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बेरोज़गारी, स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों पर बात क्यों नहीं कर रहा है मीडिया?

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Representational image.

मीडिया (प्रिंट मीडिया & इलेक्ट्रॉनिक मीडिया) को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है और इसे लोगों की आवाज़ भी कहा गया है। इसीलिए मीडिया से आम जन की अपेक्षा रहती है कि वह नि:स्वार्थ भाव से समाज की मूलभूत तथा तात्कालिक ज्वलंत समस्याओं को उजागर करे।

साथ ही देश के प्रति सत्ता के दायित्वों का निर्वहन करने के लिए ना केवल सरकार को प्रेरित करे, बल्कि आम नागरिकों में भी उनके कर्तव्यों के प्रति जागरूकता पैदा करे लेकिन दुर्भाग्यवश समय के बदलाव के साथ मीडिया के प्रमुख व्यवसाय के रूप में विकसित होने के कारण आज मीडिया भी टीआरपी बढ़ाने और पैसा कमाने की होड़ में लग गई है और मूल भावना से विमुख हो गयी है।

टीआरपी के खेल में पड़ी मीडिया नहीं कर रही है ज़रूरी मुद्दों पर बात

इंटरनेट के विकास के कारण प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अलावा सोशल मीडिया का चलन बहुत ज़ोरों से बढ़ा है, जिसने पारंपरिक मीडिया के समक्ष एक नई चुनौती खड़ी कर दी है। आज नई पत्रकारिता का मंत्र स्पीड यानि गति बन गया है। इसके अनुसार कोई भी खबर केवल कुछ पलों तक ही जीवित रहती है और इसीलिए हर पल में एक नई खबर होनी चाहिए।

इसलिए प्रतिस्पर्धा के इस दौर में भारत के पारंपरिक मीडिया में टीआरपी की चूहा दौड़ ने मूल समस्याओं के स्थान पर दूसरे कम महत्व के तात्कालिक और लोक लुभावने मुद्दों के बारे में लगातार चर्चा कराकर लोगों का ध्यान मुख्य मुद्दों से भटकाने का चलन-सा चल गया है।

प्रतीकात्मक तस्वीर

यहां इसका एक विरोधाभास भी है। यह अक्सर देखा गया है कि लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए किसी खास खबर को, जिसमें दर्शकों की अधिक रूचि की सम्भावना होती है, इतनी बार दिखाया जाता है कि वह अपना मूल स्वरुप और उद्देश्य खो देती है।

पहले एक समय में फिर भी एक आम राय हुआ करती थी। टीवी अधिक धर्म निरपेक्ष, आधुनिक, उदार और जनतांत्रिक था। इस आम सहमति ने कभी भी साम्प्रदायिकता का समर्थन नहीं किया और ना ही इसने कभी कट्टरपंथी  विचारधारा को पनपने दिया।

इसने हमेशा मत वैभिन्नता का सम्मान किया, असहमति पर विचार किया, विचारशील तथ्य के लिए संघर्ष किया तथा हिंसक विचारों का विरोध किया। वही आम सहमति हाल के समय में खंडित होती नज़र आ रही है।

बाज़ार और व्यवसाय को ध्यान में रखकर चल रहा है मीडिया

हाल के दौर में जिस तरह से भारत में मीडिया स्वामित्व का संकेंद्रण बढ़ा है, उसने एक जीवंत लोक विमर्श (पब्लिक स्फीयर) के लिए खतरा पैदा किया है। लोगों का विवेक बाज़ार के अनुरूप ढलना शुरू हुआ है।

कुछ ही मीडिया संस्थानों के प्रभावशाली होने की वजह से मीडिया में विचारों की बहुलता के समक्ष संकट की स्थिति उत्पन्न हो गयी है और लोगों तक सही सूचना पहुंचाने के पत्रकारीय उसूलों की अनदेखी बढ़ती जा रही है।

इस प्रकार भारत के अधिकांश मीडिया में आए ऐसे बदलाव जिसके कारण चाहे जो रहे हों स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छे नहीं हैं। इनसे टीआरपी के आंकड़े भले ही बढ़ जाएं लेकिन आम जन में उनकी वास्तविक लोकप्रियता सोचनीय ही रहेगी।

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