंच के बीच जहां उसे फसल का वाज़िब दाम मिलने और जमाखोरों से छुटकारा पाने की चिंता है, वहीं सूखा और बाढ़ से भी अपनी फसल को बचाने की जद्दोज़हद कर रहा है।

विभिन्न हिस्सों में भयंकर बारिश और बाढ़ से भी परेशान हैं किसान

इस समय देश के विभिन्न हिस्सों में भयंकर बारिश और बाढ़ से कई समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं। खासकर खेती-किसानी और पशु-पालन बहुत अधिक प्रभावित हो रही है। लाखों हेक्टेयर ज़मीन पानी से अब भी लबालब है। गुजरात, असम, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश समेत बिहार के 19 ज़िलों के लगभग एक करोड़ से अधिक लोग बाढ़ से प्रभावित हैं।

वर्ष 1987 में बिहार में आई बाढ़ की त्रासदी ने लाखों लोगों की ज़िंदगी को प्रभावित किया था। हालांकि इससे सीख लेते हुए लोगों ने अपने घरों को ऊंचा तो कर लिया लेकिन किसे पता था कि इस वर्ष के बाढ़ में उनका खेत-खलिहान जलमग्न हो जाएगा।

प्रतीकात्मक तस्वीर

हज़ारों परिवारों के घरों में पानी घुस गया। खुद के रहने-सहने के लिए लोग दूसरे पर आश्रित हो गए हैं। ना तो खेतों में हल चलाने की जगह बची और ना ही उसमें मज़दूरी करने वालों के लिए काम।

परिणामस्वरूप पलायन करने वाले श्रमिकों की तादाद भी बढ़ गई है। सारी फसलें डूब चुकी हैं। किसानों की चिंता यह भी है कि पशुओं के लिए चारा कहां से आएगा? बाढ़ प्रभावित लोगों के अनुसार सरकारी योजना का लाभ भी समान रूप से नहीं मिल रहा है।

इस संबंध में बिहार के मुजफ्फरपुर ज़िला प्रशासन ने बाढ़ पर एक विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत किया है, जिसमें कहा गया है कि इस वर्ष जून और जुलाई महीने में 469 मिली मीटर सामान्य से लगभग दोगुनी 894 मिली मीटर बारिश हुई है। जिससे भयंकर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गई है। इस प्रलयकारी बाढ़ से एक ओर जहां सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया तो वहीं खेतों में खड़ी फसलें भी डूब गईं हैं।

क्या कहते हैं किसान?

ज़िले के जलीलनगर गाँव के किसान अमरनाथ कुमार बताते हैं कि पहले बाढ़ आती थी तो किसानों में खुशियां छा जाती थीं, क्योंकि बाढ़ के पानी से मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती थी। यही कारण है कि बाढ़ समाप्त होते ही फसलें लहलहा उठती थीं लेकिन बदलते समय के साथ यही बाढ़ विनाशकारी साबित होता जा रहा है। इंसान और मवेशियों के हताहत होने के साथ-साथ बड़ी संख्या में फसलें भी तबाह होने लगी हैं।

वास्तव में इंसानों ने पहले से अधिक विकास ज़रूर किया है लेकिन बाढ़ से निपटने की तैयारी के मामले में हमारी व्यवस्था बिल्कुल फेल होती जा रही है। इस बार की बाढ़ ने तो आर्थिक, सामाजिक और शारीरिक रूप से अधिक नुकसान पहुंचाया है। पहले से ही कोरोना ने आर्थिक रूप से कमर तोड़ रखी थी और अब बाढ़ की विभीषिका ने इस नुकसान को और भी बढ़ा दिया है।

स्थानीय निवासी रघुवीर ठाकुर कहते हैं कि पहले जब बरसात आती थी, तो वह नदियों के द्वारा पहाड़ों से भारी मात्रा में खनिज और नई मिट्टी (गाद) लेकर आती थी। जिससे खेतों में हरियाली छा जाती थी। खनिज पदार्थ कृषि के लिए सोना है और कृषकों के लिए खजाना। बाढ़ तो कुछ दिनों तक रहती थी लेकिन यह खनिज रूपी खजाना भूमि की उर्वरता को बढ़ाकर सालों-साल लोगों को अपेक्षाकृत लाभ पहुंचाती थी लेकिन अब यही नदियां प्रलयकारी बाढ़ के साथ हाहाकार मचा देती हैं। फसलें पूरी तरह से चौपट हो जाती हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर

सामाजिक कार्यकर्ता नीरज कहते हैं कि बाढ़ आने की वजह भारी बारिश ही नहीं, बल्कि जल संधारण क्षमता में रूकावट पैदा होना भी है। ऐसा माना जाता है कि मौसम संबंधित तत्व, बादल फटना, गाद का संचय, मानव निर्मित अवरोध और वनों की अंधाधुंध कटाई आदि कारणों से भी बाढ़ की समस्या गंभीर होती जा रही है। दूसरी ओर विकास के नाम पर तेज़ी से किए जा रहे अवैध निर्माण कार्यों ने भी इस समस्या को और गहरा बना दिया है।

इसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा किसानों को भुगतना पड़ रहा है। इसका एक उदाहरण मुज़फ़्फ़रपुर के पारू ब्लॉक स्थित चौर के बीचो-बीच रामपुर चौक से बसंतपुर जाने वाली सड़क है, जिसे विकास और सुगम आवागमन के नाम पर ऊंचा कर दिया गया, इससे पानी निकलने का रास्ता बाधित हो गया। ऐसे में बाढ़ के समय क्या परिस्थिति होती होगी इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

सरकार की ओर से बाढ़ राहत से जुड़ी जानकारियां देते हुए कृषि सलाहकार दिलीप कुमार कहते हैं कि राज्य सरकार की ओर से फसल क्षति होने पर किसानों को लाभ दिए जाने का प्रावधान है। जिसमें फसल बीमा के साथ-साथ विभिन्न आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है।

वहीं चांदकेवारी पंचायत की मुखिया गुड़िया देवी बताती हैं कि राज्य सरकार बाढ़ पीड़ित परिवार को आर्थिक मदद के तौर पर बैंक खाते में तत्काल 6000 रुपए उपलब्ध करा रही है लेकिन किसानों के लिए यह सहायता अस्थाई है। जिसका तात्कालिक लाभ तो मिल जाता है लेकिन यह दूरगामी उपाय नहीं है।

बाढ़ के स्थाई समाधान के लिए सरकारी स्तर पर बेहतर पहल करने की ज़रूरत है। लाखों का अनुदान बांटने से अच्छा है कि बाढ़ की त्रासदी से निपटने के लिए आपदा प्रबंधन विभाग के अलावा सरकारें भी पूरी गंभीरता से किसानों के विकास पर नए तरीके से सोचे। बाढ़ के कारण उन्हें वर्षों की कमाई गंवानी पड़ती है।

ऐसे में सरकारी स्तर पर किसानों की क्षति पूर्ति का सही आकलन करके उन्हें उचित लाभ पहुंचाने की ज़रूरत है। बीमा केवल खेत का ही नहीं, बल्कि किसानों का भी होना चाहिए ताकि किसान के परिवारों को विपरीत परिस्थितियों में कुछ सहारा मिल सके।

जबतक हमारे किसान-श्रमिकों के हितों की रक्षा नहीं की जाएगी, तब तक भारत आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त नहीं हो सकता है। समय की मांग है कि इस वक्त किसानों को अध्यादेश के साथ-साथ बाढ़ की विभीषिका से बचाने की ज़रूरत है।


यह आलेख अमरेंद्र कुमार ने मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार से चरखा फीचर के लिए लिखा है www.charkha.org 

Exit mobile version