जिस 20 रुपये किलो की सब्ज़ी को हम सुपर मार्केट से 80 रुपये किलो में खरीदकर खुश होते हैं, उसी 20 रुपये को 18 रुपये कराने के लिए ठेले वाले के बाल नोच देते हैं। रेडी वाले से 40 रुपये प्लेट छोले भटूरे खाते हुए उसके हाथों पर, रेडी के कोने-कोने पर हाइजीन के लिए टकटकी लगाए रखते हैं। दूसरी ओर उसी छोले भटूरे को 5 स्टार होटल में 1000 रुपये में खाकर हम शान समझते हैं, ऐसा महसूस करते हैं जैसे हाइजीन की बुलंदियां छू ली हो। पीठ पीछे 5 स्टार होटल में ये भटूरे कैसे बनाए गए हैं, यह चेक करने की हमारी हिम्मत नहीं होती है।
दिन-दिन भर एक मज़दूर से बोझा ढोवाकर उसे बदले में 300 रुपये देने में हमें खलता है, वहीं पंडित जी को आधे घंटे कथा के बदले अच्छी खासी मज़दूरी उर्फ दक्षिणा देकर, भगवान के नाम का चढ़ावा देकर, नतमस्तक होकर हम पाप पुण्य की गणना करते पाए जाते हैं।
हमारे समाज में सबको सबकुछ करने का अधिकार आज भी नहीं है
देखा जाए तो दोनों ने ही अपना-अपना काम ही तो किया है, फिर इतना फर्क क्यों? यदि कार्यों की प्रकृति का हवाला देकर एक को उच्च माना जाए और एक को निम्न तो यह लॉजिक कम-से-कम मैं तो नहीं मान सकता हूं। जिसे जो अभ्यास कराया जाए, वह उसमें निपुण हो जाए पर हमारे समाज में सबको सबकुछ करने का अधिकार आज भी नहीं है।
मेरा मन विचलित हो उठता है इन भेदभाव के गंभीर दूरगामी परिणामों को देखकर और यह विचलन और अधिक हो जाती है, जब देखता हूं कि आज इन असमानताओं की खाई जानबूझकर गहरी की जा रही है।
हाल में ही हुई उन्नाव की बर्बर हिंसा, सोनभद्र का नरसंहार, JNU में फीस वद्धि के विरुद्ध संघर्ष करते स्टूडेंट्स पर लाठीचार्ज में गोदी मीडिया द्वारा ज्ञान दिया जाता है। ये मीडिया या तो यह साबित करती है कि कैसे आजकल किसान, आदिवासी और स्टू़डेंट एन्टी नैशनल होते जा रहे हैं या यह कहती है कि 300 रुपये की कीमत कितनी कम होती है।
अच्छा एक “एलीट सोशलिस्ट्स” ऐसा तबका है, जो इन सभी घटनाओं के प्रति सहानभूति रखता है और अक्सर गरीबों को लेकर प्रदर्शन करता हुआ भी दिखता है। इसी अमीरी-गरीबी की लीपापोती में कोई इन घटनाओं का जातीय एंगल नहीं दिखाता है।
ठेले में सब्ज़ी बेचने वाले से लेकर बोझा ढोता मज़दूर, रेडी वाले से लेकर खेत में पसीना बहाता किसान, आज भी जन्म के आधार पर या कर्म के आधार पर उसी जाति-वर्ग-वर्ण से आता है, जिनका हज़ारों सालों से दमन होता आया है और आज भी हो रहा है।
JNU जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों में भी 60% से अधिक पिछड़े, अनुसूचित और आदिवासी वर्ग के स्टूडेंट्स ही पढ़ते हैं, जिनके लिए बताया जाता है कि वे कितने का सुट्टा पीते हैं और कितने साल फेल होते हैं। असल बात यह है कि वे अपने जन्म आधारित वर्गीकरण को कुचलकर सामंती सत्ता की दमनकारी नीतियों का विरोध करने की ताकत रखते हैं।
इस प्रकार इस जातीय दमन को अमीरी-गरीबी का लेप लगाना तर्कसंगत नहीं लगता है, क्योंकि एक गरीब के रिश्तेदार यदि मंत्रिमंडल में बैठे हों, तो शायद उसकी ज़िन्दगी इतनी कठिन नहीं होगी, जितनी कि उस गरीब की, जिसकी पीढ़ियां ही आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक गरीबी झेल रही हो।
अंततः हमारे देश में जहां अमीरी-गरीबी आज भी जाति और वर्ग पर आधारित है, वहां इस सड़ते घाव पर केवल एक सुनहरा लेप लगाकर उसके दर्द को दबाया नहीं जा सकता है। बल्कि यह लेप उन लोगों को संगठित होने से रोकता है, जिन्हें बचपन से इस घाव को सहने की आदत हो गई है और यह लेप देखकर उनको ऐसा लगता है कि ऐसा कोई नासूर हमारे समाज में है ही नहीं। अंत में विलियम ड्रमंड की एक लाइन-
वह जो तर्क ना करेगा धर्मांध है, जो तर्क ना कर सके वह मूर्ख है और जो तर्क करने की हिम्मत नहीं रखता वह गुलाम है।-