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“रिया चक्रवर्ती यदि तमाम आरोपों से मुक्त हो जाती हैं तो मीडिया क्या करेगा?”

आरोपी और गुनहगार के बीच के महीन परत को धूमिल किया जाना कितना उचित है? क्या एक आरोपी को मानसिक यातनाएं देना अपराध के दायरे में नहीं आता है? कानून में स्पष्ट रूप से कहा गया है, “कोई आरोपी तब तक निर्दोष है जब तक कि उस पर लगाए गए दोष सिद्ध नहीं हो जाते।”

रिया व उसके परिवार को दी जाने वाली यातनाओं की समीक्षा आवश्यक है

फिल्म अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती को तमाम मीडिया संस्थान व कुछ विशेष दल अभी से ही क्यों दोषी मान बैठे हैं? क्यों संविधान के अनुसूची-21 में दी गई “जीवन और स्वतंत्रता” के मौलिक अधिकार के तार-तार होने पर भी लोग चुप हैं? 

अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत का जाना अपूरणीय क्षति है और सब चाहते हैं कि उनकी मौत की जो भी वजह रही हो, वह सबके सामने आए और जो भी उसके लिए ज़िम्मेदार हैं, उन्हें सज़ा दी जाए।

किंतु नफरत का जो माहौल अभी से ही रिया चक्रवर्ती के लिए बना दिया गया है, क्या वह किसी सज़ा से कम है? तो क्या न्यायिक व्यवस्था उस दौर में पहुंच चुकी है कि आरोपी को गुनहगार साबित होने से पहले ही सज़ा मुकर्रर कर दी जाए? रिया चक्रवर्ती व उनके परिवार को दी जाने वाली यातनाओं की समीक्षा बेहद आवश्यक है।

क्या पत्रकारों की अनियंत्रित भीड़ पर लागू नहीं होते सोशल डिस्टेंसिंग के नियम?

रिया चक्रवर्ती। फोटो साभार- सोशल मीडिया

NCB दफ्तर के बाहर रिया चक्रवर्ती को पत्रकारों की भीड़ ने इस कदर घेर दिया कि मानो आईएसआईएस का कोई सरगना फांसी पर लटकाए जाने से चार कदम की दूरी पर हो और वे पत्रकार गुस्साई हुई जनता के नफरत से भरे सवालों को उस आतंकवादी पर उड़ेल देना चाहते हों। भाई साहब, वह महज़ एक आरोपी है फिलहाल। उसकी मनोदशा को भी समझिए। 

देश की न्यायपालिका पर भरोसा नहीं रहा या खुद को न्यायपालिका से भी ऊपर समझने लगे हो? कोरोना जैसी महामारी में पत्रकारों के उस अनियंत्रित भीड़ से कोई सवाल क्यों नहीं कर रहा है? जिस सामाजिक दूरी के पालन की बात प्रधानमंत्री करते हैं क्या वह इन पत्रकारों पर लागू नहीं होता है?

रिया चक्रवर्ती के साथ हो रही प्रताड़ना पर मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग क्यों चुप है? एक आरोपी को मिलने वाले संवैधानिक अधिकारों के हनन होने पर भी न्यायपालिका क्यों चुप है? आरोपी के खिलाफ हो रही कार्रवाई को क्यों सार्वजनिक किया जा रहा है? क्या सीबीआई खुफिया एजेंसी नहीं रही? 

किसी के निजी व्हाट्सएप चैट को सार्वजनिक करना कितना उचित है? ऐसे कई और सवाल हैं पर इसकी सुध कौन लेगा? मीडिया ट्रायल से जांच प्रभावित नहीं हो रही है इस बात की गारंटी कौन लेगा?

क्या बिहार चुनाव की वजह से मामले को तूल दिया जा रहा है?

अमित शाहर और नीतीश कुमार। फोटो साभार- सोशल मीडिया

बिहार चुनाव की वजह से इस मामले को तूल देने का जो आरोप लग रहा है वह भी अब उचित मालूम पड़ता है। कला एवं संस्कृति प्रकोष्ठ, भाजपा (बिहार प्रदेश) के द्वारा जारी किए गए पोस्टर से आरोप सिद्ध होते नजर आते हैं। “ना भूले हैं! ना भूलने देंगे!!” जैसे नारे के साथ यह स्पष्ट दिखता है कि इस मामले का राजनीतिकरण पहले से तय था। तो ऐसे में सवाल मीडिया व इंटरनेट पर विचरण कर रहे तमाम कथित न्यायधीशों से बनता है। 

कल को यदि सीबीआई रिया चक्रवर्ती को तमाम आरोपों से मुक्त कर देती है तो क्या करोगे आप? आपने रिया के लिए जो स्थिति पैदा कर दी है क्या उनके साथ कल को कोई काम करना चाहेगा? यदि आरोपियों के साथ यही व्यवहार उचित है तो फिर तमाम राजनीतिक पार्टियों में ऐसे हज़ारों नेता हैं जिन पर कोई ना कोई मामला दर्ज़ है उनके साथ भी यही कीजिए।

यदि आपको इतनी ही जल्दबाज़ी है, तो सरकार से पूछिए कि क्या कोई समय सीमा निर्धारित की जा सकती है जिसमें कि इस जांच का फैसला आ सके? हां वह तारीख यदि बिहार विधानसभा चुनाव के इर्द-गिर्द घूमें तो फिर उसे क्या एक महज संयोग समझा जाए? 

आज हमें नहीं मालूम कि सुशांत सिंह राजपूत हमारे बीच क्यों नहीं हैं मगर यदि कल को रिया के साथ भी ऐसा ही कुछ होता है तो इसके ज़िम्मेदार तमाम मीडिया संस्थान व वर्तमान दौर की यह इंटरनेट की न्यायपालिका होगी। 

सरीखे से तमाम मीडिया संस्थानों पर जांच में बाधा डालने के लिए कार्रवाई भी होनी चाहिए। सीबीआई को अपना काम करने दीजिए और किसी को गुनहगार तब तक नहीं बनाइए जब तक की उस पर जुर्म साबित ना हो जाए व देश की न्यायपालिका उसे दोषी ना मान ले। सुशांत सिंह राजपूत को इंसाफ मिले यह हम सभी की इच्छा है, बस यह ध्यान रहे,“ ज़रूरत से ज्यादा न्याय भी किसी के लिए अन्याय की श्रेणी में आता है।”

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