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“जब मुझे स्कूल में हिंदी पढ़ने के लिए प्रिंसिपल से करनी पड़ी मिन्नतें”

सन् 2006 – राजस्थान के भीलवाड़ा ज़िले की छोटी-सी जिंक कॉलोनी में स्थित प्रख्यात स्कूल जिंक विद्यालय। सुबह के 9:30 बज रहे थे और असेंबली के बाद सभी कक्षाओं में पढाई शुरू हो चुकी थी।

उधर उप-प्रधानाध्यापिका के कमरे के बहार ग्याहरवी कक्षा का पतला दुबला लड़का चिंतित अवस्था में खड़ा इंतज़ार कर रहा था और भीतर पीजीटी हिंदी वंदना व्यास और वाईस प्रिंसिपल लवंगीका शर्मा के बीच चर्चा जारी थी।

अनुमति के लिए संघर्ष

लवंगीका– आपने दूसरे बच्चों से बात करके देखा है? शायद कोई और भी तैयार हो।
वंदना– नहीं, मेरे पास तो यह एक ही बच्चा आया है, बाकी मैं एक बार पूछ लूंगी अगर किसी को दिलचस्पी हो हिंदी पढ़ने में तो।
लवंगीका– हां, ये सही रहेगा! आप एक बार पूछ लीजिए, अगर कुछ बच्चे हो जाते हैं, तो हमे कोई आपत्ति नहीं है।

वंदन बाहर आ कर इंतज़ार कर रहे विद्यार्थी को ढांढस बांधते हुए बोलती है,

“मैंने बात तो कर ली है लेकिन वाईस प्रिंसिपल मैडम चाहती हैं कि अलग क्लास के लिए कुछ और बच्चे हो जाते तो बेहतर होगा। तुम अपने स्तर पर सहपाठियों से बात करके देखो और मैं भी कुछ स्टूडेंट्स से बात करके देखती हूं।”

दूसरे दिन फिर उसी समय वही माहौल! सुबह-सुबह वंदना वाईस प्रिंसिपल के ऑफिस पहुंचीं और हिंदी पढ़ने का इच्छुक विद्यार्थी बाहर खड़ा खुशखबरी का इंतज़ार कर रहा था लेकिन अफसोस, भीतर से आ रही आवाज़ों में नकारात्मक भाव ज़्याादा थे, जो उस बच्चे की बेचैनी बढ़ा रहा था।

प्रतीकात्मक तस्वीर

लवंगीका– जब कोई हिंदी पढ़ना ही नहीं चाहता, तो रहने दीजिए! अब एक बच्चे के लिए क्या अलग से पीरियड अलॉट करना। आप हिंदी की पीजीटी है, आपकी स्कूल के प्रति और भी कई ज़िम्मेदारियां है।
वंदना- लेकिन, मैडम यह बच्चा हिंदी पढ़ना चाहता है। यह खुद मेरे पास आया है। दसवीं तक मैंने इसे पढ़ाया था और इसकी हिंदी के प्रति विशेष रूचि रही है। इसके हिंदी में टॉपर से भी ज़्यादा अंक आते रहे हैं।
लवंगीका– वो मैं सब कुछ समझ रही हूं लेकिन आप मेरी बात भी समझिए कि सिर्फ एक बच्चे के लिए मैं पीजीटी टीचर का एक पीरियड नहीं खराब कर सकती हूं। आप जाकर उसे अंदर भेजिए, मैं एक बार बात करके देखती हूं।

प्रतीकात्मक तस्वीर

अपनी पूरी कोशिश के बाद वंदना खुद को हारा हुआ महसूस कर रही थी, ऑफिस से निकलते हुए उसके चेहरे पर उदासी साफ झलक रही थी। बाहर आकर बिना नज़र मिलाए उसने अपने सबसे प्रिय विद्यार्थी को भारी मन से कहा, “मैडम ने अंदर बुलाया है तुम्हें।” बस इतना कह कर वो चली गई।

जब हिंदी पढ़ने का इच्छुक वो विद्यार्थी वाईस प्रिंसिपल के पास पहुंचा तो थोड़ी गुस्साई आवाज़ में बोली, “ये क्या ज़िद पकड़ रखी है!? तुम्हारे अलावा एक भी बच्चा हिंदी नहीं पढ़ना चाहता, ना कॉमर्स सेक्शन से और ना ही साइंस सेक्शन से।”
विद्यार्थी– (सहमी-सी आवाज़ में विनती करता है) कंप्यूटर साइंस और मैथ्स मुझे समझ नहीं आते।
लवंगीका– तो PHE ले लो, वो भी स्कोरिंग है और ज़्यादा मुश्किल भी नहीं है। हिंदी से भी ज़्यादा स्कोर कर पाओगे।
विद्यार्थी– मैडम, मैं हिंदी इसलिए नहीं पढ़ना चाहता कि वो सरल विषय है या मैं स्कोर कर पाऊंगा। मैं हिंदी इसलिए पढ़ना चाहता हूं, क्योंकि मुझे लिखना बहुत पसंद है और मैं पत्रकार बनाना चाहता हूं।

लवंगीका के चेहरे का भाव ही बदल गया। वो बच्चे के जवाब से प्रभावित हुई और उन्होंने कहा,

“देखो, तुम हिंदी पढ़ो! मुझे कोई आपत्ति नहीं है। तुम्हारी ज़िद और जज़्बे को देखते हुए मैं अनुमति देती हूं कि तुम ऑप्शनल में हिंदी चुन सकते हो।”

वाईस प्रिंसिपल से हिंदी की परमिशन तो मिल गई लेकिन कुछ शर्ते थीं, विद्यार्थी को कोई पीरियड अलॉट नहीं किया गया। वो सेल्फ स्टडी करेगा और उसके एग्जाम के पेपर्स सेट करवा दिए जाएंगे। मतलब उसे खुद हिंदी पढ़नी थी।

उसने एक पड़ाव पार कर लिया था लेकिन उसे अंदाज़ा नहीं था कि आगे की राह में नई मुश्किलें पलके बिछाए उसका इंतज़ार कर रही हैं। बाजार में हिंदी की किताबें ही नहीं मिली और उस समय इंटरनेट भी नहीं था। एक किताब वाले को आर्डर दिया, तो उसने हफ्ते भर बाद कोर्स की किताबे मंगवाई।

जब पहला पाठ पढ़ कर खत्म किया, तो उसकी हवाईयाँ उड़ गईं। ऐसा लगा रहा था मानो मिसप्रिंट हुआ हो और प्रश्न किसी और पाठ के छाप दिए हो। हिंदी व्याकरण का कोर्स ऐसा कि अकेले पढ़ कर पास होने की सोच भी नहीं सकता था।

गहरी चिंता लिए वो अपनी वंदना मैडम के पास गया और सारी बात बताई। वंदना ने उसे कहा कि किताबें आज वो ले जाएगी और एक बार कोर्स को देख कर बताएगी कि आगे क्या करना है।

एक बच्चे की हिंदी की क्लास

अगले दिन वही समय, वही वाईस प्रिंसिपल का कमरा और वही वंदना मैडम साथ में बाहर खड़ा हिंदी पढ़ने का इच्छुक विद्यार्थी। अंदर से आवाज़ आती है,
वंदना– यह कोर्स बच्चे की सेल्फ स्टडी का नहीं है। यह बिना क्लास लिए नहीं पढ़ पाएगा। मैंने खुद स्टडी किया बहुत ही एडवांस हिंदी है और हिंदी व्याकरण बिना पढ़ाए कैसे सीख पाएगा। बच्चे के भविष्य का सवाल है!
लवंगीका– बात आप ठीक कह रही है कि बच्चे के भविष्य का सवाल है। आप पढ़ा सकती है लेकिन कोई अलग पीरियड नहीं मिलेगा। ये कॉमर्स का स्टूडेंट है और इसके फर्स्ट हाफ में तीन पीरियड खाली रहते हैं। अब आपको और इसको ही मैनेज करना है। इससे ज़्यादा उम्मीद मुझसे मत रखिए। खुश होते हुए वन्दना ने कहा, “बस इतना ही काफी है, अब आप मुझ पर छोड़ दीजिए! इसे हिंदी पढ़ाने की ज़िम्मेदारी अब मेरी।

वंदना और वो विद्यार्थी पहली जंग तो जीत गए थे और अनुमति लेने में कामयाब हुए लेकिन ना उन्हें पीरियड मिला और ना ही कोई क्लास। वो ऐसा था जैसे बिना हथियारों के जंग के मैदान में उतरना।

प्रतीकात्मक तस्वीर

अब कभी शार्ट ब्रेक में तो कभी लंच टाइम में तो कभी कोई पीरियड खाली होता तो उस समय हिंदी की क्लास शुरू हुई। कभी वो लोग म्यूज़िक रूम में बैठ कर पढ़ते, तो कभी मैथ्स या फिजिक्स लैब में। कभी कहीं जगह नहीं मिलती तो छोटी कक्षाओं की छुट्टी के बाद लंच टाइम में उन छोटी-छोटी टेबल कुर्सियों पर बैठ कर हिंदी के पाठ पढ़ाए जाते।

यह दृश्य स्कूल में अचानक से चर्चा का विषय बन गया था कि ग्याहरवीं कक्षा में हिंदी की क्लास में एक ही बच्चा है और वंदना उसे पढ़ाने के लिए पूरे स्कूल में उसे लेकर इधर-उधर भटकती रहती है। लोग बोलते रहे और वो पढ़ते रहे।

एक दिन जब वो विद्यार्थी आया तो उसके साथ एक लड़की थी। सोनल नवाल वो नई आयी थी और उसे भी हिंदी पढ़नी थी लेकिन कोई था नहीं, तो मज़बूरी में कंप्यूटर साइंस की क्लास में बैठी रहती थी लेकिन जब उसे पता चला कि हिंदी की क्लास भी लग रही है, तो उसने भी इच्छा ज़ाहिर की। एक से भले दो, सिलसिला जारी रहा और साल के पहले टेस्ट तक हिंदी की कक्षा में तीन बच्चे हो गए थे।

पहले टेस्ट के रिजल्ट ने कई लोगों को झटका दिया और बहुत सारे कंप्यूटर साइंस और मैथ्स जैसे ऑप्शनल सब्जेक्ट्स में फेल होकर हिंदी की ओर भागे। लगभग 8 से 10 बच्चों की छोटी-सी ही सही लेकिन आखिरकार हिन्दी की क्लास तैयार हो गई। वंदना ने वाईस प्रिंसिपल से बात की और उनको क्लास भी मिली और पीरियड भी।

हिंदी पढ़ने की मेरी ज़िद की कहानी

वो विद्यार्थी मैं ही हूं, जिसने ज़िद पकड़ ली थी कि कोई पढ़े या ना पढ़े, मुझे तो हिंदी ही पढ़नी है। जब स्कूल में हिंदी की पीजीटी टीचर है तो मुझे ऑप्शनल में हिंदी टिक करने से कोई नहीं रोक सकता था लेकिन मुझे ये नहीं पता था कि ‘हिंदुस्तान’ में मुझे हिंदी पढ़ने के लिए इतना संघर्ष करना पड़ेगा।

उससे कहीं ज़्यादा अफसोस मुझे तब हुआ जब पता चला कि हिंदी का हमारा वो आखरी बैच था और अब किसी की हिंदी पढ़ने में रूचि ही नहीं है। वंदना मैडम आज भी बच्चों को मेरा उदाहरण देकर प्रोत्साहित करती हैं कि अपने सपनों के साथ कभी समझौता मत करो। मुझे खुशी होती है कि मैं भेड़चाल का हिस्सा नहीं बना, छोटा-सा ही सही लेकिन मैंने इतिहास तो रचा।

यह सच है कि दसवीं के बाद अधिकांश विद्यालयों से हिंदी विलुप्त-सी हो गई है। कोई पढ़ना भी चाहे तो ऑप्शन ही नहीं मिलता और शायद किसी में इतनी हिम्मत नहीं है कि वो बगावत करके अपनी बात गांधीवादी तरीके से मनवा ले।

मैं अकेला हिंदी पढ़ा करता था और मैं आभारी हूं वंदना मैडम का, जिन्होंने मेरी भावनाओं को समझते हुए मुझे वक्त दिया और मार्गदर्शन किया। वो मुझे पढ़ाती या ना पढ़ाती उनके वेतन पर कोई असर नहीं पड़ता।

वंदना मैम के साथ तस्वीर

वो चाहती तो पैसे कमाने के लालच में मुझे प्राइवेट ट्यूशन के लिए बुला सकती थीं लेकिन जितना जज़्बा मुझमे हिंदी पढ़ने को लेकर था, उतना ही जज़्बा उन्हें पढ़ाने का था। हम दोनों की इस ज़िद और जज़्बे ने बाहरवीं कक्षा में आते-आते लगभग 20 बच्चो की एक बड़ी क्लास बना ली थी।

लवंगीका मैडम भी सोच में पड़ गई थी कि कहा एक बच्चा था और कहा आज 20 बच्चे हिंदी पढ़ रहे है। लवंगीका मैडम अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनका ये एहसान मेरी कामयाबी में नींव का एक बहुत मज़बूत पत्थर साबित हुआ है। अगर वो अनुमति ना देती तो शायद इतनी दिलचस्प कहानी ही ना बनती, जिसे मैं आज आप सभी से साझा कर रहा हूं।

मेरी अंग्रेजी पर बहुत अच्छी पकड़ रही है लेकिन मुझे पत्रकार बनाना था, तो मैं हिंदी में भी बराबर रूचि रखता था। ऐनी फ्रैंक और महादेवी वर्मा से प्रभावित होकर मैंने नवीं कक्षा से ही डायरी लिखना शुरू कर दिया था।

मुझे आज भी याद है दसवीं के प्री-बोर्ड एग्जाम के हिंदी विषय की कॉपिया बांटी जा रही थी। वंदना मैडम एक-एक करके रोल नंबर के अनुसार कॉपियां दे रही थी। मेरा नाम र से शुरू होता है तो बिच में कही आता था लेकिन सभी को कॉपी मिली मुझे नहीं मिली। मैडम ने अपने पास अलग से रखी थी और सारी कॉपियां बाटने के बाद उन्होंने मेरी कॉपी हवा में ऊपर उठाते हुए मेरा रोल नंबर बोला और पूछा यह कौन है?

मैं सहम गया था और उसी डरी सहमी आवाज़ में बोला कि “मैं हूं!” मैडम ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा और बोला, “तुम बहुत अच्छा लिखते हो। कमाल कर दिया। क्या लिखा है तुमने, मैं हैरान रह गई।”

वो पहला मौका था जब किसी ने मुझे विश्वास दिलाया था कि मैं लिख सकता हूं! आज भी वो शब्द मुझे प्रेरणा देते हैं कि मैं बहुत ही होनहार हूं और मैं बहुत अच्छा लिखता हूं। खुद को बहुत सौभाग्यशाली समझता हूं कि अध्यापकों से मेरा रिश्ता बहुत अच्छा रहा। आजकल फैशन के दौर में स्कूल और पढ़ाई इस तरह प्रभावित हुए हैं कि स्टूडेंट-टीचर के रिश्ते में अब वो मिठास ही नहीं रही।

मुद्दे से ना भटकते हुए वापस हिंदी पर आते हैं। भारत एक ऐसा देश है जहां हर राज्य की अपनी बोली अपनी भाषा है लेकिन जो हाल हिंदी का हो रहा है, वो बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। हिंदी भाषी राज्यों में भी दसवीं के बाद हिंदी ऐसे गायब होती है जैसे गधे के सर से सींग। अंग्रेज़ी इतनी ज़रुरी बन गई है कि कोई दो शब्द भी बोल दे तो उसका स्टैण्डर्ड बढ़ जाता है।

हिंदी बोलने वालों को पुराने ज़माने का समझा जाता है। जैसे-जैसे वक़्त बदल रहा है, हमारी अपनी ही भाषा पर पकड़ बहुत कमज़ोर होती जा रही है। मैं यह नहीं कहता कि सबका हिंदी पढ़ना आवश्यक है लेकिन जहां हम हिन्दू राष्ट्र बनाने का दवा करते हैं, वहीं हम हिंदी को ही बचा नहीं पा रहे हैं।

जितनी तवज्जो अंग्रेजी को मिलती है उतनी हिंदी को नहीं। बहुत दुःखद है कि हिंदी कंटेंट राइटर को अंग्रेज़ी वालों की तुलना में बहुत ही कम मेहनताना मिलता है। कुछ लोग तो बेरोज़गार ही इसलिए बैठे हैं, क्योंकि वो इंटरव्यू देने जाने से हिचकिचाते है।

चाहे प्रोफाइल का अंग्रेज़ी से कोई लेना देना नहीं हो लेकिन इंटरव्यू में HR ऐसे अंग्रेजी में सवाल करेगा जैसे सीधा ऑक्सफोर्ड में एडिटर की वेकेंसी निकली हो। खैर, छोड़िए इन बातों को बात निकलेगी तो बहुत दूर तलक जाएगी। आज हिंदी दिवस के अवसर पर मुझे बस अपना अनुभव साझा करना था।

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