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“मुझे डर है कि कहीं कश्मीर में सेना मेरी माँ और पत्नी का रेप ना कर दे”

शान्ति, समृद्धि, विकास ये तीन ऐसे शब्द हैं जिनके बिना समाज का निर्माण अधूरा है। किसी भी समाज को विकसित करने में मुख्य रूप से इन तीनों बातों का समावेश होना आवश्यक है। इनमें से सबसे अधिक प्रभावशाली तथ्य है “शान्ति”।

जिसके पास शांति नहीं है, उसके पास कुछ भी नहीं है। यदि हम पुराने वेदों को पढ़ेंगे तो पाएंगे कि उनमें कितने ही ऐसे वैदिक मन्त्र हैं जिनकी शुरुआत ही शांति शब्द से होती है और खत्म भी शांति शब्द पर ही होती है।

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति:
पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:
सर्वं शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि॥
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

यजुर्वेद का यह शांति पाठ मंत्र सृष्टि के समस्त तत्वों व कारकों से शांति बनाए रखने की प्रार्थना करता है। इसमें यह कहा गया है कि द्युलोक में शांति हो, अंतरिक्ष में शांति हो, पृथ्वी पर शांति हों, जल में शांति हो, औषध में शांति हो, वनस्पतियों में शांति हो, विश्व में शांति हो, सभी देवतागणों में शांति हो, ब्रह्म में शांति हो, सब में शांति हो, चारों और शांति हो, शांति हो, शांति हो, शांति हो।

उपरोक्त मंत्र से यही ज्ञात होता है कि शांति को हासिल करने के लिए हमको प्रार्थना करनी पड़ती है। जिस देश में शांति भंग हो जाती है, उस देश मे विनाश अवश्य होता है। यमन, सीरिया, इराक ये ऐसे देश हैं, जहां पर हिंसा ने विकराल रूप धारण कर शांति को नष्ट कर दिया।

हमारे भारत देश में भी एक ऐसा राज्य है, जहां शांति से ज़्यादा संघर्ष देखने को मिलता है या शोषण का भाव भी देख सकते हैं। कश्मीर के इतिहास में कभी भी शांति नहीं देखी गई। आज़ादी से पूर्व भी और आज़ादी के बाद भी।

वर्ष 1846 में प्रथम एंग्लो-सिख वॉर में सिखों की हार के बाद इस पर ब्रिटिश राज्य का कब्ज़ा हो गया था और बागडोर जम्मू के राजा गुलाब सिंह के हाथ में थमा दी गई थी। अंग्रेज़ों ने उन्हें कठपुतली की तरह इस्तेमाल किया। भारत की स्वतंत्रता के समय यहां के शासक थे हरि सिंह।

कश्मीर में शायद ही हमने सुना होगा कि वहां सभी लोग शांतिपूर्ण तरीके से रहते हैं। यह बात सच समझना हमारी नादानी होगी और उनके लिए बेईमानी। मैंने 2018 अगस्त में कश्मीर जाकर वहां के लोगों से उनकी राय पूछी। वहां जाकर मिली जुली प्रतिक्रिया ही मिली।

मुझे याद है एक कश्मीरी पुरुष जो हमारे साथ दिल्ली आया, वो अनंतनाग जैसे संवेदनशील क्षेत्र का निवासी था। उसने मुझको वहां की सच्चाई का कुछ हिस्सा बताया। उसका नाम शमशाद था, जो वहां की बीएसएफ के जवानों में शामिल था मगर उसको वहां के हालातों ने ऐसा कर दिया जिससे वो दिल्ली में जामा मस्जिद की तंग गलियों में चाय बेचने का काम करने लगा।

मैंने उनसे पूछा अब तो आप सुकून से होंगे? तो उसका जवाब था, “मुझे हर रात यही डर लगता है कि मेरी माँ और बीवी का बलात्कार कौन सी सेना कर रही होगी, भारत की या पाकिस्तान की?” उन्होंने बताया कि वह भी देश की सुरक्षा में लगा था मगर पाकिस्तानी आतंकियों ने उसके सामने उसकी 9 वर्षीय बेटी का बलात्कार कर उसको गोली मार दी थी।

शमशाद आगे बताते हैं, “हर रात पाकिस्तानी आतंकी और वहां की सेना घर आकर खामोशी से खाना खाकर चली जाती है। अगर इस बात का कोई विरोध करता है, तो उसकी या तो हत्या कर दी जाती है या फिर घर की महिलाओं का बलात्कार।

उसके ही एक दोस्त के साथ भी यही हुआ था। बॉर्डर के पास वाले इलाके बहुत अधिक संवेदनशील होते हैं। इसलिए उसका दोस्त अकेले ही अनंतनाग में रहता था। उसकी फैमिली जम्मू में थी। जब यह बात पाकिस्तानी फौज़ को पता लगी कि वह उनके खिलाफ होकर भारतीय सेना में भर्ती हुआ है, तो उन्होंने रात के समय उसके घर के साथ-साथ उसको भी आग के हवाले कर दिया।

शमशाद आगे बताते हैं कि वो और उनकी फैमली दोनों तरफ से पिस रही है। रात को पाकिस्तानी फौज़ और दिन में भारतीय फौज। भारतीय फौज़ों को पता लगता है तो दिन में डंडों से उनकी पिटाई कर दी जाती है। ये तो मुझे एक दोस्त का हाल पता है। ऐसे ना जाने कितने ही लोग होंगे जिन्होंने कभी भी सुकून और शांति का चेहरा नहीं देखा होगा।

वहीं अभी की बात करें तो अफगानिस्तान में शांति वार्ता होने से पहले ही कुंदूज प्रांत सय्यद रमज़ान गाँव पर हुए हवाई हमलों में 24 नागरिक मारे गए। कुछ रिपोर्ट्स यह भी बता रही हैं कि इस हमले में 30 तालिबानी लड़ाके भी मारे गए हैं। अब ज़मीनी हकीकत क्या है, यह तो वहां के आम नागरिक ही समझ सकते हैं।

यह हमला ठीक उससे पहले हुआ जब अफगानिस्तान और तालिबानी नेता कतर में शांति सम्मेलन में भाग लेने जाने वाले थे। ऐसे में यह बात तो समझ में आती है कि इंसान ही इंसान के खून का प्यासा है। यह बड़ा ही तकलीफदेह होता है जब पता लगता है कि इंसान के अंदर इंसानियत ही नहीं है, फिर उसको इंसान कहना गलत होगा।

सियासत का चलन कितना गंदा है। कहीं से भी किसी में कोई मानवता ही नहीं! वैश्विक शांति दिवस के दिन सयुंक्त राष्ट्र संघ द्वारा एक मीटिंग का आयोजन किया जाता है। उसमें भी देश के मेम्बर्स एक पत्र पढ़ते हैं जिसमें मुख्यता यही लिखा होता है कि विश्व में शांति कैसे कायम की जा सकती है।

2-3 घंटों की इस मीटिंग के बाद लोगों को शांति का असल मतलब भी नहीं पता होता है। उन चंद कागज़ के टुकड़ों की तरह शांति भी कहीं फाइलों में दब जाती होगी।

जब विश्व वैश्विक शांति दिवस मना रहा है, तो नज़र उस तरफ ज़रूर जाती है जहां आम इंसानों का खून मुस्तकिल बह रहा है। इस बार संयुक्त राष्ट्र संघ ने शांति दिवस की थीम ‘Shaping Peace Together’ रखी है। यह वाक्य अपने आप में पूर्ण है मगर क्या इन वाक्यों से और इस थीम से वाकई में कोई बदलाव आ रहा है? खैर, यह सोचने वाली बात है।

हम और आप जैसे लोग तो सोच सकते हैं और लिखकर या चिल्लाकर आवाज़ लगा सकते हैं मगर कहीं-ना-कहीं सियासत के तूफान में हमारी आवाज़ गुम हो जाती है। वहीं, इंसान अपनी जान से भी हाथ धो रहा है। सीरिया और यमन के दौरे पर मैंने 2017 में अपने हर एक कदम के नीचे खून की छींटे देखी थीं।

मैंने हर अनाथ बच्चे के चेहरे की रौनकों को लुटते हुए देखा था। मैं उस भाव को शब्दों में बयां नहीं कर सकता। मैंने वहां 4 दिन गुज़ारे और मैंने पाया कि मैंने वहां एक रात भी सोकर नहीं, बल्कि रोकर गुज़ारी थी।

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