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मौजूदा लोकतंत्र में भारतीय मीडिया कहां खड़ी है?

हाल ही में अंतराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस मनाया गया है लेकिन निष्पक्ष भारतीय मीडिया के लिए यह रोकतंत्र दिवस जैसा रहा होगा और यह दिवस निरंतर कई वर्षों से बरकरार है। कहते हैं मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होता है लेकिन क्या सच में ऐसा है? लोकतंत्र में मीडिया को विपक्ष की भूमिका में होनी चाहिए जो सरकार के सही कदम की सराहना अवश्य करें लेकिन गलत फैसलों का पुरज़ोर विरोध भी करे।

अग्रेज़ों के वक्त भी होता रहा पत्रकारिता का दमन

भारत में पत्रकारिता के इतिहास पर नज़र डाले तो देखेंगे कि भारत का पहला समाचार पत्र ‘बंगाल गज़ट’ एक अंग्रेज़ जेम्स ऑगस्टक हिक्की द्वारा प्रकाशित किया गया। हिक्की को भारत में पत्रकारिता का जनक भी माना जाता है। हिक्की नें भारत में अंग्रेज़ो के भष्ट्राचार को निष्पक्षता और निडरता से प्रकाशित किया, यहां तक कि उच्च अधिकारी और वायसराय वाॅरेन हेस्टिंग्स तक के काले कारनामों को उजागर किया।

प्रतीकात्मक तस्वीर

इस बात से खफा प्रशासन ने तमाम कोर्ट केस किए, प्रेस तोड़ डाले। हिक्की को तब तक टाॅर्चर किया जब तक ‘बंगाल गजट’ का प्रकाशन बंद नहीं हो गया। हांलाकि हिक्की से प्रेरणा लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में भारतीयों ने पत्रकारिता की शुरूआत की लेकिन अंग्रेज़ अफसरों ने हर किसी का दमन जारी रखा।

अंग्रेज़ विरोधी समाचार-पत्र और पत्रकारों का दमन 1947 तक जारी रहा। इस दौरान अंग्रेज़ विरोधी समाचार, कहानी, निबंध हर चीज़ को जब्त किया और उसे नष्ट कर दिया गया। प्रेमचंद की पहली रचना ‘सोज़े-वतन’ भी इसी आग की भेंट चढ़ गयी। हांलाकि आज़ादी के बाद समाचार-पत्र और पत्रकारों को खुली छूट मिली। आखिर उन्हें ‘फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन’ का अधिकार मिल चुका था।

लोकतांत्रिक देश में ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ का महत्व

एक लोकतांत्रिक देश में ‘फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन’ का बहुत ज़्यादा महत्व होता है। इसकी एक बानगी देखिए भारत-चाइना के संबंध बिगड़ने के शुरूआती दौर में मुम्बई के प्रदर्शनकारियों ने रिपब्लिक ऑफ चाइना के फाउंडर माओ के तस्वीर पर टमाटर और अंडे फेंके जिसे किसी विदेशी पत्रकार नें अपने समाचार-पत्र में प्रमुखता से प्रकाशित किया।

बात जब चाइना पहुंची तो तात्कालिक राष्ट्रपति चाओ एन लाई ने नेहरू को पत्र लिखकर इस बात का विरोध किया और इसे चीन की बेज्जती समझते हुए प्रदर्शनकारियों पर कार्यवायी की मांग की। उनके इस पत्र पर दो टूक जवाब देते हुए नेहरू ने कहा कि यह भारत-चाइना नहीं है, यह एक लोकतांत्रिक देश है, यहां लोग विरोध के नाम पर मुझे और गाँधी जी को नहीं छोड़ते तो भारतीयों के लिए माओ क्या चीज़ है?

नेहरू के इस जवाब से चाउ एन लाई बौखला गये थे, क्योंकि माओ चाइना में पूजनीय थे। नेहरूकाल तक मीडिया ने विपक्ष की भूमिका निभाई। आज़ादी के बाद देश को नव निर्माण के दौर से गुज़रना था जिसमें मीडिया ने सरकार की हर छोटी-बड़ी गलतियों की आलोचना की। उस दौर को भारतीय पत्रकारिता का स्वर्णिम युग माना जाता सकता है।

सरकारें करती रही हैं मीडिया पर कंट्रोल

इंदिरा काल में इमरजेंसी के दौरान एक बार फिर पत्रकारिता के दमन का दौर शुरू हुआ। कहते हैं उस वक्त पूरा अखबार काला होकर आता था, क्योंकि जो भी खबर सरकार विरोधी लगती थी उसे सेंसर कर दिया जाता था। उस दौर में मीडिया माध्यम में समाचार-पत्र, टेलीविजन और रेडियो ही प्रमुख थे।

कांग्रेस काल में 2010 के आसपास का वक्त एक बदलाव लेकर आता है। बंदे-बंदे के पास स्मार्ट फोन और इंटरनेट की पहुंच थी लोग ऑर्कुट, फेसबुक और वाट्सएप से एक-दूसरे से जुड़ने लगे थे।

प्रतीकात्मक तस्वीर

2012 मे निर्भया आंदोलन में सोशल मीडिया ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सोशल मीडिया से शुरू हुआ यह आंदोलन इस कदर सफल रहा कि इसी फार्मूले पर लोकपाल आंदोलन ने भी लोगों को कांग्रेस विरोधी पूर्वाग्रह डेवलप करने मे मदद की।

इस बात का फायदा उठाकर केजरीवाल सीएम की कुर्सी पर पहुंचते हैं, तो मेनस्ट्रीम मीडिया को इंफ्लुएंस करके भाजपा केन्द्र में पहुंचती है। सरकार का मीडिया पर कंट्रोल इस कदर हावी हो चुका है कि आज प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में शिक्षा, रोज़गार, अर्थव्यवस्था और मानवाधिकार जैसे मुद्दे बिल्कुल गायब हो चुके हैं।

मेनस्ट्रीम मीडिया से गायब हैं जनता के ज़रूरी मुद्दे

आज मेनस्ट्रीम मीडिया में प्रधानमंत्री का यशोगान, मंदिर निर्माण, भारत-पाक जैसे मुद्दे निरंतर दोहराए जाते रहते हैं। देश के लिए अहम सवाल यह नहीं रह गया है कि शिक्षा और अर्थव्यवस्था कहां जा रही है? रोज़गार के अवसर कब आएंगे? कोरोना निवारण के लिए समुचित उपाय किए जा रहे हैं या नहीं बल्कि अहम सवाल यह है कि प्रधानमंत्री आम चूस कर खाते हैं या काट कर।

प्रतीकात्मक तस्वीर

यह कितना हास्यास्पद है लगता है। ऐसा लग रहा है रोम फिर से जल रहा है और नीरो का वायलन बजाना देश के लिए सुखद टेलिकास्ट है। भारतीय मीडिया के लिए यह एक पेड इमरजेंसी है जिसमें उन्हे यह दिखाना है कि देश में सब ठीक हैं। उप्र में राम मंदिर और रामराज्य की खबर के नीचें रेप, हत्या, लूट, फिरौती की खबरें कहां दब जाती है किसी को कुछ पता ही नहीं चलता है।

अंग्रेज़ी हुकूमत और संघ की सरकार में कोई खास फर्क नहीं रह गया है। सरकार के प्रतिनिधि न्यूज़ रूम अब खुद को सीबीआई का मेन ब्रांच और एंकर खुद को सुप्रीम कोर्ट का जज समझने लगे हैं। रिया-सुशांत के केस में जिस तरह रिया को काला जादू करने वाली, ड्रग्स लेने वाली, बदचलन साबित करने की कोशिश की गई और न्यूज़ रूम के कथित न्यायधीशों ने उसे अपराध सिद्ध हुए बिना अपराधी घोषित कर दिया।

मीडिया कैसे तैयार करता है लोगों के बीच एक धारणा

इसका प्रभाव लोगों पर इस कदर पड़ा कि लोग हर बंगाली लड़की को शक की निगाह से देखने लगे। जबकि इललीगल कंस्ट्रक्शन पर बुलडोज़र चलाने पर कंगना की शिवसेना विरोधी आवाज़ पर बीजेपी ने उसे नेशनल हिरोइन बनाकर वाई श्रेणी की सुरक्षा तक दे डाली। यह सब देखकर समझ ही नहीं आता लोकतंत्र में मीडिया किस दिशा में जा रहा हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर

आज से दस साल पहले मनमोहन-सोनिया और राहुल गांधी पर जोक्स बहुत वायरल होते थे लोग खुलकर विरोध की बात कर सकते थे लेकिन वही चीज़ अगर आप आज करें, तो आप राष्ट्रविरोधी, देशद्रोही और नक्सली कहलाएंगे।

आज हालात यह है कि सरकार या सरकार के किसी करीबी के कार्टून या ट्वीट तक पर आपको जेल तक जाना पड़ सकता है। वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण और पत्रकार प्रशांत कन्नौजिया इसके नवीनतम उदहारण हैं।

लोकतंत्र में सच बोलने के लिए कितनी जगह बची है?

इसी सरकार के लोकतंत्र में सच बोलने के लिए गौरी लंकेश, गोविंद पानसरे, नरेन्द्र दाभोलकर जैसे महत्वपूर्ण लोगों की हत्या हो जाती है, तो वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार को जान से मारने की धमकी दी जाती है उनको माँ-बहन की गाली दी जाती है। इस दौर में ‘फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन’ सिर्फ बीजेपी समर्थकों को हासिल रह गया है ताकि वो अपने विरोधियों को जी भरकर गालियां दे सकें।

इस लोकतंत्र में अगर सच बोलने के लिए जगह नहीं है, तो यह लोकतंत्र नहीं है। यह एक विचारधारा विशेष की तानाशाही और अघोषित इमेरजेंसी से कम कुछ भी नहीं है। ऐसी स्थिति में एक पैरलल मीडिया की ज़रूरत है जो लोगों के आंखों से पर्दा हटाने का काम करें।

यह इसलिए ज़रूरी है क्योंकि भविष्य में एक तबाह देश की जेनरेशन अगर हमसे सवाल पूछे कि जब देश लुट रहा था तब आप क्या कर रहे थे? उस वक्त के लिए हमें शर्मिन्दा होकर चुप रहने के बजाय जबाव देने के लिए शब्द रखने चाहिए। हम जीते या हारें यह मायने नहीं रखता गलत और दमन के खिलाफ हमारा लड़ना मायने रखता है।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सच के लिए लड़ने को अब हमे तैयार रहना होगा तभी यह लोकतंत्र बच सकेगा। हमें अपने और अपने देश के लिए, इस लोकतंत्र के लिए, आने वाली पीढ़ियों के लिए आवाज़ उठानी ही होगी ।

दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो,

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

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